दीपक मंडल, बीबीसी संवाददाता
G-7 के देशों ने चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के मुकाबले 600 अरब डॉलर के इन्फ्रास्ट्रक्चर प्लान का ऐलान किया है। पिछले साल ब्रिटेन में G-7 देशों की बैठक के दौरान इस स्कीम को लाने की योजना बनाई गई थी।
लेकिन रविवार को पार्टनरशिप फॉर ग्लोबल इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड इनवेस्टमेंट यानी पीजीआईआई के नाम से ये स्कीम रीलॉन्च की गई। इसे बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड ( Build Back Better World) यानी B3W भी कहा जाता है।
माना जा रहा है कि विकसित देशों की ये स्कीम चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का मुकाबला करने के लिए लाई गई है। बीआरआई चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की दिमाग की उपज है। इसके ज़रिये चीन एशिया, यूरोप और अफ्रीका के जोड़ने के लिए विशाल इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को अंजाम दे रहा है।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने जी-7 की इस पहल का ऐलान करते हुए कहा कि इसमें सबका फायदा है। बाइ़डन के इस बयान के खास मायने हैं।
अमेरिका और यूरोपीय देश चीन के बिल्ड एंड रोड इनिशिएटिव की ये कह कर आलोचना करते रहे हैं कि इसके जरिये वह विकासशील और गरीब देशों को कर्ज़ के जाल में फंसा रहा है।
हालांकि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग कई बार कह चुके हैं कि बीआरआई भले ही चीन की पहल हो लेकिन इससे पूरी दुनिया को फायदा होगा। चीन इसके ज़रिये न तो कोई जियोपॉलिटिकल मकसद साधना चाहता है और न ही कोई गुट बनाना चाहता है।
उनका कहना है कि इन आरोपों में कोई दम नहीं है कि बीआरआई के तहत तमाम देशों को वित्तीय मदद करते वक्त चीन अपनी मनमानी शर्त थोपता है और उन्हें कर्ज़ के जाल में जकड़ लेता है।
लेकिन सच्चाई ये है कि 2013 में शुरू की गई बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव आज दुनिया की सबसे बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजना बन चुकी है।
अब ये सिर्फ दो नए ट्रे़ड रूट से चीन और बाकी दुनिया को जोड़ने वाली इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजना नहीं रह गई है। ये नए चीन के बढ़ते आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक ताकत का प्रतीक बन गई है।
बीआरआई का असर
चीन दुनिया का सबसे बड़ा आयातक और निर्यातक देश बन चुका है। उसकी आर्थिक जरूरतें लगातार बढ़ रही हैं और उसे अब पूरी दुनिया का बाजार चाहिए।
लिहाजा पूरी दुनिया में अपना सामान पहुंचाने और और वहां से सामान लाने के लिए ही उसने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव जैसी बेहद महत्वाकांक्षी परियोजना शुरू की है। ज़ाहिर है इससे अमेरिका और यूरोप को वर्चस्व को चुनौती मिल रही है।
चीन जिस तरह से दुनिया भर के देशों को बीआरआई की परियोजनाओं से जोड़ रहा है, उससे जी-7 के देशों में चिंता स्वाभाविक है।
भारत में इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ के प्रोफेसर प्रभाकर साहू कहते हैं, '' चीन ने बीआरआई की परियोजनाओं से लगभग 100 से ज्यादा देशों को जोड़ लिया है। दुनिया भर में बीआरआई की 2600 परियोजनाएं चल रही हैं। इस परियोजना के तहत जिन देशों ने चीन से करार किया है, उनमें यह 770 अरब डॉलर से ज़्यादा निवेश कर चुका है। आगे चल कर इससे जुड़ी परियोजनाओं में खरबों डॉलर का निवेश होगा''
यूरोप का डर
बीआरआई के तहत चीन ने दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्वी एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व के इन्फ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश करने के बाद यूरोप का रुख़ किया है।
यूरेशियाई देशों में अब तक यह 23 अरब डॉलर का निवेश कर चुका है। इनमें यूक्रेन, जॉर्जिया, कज़ाकिस्तान, अज़रबैजान और चीन को जोड़ने वाली 5475 किलोमीटर लंबी मालवाही रेल परियोजना शामिल है।
चीन-बेलारूस पार्क, ग्रीस का पाइरिस बंदरगाह प्रोजेक्ट और ग्रीन इकोलॉजिकल रोड इनवेस्टमेंट फंड समेत कई परियोजनाओं ने यूरोप की नींद उड़ा रखी है।
अब विकसित देश खास कर फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन और इटली को लग रहा है कि चीन विकासशील देशों के बाजारों को अपने साथ जोड़ने की दिशा में काफी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है।
इन देशों के श्रम बाजार पर अब तक यूरोप और अमेरिका का वर्चस्व था। लेकिन चीन अब उनके सामने चुनौती खड़ी करने में लगा है।
यही वजह कि जी-7 ने बीआरआई को टक्कर देने के लिए पीजीआईआई के नाम से ये स्कीम लॉन्च की है।
इस योजना के तहत जी-7 देशों के नेता अगले पांच साल में मध्य और कम आय वर्ग वाले देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट शुरू करने के लिए 600 अरब डॉलर जुटाएंगे।
अकेले अमेरिका ने ग्रांट, फेडरल फंड्स और निजी निवेश के जरिये 200 अरब डॉलर देने का ऐलान किया। यूरोपीय यूनियन के देश 300 अरब डॉलर देंगे।
चीन का वर्चस्व और जी-7 देशों की चिंता
बीजिंग में पेकिंग यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर अरविंद येलेरी कहते हैं, '' ऐसा नहीं है कि यूरोप और अमेरिका विकासशील देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर पर निवेश नहीं कर रहे हैं। पहले से ही उनका 250 से 300 अरब डॉलर का निवेश चल रहा। लेकिन इसे बढ़ा कर वह 600 अरब डॉलर का करने जा रहा है तो इसकी वजह है। चीन के बढ़ते वर्चस्व से सबसे ज्यादा खतरा यूरोप को है। चीन यूरोप में न सिर्फ निवेश कर रहा है बल्कि इसकी आड़ में वह अपनी सामरिक ताकत भी मजबूत कर रहा है। ''
येलेरी आगे कहते हैं, '' यूरोप में चीन जिस तेजी से निवेश बढ़ा रहा है उससे 2030-35 तक वह बहुपक्षीय वाणिज्य, कारोबार और आर्थिक सौदेबाजी में बड़ी ताकत बन जाएगा। इसके साथ ही वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य भी। चीन की इस दोहरी ताकत से यूरोप डरा हुआ है। ''
'' इसके साथ ही यूक्रेन संकट ने यह साबित कर दिया कि सामरिक और आर्थिक ताकत आपस में जुड़ी हैं। अब तक यूरोप ये मान कर चल रहा था कि कारोबार में चीन के वर्चस्व को सीमित करने से उसका काम चल जाएगा। लेकिन अब उसके सामने चीन को सामरिक मोर्चे पर रोकना भी चुनौती बन गया है। यही वजह है कि वह विकासशील और गरीब देशों में बीआरआई की निवेश योजना के मुकाबले अपनी निवेश योजनाओं को धार देने में लगा है'' ।
बीआरआई का मुकाबला कर पाएगी ये योजना?
अब सवाल ये है कि चीन के मुकाबले जी-7 देशों की ये पहल कितनी सफल होगी।
प्रभाकर साहू कहते हैं, '' चीन का पूरा फोकस अपने एजेंडे पर है और वो अभी काफी आगे चल रहा है। बीआरआई समिट, बोआओ फोरम फॉर एशिया, चाइना सेंट्रल एंड ईस्टर्न यूरोप ( सीईई) और बेल्ट एंड रोड फोरम जैसे मंचों के जरिये उसने ज्यादा से ज्यादा देशों को बीआरआई के दायरे में लाने और इसकी स्वीकार्यता बढ़ाने की कोशिश की है। ''
साहू कहते हैं, '' बीआरआई के नकारात्मक पहलुओं का मुकाबला करने के लिए निश्चित तौर पर जी-7 की मौजूदा पहल अच्छी है। लेकिन ये देर से उठाया गया कदम है। इसमें एक ठोस सोच और योजना की कमी दिखती है। लेकिन देर से ही सही ये सही दिशा में उठाया गया कदम है। देखना ये होगा कि इसमें भारत की क्या भूमिका होगी क्योंकि यह शुरू से बीआरआई का कट्टर विरोधी रहा है। ''
क्या है जी-7 देशों की इस पहल का असली मकसद?
जी-7 के देशों की इस पहल का असली मकसद क्या है? क्या ये चीन की सामरिक बढ़त को कम करने की नई कोशिश है?
दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर ईस्ट एशियन स्टडीज की प्रोफेसर अलका आचार्य का कहना है, ''आज की तारीख में कोई भी देश सीधे चीन के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत नहीं दिखा सकता। ये अमेरिका के लिए चिंता की बात बनी हुई है। चीन के खिलाफ इस वक्त कोई राजनीतिक मोर्चेबंदी मुश्किल दिखती है। इसलिए अमेरिका और यूरोपीय के देश कारोबार और कनेक्टिविटी के जरिये अपने वर्चस्व में इज़ाफ़ा करना चाहते हैं। ''
जो बाइडन ने जी-7 देशों के इन्फ्रास्ट्रक्चर प्लान का जिक्र करते हुए कहा कि ये कोई चैरिटी नहीं है। यह निवेश है, इसका लाभ सबको होगा। उनका इशारा उन आरोपों की ओर था, जिनमें कहा जा रहा है कि चीन दुनिया भर के देशों को वित्तीय मदद देने के बहाने कर्ज के जाल में फंसा रहा है।
इन आरोपों पर अलका आचार्य कहती हैं, '' बीआरआई का कारवां बढ़ता ही जा रहा है। अगर ये कर्ज का जाल होता तो इससे इतने सारे देश नहीं जुड़ते। दिक्कत चीनी निवेश की वजह से नहीं है। ज्यादातर देशों की अपनी आर्थिक दिक्कतें रही हैं। इसलिए वे मुश्किल में फंसे हैं।मैंने ऐसा कोई देश नहीं देखा जो चीन के कथित आर्थिक जाल में फंस कर दिवालिया हुआ है। या फिर किसी देश ने इस कथित जाल से डर कर चीन के निवेश से इनकार किया हो। ''
विकासशील देशों को कितना भरोसा?
सबको फायदा होने के अमेरिका की इस 'गारंटी' पर कितने देशों को विश्वास होगा। क्योंकि अमेरिका ने पिछले कुछ साल ने कई बहुपक्षीय कारोबारी मंच का ऐलान किया लेकिन कई मौकों पर वो अपने ही वादों से पीछे हट गया।
अलका आचार्य कहती हैं, '' विकासशील देशों को इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए धन देने की ये परियोजना अभी शुरुआती दौर में है। देखना ये है कि आने वाले दिनों में ये कैसे आगे बढ़ेगी। क्योंकि अमेरिका कहता कुछ है और करता कुछ। अमेरिका ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप से अलग हो चुका है। अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए वो भारत जैसे सहयोगी देश के खिलाफ भी ड्यूटी बढ़ा चुका है। पिछले कुछ सालों के दौरान उसने एक के बाद एक आर्थिक संरक्षणवाद के कई कदम उठाए हैं। इससे सहयोगी देशों को भी नुकसान हुआ है। हाल में इसने आईपीईएफ जैसे मंच का ऐलान किया है। लेकिन ये भी अभी शुरुआती दौर में है''
बहरहाल चीन की बीआरआई के मुकाबले विकासशील देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए निवेश करने की जी-7 देशों की परियोजनाओं को लेकर तमाम देश अभी ' देखो और इंतजार करो' की ही नीति पर चलेंगे।
विश्लेषकों का मानना है कि बीआरआई की तुलना में ये एक कमजोर पहल दिखती है। ये आने वाला वक्त ही बताएगा जी-7 के देश अपनी इस पहल को लेकर कितने गंभीर हैं।