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Written By BBC Hindi
Last Modified: शुक्रवार, 24 जून 2022 (07:42 IST)

उद्धव ठाकरे के हिन्दुत्व पर क्या भारी पड़ा बीजेपी का हिन्दुत्व

उद्धव ठाकरे के हिन्दुत्व पर क्या भारी पड़ा बीजेपी का हिन्दुत्व - BJP hindutva and Uddhav Thackeray hindutva
विनीत खरे, बीबीसी संवाददाता
महाराष्ट्र में शिव सेना सरकार के भविष्य पर तलवार लटकी हुई है। इसी बीच सवाल उठ रहे हैं कि इस राजनीतिक संकट का राष्ट्रीय विपक्ष पर क्या असर पड़ेगा। आम चुनाव में दो साल रह गए हैं और जानकार कह रहे हैं कि महाराष्ट्र में एनसीपी, कांग्रेस और शिव सेना की महाविकास अघाड़ी पर संकट से पहले से कमज़ोर राष्ट्रीय विपक्ष और ज़्यादा कमज़ोर हो जाएगा।
 
सीएसडीएस के प्रोफेसर संजय कुमार कहते हैं, "विपक्ष पहले से ही मरा हुआ है। उनका साल 2024 में आम चुनाव जीतने का कोई चांस ही नहीं है। अगर आप अगले महीने लोकसभा चुनाव करवाएं, भाजपा और बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आएगी। कांग्रेस और नीचे जाएगी। विपक्ष तो और कमज़ोर हो ही रहा है।"
 
हालांकि, प्रशांत किशोर जैसे विश्लेषक मानते हैं कि राजनीति में दो साल का वक़्त बहुत लंबा होता है। इस पर संजय कुमार कहते हैं, "जो मैं देख रहा हूँ, भाजपा को 350 तक सीटें मिल सकती हैं और कांग्रेस 30 या 20 तक भी जा सकती है।"
 
वैकल्पिक हिंदुत्व देने में चूके ठाकरे?
पुणे में हिंदू बिज़नेस लाइन में वरिष्ठ पत्रकार राधेश्याम जाधव के मुताबिक़ उद्धव ठाकरे और शिव सेना में उनके अनुयायियों ने भाजपा के हिंदुत्व के मुक़ाबले महाराष्ट्र में एक वैकल्पिक हिंदुत्व देने की कोशिश की थी।
 
इससे एनसीपी और कांग्रेस को उम्मीद बंधी थी कि वो इस वैकल्पिक हिंदुत्व के मॉडल को देश के दूसरे हिस्सों में ले जा सकेंगे, लेकिन शिव सेना सरकार में संकट से इन कोशिशों को धक्का लगेगा।
 
राधेश्याम जाधव के मुताबिक़, उद्धव ठाकरे ने विधानसभा में कहा था कि उनका हिंदुत्व सबको साथ में लेकर चलने वाला है।
 
महाराष्ट्र में हिंदुत्व राजनीति के इतिहास पर वो कहते हैं, "बाल ठाकरे ने हिंदुत्व राजनीति की शुरुआत की। भाजपा को लगा कि अगर उन्हें महाराष्ट्र में आगे बढ़ना है तो हिंदुत्व की अकेली आवाज़ बनना होगा, इसलिए वो चाहते थे कि शिव सेना छोटे भाई का रोल अदा करे।"
 
"उद्धव ठाकरे ने 2019 में भाजपा गठबंधन से अलग होने का फ़ैसला किया। कांग्रेस, टीएमसी और एनसीपी जैसे दलों को उम्मीद बंधी कि भाजपा के हिंदुत्व से निपटने के लिए उन्हें एक अलग हिंदुत्व की सोच चाहिए। उन कोशिशों को इस राजनीतिक संकट से झटका लगेगा।"
 
"राष्ट्रीय राजनीति में अब हिंदुत्व की बात करने वाली भाजपा एकमात्र पार्टी होगी। भाजपा ने अपने अनुयायियों को भरोसा दिला दिया है कि शिव सेना को उसके ही लोगों ने चुनौती दी है। भाजपा के लोग कह रहे हैं कि ये पहला मौक़ा है जब किसी राज्य में हिंदुत्व के मुद्दे के कारण सरकार गिर जाएगी।"
 
हिंदुत्व और ईडी
राधेश्याम जाधव ये भी कहते हैं कि एकनाथ शिंदे के विद्रोह का हिंदुत्व को बचाने से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि वजह ये है कि गुवाहाटी में जमा हुए बहुत से शिव सेना विधायक अपने बिज़नेस, संस्थाओं आदि को लेकर एन्फ़ोर्समेंट डायरेक्टोरेट के निशाने पर हैं।
 
वो कहते हैं, "ये सब इसलिए हो रहा है ताकि भाजपा वापस सत्ता में आ सके और वो हिंदुत्व की अकेली आवाज़ बन सके।" 
 
एकनाथ शिंदे के विद्रोह में भाजपा की भूमिका के साफ़ इशारे मिल रहे हैं।
 
कांग्रेस के पूर्व प्रवक्ता संजय झा के मुताबिक अगर उद्धव ठाकरे की सरकार गिरती है तो भाजपा को परसेप्शन की लड़ाई का फ़ायदा मिलेगा। लोगों को लगेगा कि भाजपा अब भी लगातार जीत रही है या सरकार बना रही है, इसके पलट विपक्ष धड़ाम से गिर जा रहा है।
 
वो कहते हैं, "ऐसा लगेगा कि विपक्ष में लड़ने की क्षमता नहीं है। भाजपा देश के हर हिस्से में जाकर कहेगी कि लोग हमें चाहते हैं।"
 
उधर कांग्रेस प्रवक्ता पीएल पुनिया के मुताबिक़ शिव सेना के जो विधायक टूटकर जा रहे हैं, उससे ये नहीं मान लेना चाहिए कि पार्टी कमज़ोर हो रही है। वो कहते हैं, "विधायक बनने के बाद अगर लोग पार्टी बदलते हैं तो ज़रूरी नहीं कि वो वोटर्स को भी अपने साथ लेकर जा रहे है।"
 
बिखरा विपक्ष
भारत के 17 राज्यों में भाजपा शासन कर रही है, यानी देश का 44 प्रतिशत इलाक़े पर और क़रीब 50 प्रतिशत जनसंख्या पर भाजपा शासन कर रही है। विपक्षी दल कांग्रेस का आधार सिमट रहा है, साथ ही एक के बाद एक नेता पार्टी को अलविदा कह रहे हैं।
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं और कहा जाता रहा है कि कमज़ोर और बिखरा हुआ विपक्ष उनकी मज़बूत स्थिति की कई वजहों में से एक महत्वपूर्ण वजह है।
 
सीएसडीएस के संजय कुमार के मुताबिक़ विपक्ष ऐसा कोई संदेश नहीं दे रहा है कि वो भाजपा से लड़ने के लिए एकजुट है, बल्कि संदेश ये आ रहे हैं कि हर विपक्षी नेता दूसरे के ऊपर भारी पड़ना चाहता है।
 
ऐसे में महाराष्ट्र का घटनाचक्र विपक्ष के लिए अच्छी ख़बर नहीं, जहां कांग्रेस भी सत्ता में शामिल थी।
 
संजय झा कहते हैं, "कांग्रेस विपक्ष का केंद्र है। इसकी कमज़ोरी का असर दूसरे दलों पर भी पड़ा है। उन्हें हारने वाले की तरह देखा जा रहा है। सोच बन गई है कि अगर कांग्रेस से नहीं होगा तो ये पार्टियां तो स्थानीय दल हैं। इनकी राष्ट्रीय स्तर पर तो पहुंच है नहीं।"
 
वो कहते हैं कि न ही बुलडोज़र मुद्दे पर विपक्षी दल साथ आए, न ही राहुल गांधी को एन्फ़ोर्समेंट डायरेक्टोरेट के सामने घंटों लंबी पेशी पर ग़ैर-कांग्रेसी दलों ने केंद्रीय एजेंसियों के ग़लत इस्तेमाल पर बात की।
 
यशवंत सिन्हा के नाम का एलान
विपक्षी रणनीति का एक नमूना राष्ट्रपति चुनाव के लिए संयुक्त उम्मीदवार यशवंत सिन्हा की घोषणा में दिखा।
 
टीएमसी के पवन वर्मा कहते हैं कि अगर राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार को विपक्ष की एकता के मौक़े के तौर पर पेश करना था तो कोशिशें एक साल या छह महीने पहले ही शुरू हो जानी चाहिए थी।
 
इसके लिए राष्ट्रीय तौर पर समन्वय होना चाहिए था, नवीन पटनायक और जगन रेड्डी जैसे नेताओं से बात की जानी चाहिए थी ताकि सोच समझकर उम्मीदवार का चुनाव हो, न कि चुनाव से कुछ दिनों पहले विपक्ष की मीटिंग बुलाना और हाथों में हाथ लेकर "आंकड़ों की एकता" को ढूंढना।
 
पवन वर्मा के मुताबिक़ जब पार्टियां वापस अपने प्रदेशों में जाकर एक दूसरे के ख़िलाफ़ राजनीतिक लड़ाइयां लड़ती हैं। तो "देश को आंकड़ों की एकता नहीं चाहिए जो स्टेज पर हाथ में हाथ लेकर पेश की जाती है।।।। देश को सही मायनों में एकता चाहिए।"
 
पवन वर्मा की मानें तो यशवंत सिन्हा के नाम की घोषणा के बाद उन्हें इस लड़ाई को लड़ने के लिए अकेले छोड़ दिया गया है, और उन्हें "ज़मीन पर ऐसा कोई संकेत नहीं दिखता कि विपक्षी नेता एक अभियान में लड़ाई लड़ने के लिए ख़ुद को संगठित कर रहे हैं।"
 
वो कहते हैं, "यशवंत सिन्हा के पास अनुभव है, वो कुशल राजनीतिज्ञ हैं लेकिन मेरे विचार में ऐसे कई तर्कसंगत कारण हैं कि कई पार्टियां द्रौपदी मुर्मू का भी समर्थन करें। वो आदिवासी हैं, महिला हैं और उन्होंने अपने जीवन को ख़ुद संवारा है।"
 
यानी भाजपा ने पद के लिए ऐसी उम्मीदवार पेश किया है जिसके ख़िलाफ़ जाना कई विपक्षी दलों के लिए भी आसान नहीं होगा।
 
महाराष्ट्र और राष्ट्रीय विपक्ष
इस साल मुंबई के बीएमसी सहित दूसरे शहरों में स्थानीय चुनाव भी होने हैं।
 
सालों से बीएमसी पर शिव सेना की पकड़ है। माना जाता है कि बीएमसी का बजट शिव सेना की राजनीति की लाइफ़ लाइन है।
 
यानी एक तरफ़ शिव सेना के सामने महत्वपूर्ण स्थानीय चुनावों को जीतने की चुनौती है तो दूसरी तरफ़ अपने राजनीतिक भविष्य की लड़ाई लड़ने की भी चुनौती है।
 
एक सूत्र ने दावा किया कि हालत ये है कि एनसीपी प्रमुख शरद पवार भी शिव सेना की मदद नहीं कर पा रहे हैं और इसलिए उन्होंने इसे शिव सेना का आंतरिक मामला बताया है।
 
टीएमसी के पवन वर्मा के मुताबिक़ विपक्ष को समझना होगा कि अगर वो बेहतर ढंग से तालमेल नहीं करता तो वो मुश्किलों से घिरा रहेगा।
 
पवन वर्मा कहते हैं, "जब तक ज़मीनी स्तर पर एक रणनीति के तहत विपक्षी दल एकत्रित नहीं होंगे, एक कॉमन मिनिमम कार्यक्रम बनाकर देशव्यापी स्तर पर अपनी एकजुटता प्रदर्शित नहीं करेंगे, तब तक वो जनता के असंतोष को चैनलाइज़ नहीं कर पाएंगे। पार्टियां एकत्रित होती हैं फिर एक दूसरे के खिलाफ़ चुनावी अभियान लड़ती हैं। और उसकी मिसाल आपके पास तो दर्जनों हैं। इस स्थिति में फ़ायदा बीजेपी को जाता है।"
 
वो कहते हैं कि अगर विपक्ष को ये बात समझ नहीं आती तो 2024 का अगला आम चुनाव भाजपा के पक्ष में जाएगा।
 
अख़बार साकाल की मृणालिनी नानिवादेकर की मानें तो अगर उद्धव ठाकरे शिव सेना के सामने इस चुनौती में सफल होते हैं तो भविष्य में पार्टी एक बार फिर मज़बूत स्थिति में आ सकती है।
 
पर फ़िलहाल जब शिव सेना अपने भविष्य की लड़ाई लड़ रही है, देश के विपक्ष की निगाहें उस पर हैं।
 
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