सोमवार, 23 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. बीबीसी हिंदी
  3. बीबीसी समाचार
  4. How is this epidemic pushing women back decades?
Written By BBC Hindi
Last Updated : रविवार, 14 जून 2020 (09:19 IST)

कोरोनावायरस : महिलाओं को दशकों पीछे कैसे धकेल रही है ये महामारी?

कोरोनावायरस : महिलाओं को दशकों पीछे कैसे धकेल रही है ये महामारी? - How is this epidemic pushing women back decades?
- अनंत प्रकाश

इंदिरा गांधी को पसंद करने वाली 19 वर्षीय मौली को जब उनकी पहली नौकरी मिली तो उनके लिए ये किसी जादुई एहसास से कम नहीं था। अपनी रोल मॉडल इंदिरा की तरह वे समाज में खुलकर अपने विचार रख रही थीं।
मौली की मानें तो उस नौकरी ने उन्हें ये एहसास कराया कि वो कोई रबड़ की गुड़िया नहीं हैं, बल्कि एक जीती-जागती इंसान थीं।

इस नौकरी ने मौली को एक ख़ास दुनिया दी जिसमें वह बीते तीस सालों से जी रही थीं। लेकिन कोरोनावायरस के चलते उनकी ये दुनिया कुछ महीनों में ही उजड़ गई। उन्हें उस नौकरी से हाथ धोना पड़ा जो उनकी शख़्सियत का हस्ताक्षर थी। इस महामारी में मौली जैसे करोड़ों लोगों की नौकरियों चली गई हैं।

हर स्तर पर बेरोज़गारी
कोरोनावायरस की वजह से लगाए गए लॉकडाउन के चलते भारत में संगठित क्षेत्रों और असंगठित क्षेत्रों की नौकरियों में भारी कमी आई है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकोनॉमी का हालिया सर्वे बताता है कि भारत में कम से कम 12 से 13 करोड़ लोगों की नौकरियां मई महीने के शुरुआत में ही जा चुकी हैं। नौकरियां जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी है।

क्योंकि लॉकडाउन ख़त्म होने के बाद भी वायरस के तेज़ प्रसार की वजह से व्यवसायिक संस्थानों में काम शुरू होता नहीं दिख रहा है। ऐसे में कोरोनावायरस दुनिया को किस हाल में छोड़ेगा, ये फिलहाल बताना मुश्किल है। लेकिन इस संकट का नकारात्मक असर भारत के कामगार तबके की लैंगिक समानता पर पड़ना शुरू हो चुका है। कई शोधार्थी बता चुके हैं कि काम करने वाली महिलाओं की संख्या में भारी कमी आ सकती है।

संयुक्त राष्ट्र ने भी अपनी हालिया रिपोर्ट में चेतावनी दी है कि ये महामारी महिलाओं के समाज में बराबरी हासिल करने के दशकों पुराने संघर्ष पर पानी फेर सकती है। रिपोर्ट कहती है कि इस महामारी के दौरान महिलाओं के अनपेड वर्क यानी बिना पैसे वाले काम में बेपनाह बढ़ोतरी हुई है। रिपोर्ट बताती हैं, कई देशों में सबसे ज़्यादा कटौती विशेषत: सेवा प्रधान क्षेत्रों जैसे रिटेल, हॉस्पिटेलिटी, पर्यटन आदि से जुड़ी नौकरियों में देखी गई है।

इन क्षेत्रों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व ज़्यादा है। लेकिन विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में स्थिति इससे भी ख़राब है। वहां सत्तर फीसदी महिलाएं असंगठित क्षेत्रों में काम करती हैं जहां उनके पास नौकरियां बचाए रखने के विकल्प बेहद कम हैं। महिलाओं के लिए आगे की राह मुश्किल? भारत में गाँवों से आने वाली महिलाएं दिल्ली, मुंबई, लुधियाना और बंगलुरु जैसे शहरों में प्रतिदिन या मासिक तनख़्वाहों पर काम करती हैं।

अक्सर इन महिलाओं और नौकरी प्रदाता के बीच किसी तरह का क़ानूनी क़रार या पंजीकरण नहीं होता है। ये महिलाएं उत्पादों की पैकेजिंग और कपड़ो की सिलाई-बुनाई जैसे काम करती हैं। इसके साथ ही महिलाओं का एक बड़ा वर्ग स्कूलों से लेकर अस्पतालों और होटलों में सफाई कर्मचारियों, नर्सों, वॉर्ड गर्ल आदि के रूप में भी काम करता है। ये वो वर्ग है जिसकी बचत क्षमता बेहद कम होती है।

ऐसे में लॉकडाउन लगने के बाद कुछ दिन तक इस वर्ग की महिलाएं शहरों में गुज़ारा करती रहीं। लेकिन आख़िरकार उन्हें अपने गाँव की ओर रुख करना पड़ा। इस वर्ग की नौकरियां जाने का परिणाम अब तक शहरों से गाँवों की ओर होते पलायन में दिख रहा है। लेकिन इसी बीच धीमे धीमे उन नौकरियों को ख़त्म किए जाने की ख़बरें भी आ गईं जो कि संगठित क्षेत्रों के तहत आती हैं।

इनमें आईटी सेक्टर में, स्टार्टअप, मीडिया, एयरलाइंस, पर्यटन और एक्सपोर्ट इंडस्ट्री शामिल है। ये वो क्षेत्र हैं जहां महिलाओं का प्रतिनिधित्व पुरुषों की अपेक्षा ज़्यादा है। इस संकट का असर भी महिलाओं पर ज़्यादा पड़ता हुआ दिख रहा है। हाल ही में किए गए एक सर्वे में सामने आया है कि कोविड लॉकडाउन के दौरान भारी संख्या में महिलाओं की नौकरियां गई हैं।

मौली मानती हैं कि इस संकट के चलते उन महिलाओं का करियर संकट में पड़ सकता है जो कि अपने जीवन में एक ख़ास मोड़ पर हैं। अपना उदाहरण देते हुए मौली कहती हैं, मैं इस समय जीवन के एक ऐसे मोड़ पर हूँ जहां से वापसी मुश्किल नज़र आती है। मैंने अपने तीस साल लंबे करियर में कई उतार चढ़ाव देखे हैं। सामाजिक दबाव से लेकर वर्क प्लेस पर असुरक्षित माहौल भी झेला है लेकिन शायद इस त्रासदी से उबरना मुमकिन नहीं होगा।

अलग उम्र अलग समस्याएं
भारत में महिलाओं को काम करने के लिए तमाम सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। ऐसी ही चुनौतियों से दो चार हो चुकीं मौली बताती हैं, वो अविवाहित महिलाएं जो छोटे शहरों में काम करती हैं और उनकी उम्र 22 से 25 साल के बीच है, उन पर घरवालों की ओर से शादी करने का दबाव बनाया जा सकता है, वहीं शादी शुदा महिलाएं परिवार को आगे बढ़ाने जैसी माँगों का सामना कर सकती हैं।

कई महिलाओं के लिए आगामी कुछ महीनों के बाद नौकरी में वापसी करना बेहद मुश्किल हो सकता है। ऐसी ही उम्र में एक बार पहले नौकरी छोड़ने को मजबूर हो चुकीं मौली कहती हैं, चाहें कोविड 19 हो या कोई दंगा।।।संकट चाहें जिस स्वरूप में आए, वह महिलाओं के पैरों में पड़ी बेड़ियों को कसता चला जाता है। मुझे याद है कि जब 1992 के हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए तो मैं पूरे जोशो-ख़रोश के साथ उन्हें कवर कर रही थी।

मैंने अपनी आँखों के सामने गोलियां चलते हुए देखी हैं। लेकिन मैं अपना काम करने में सक्षम थी। इसके बावजूद सुरक्षा की दुहाई देकर मुझे रिपोर्टिंग नहीं करने दी गई। यही नहीं, आख़िरकार मुझे नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया। वो पहला मौका था जब मैंने नौकरी छोड़ी। इसके बाद मुझे दोबारा नौकरी हासिल करने के लिए 16 साल तक इंतज़ार करना पड़ा।

और आज दूसरा मौका है जब एक बार फिर मुझे नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर किया गया है। लेकिन इन दोनों ही मौकों में एक चीज़ समान है कि उस समय भी पुरुषों को नौकरी छोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया गया था और आज भी महिलाओं की तरह पुरुषों को नौकरी छोड़ने के लिए बाध्य नहीं किया गया। ऐसे में मैं ये सवाल पूछना चाहती हूँ कि क्या इस समय जिन पुरुषों की नौकरियां जा रही हैं, उन्हें भी नई नौकरी हासिल करने के लिए महिलाओं जितना कठिन संघर्ष करना पड़ेगा।

क्या उन्हें भी माँ बनने, बच्चे पालने और बड़े-बूढ़ों की मदद के नाम पर अपने करियर से समझौता करने के लिए मजबूर किया जाएगा। मौली की नाराज़गी की झलक अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की उस रिपोर्ट में मिलती है जो कि ये बताती है कि भारत में महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा 9।6 गुना ज़्यादा काम करती हैं। लेकिन इस काम के बदले में उन्हें किसी तरह का मानदेय या श्रेय नहीं मिलता है। नौकरी जाने के बाद घर परिवार से जुड़ी ज़िम्मेदारियां महिलाओं के लिए नई नौकरियां तलाश करने की संभावनाएं कम कर देती हैं।

उम्मीद की किरण
लैंगिक समानता की पक्षधर और राजनीति शास्त्र की वैज्ञानिक स्वर्णा राजगोपालन मानती हैं कि आने वाले दिन महिलाओं के लिए काफ़ी मुश्किल हो सकते हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट में स्वर्णा कहती हैं, महिलाओं को नौकरियों की संख्या में कमी होने की वजह से नौकरियां हासिल करने में दिक्कतें हो सकती हैं। कम से कम कुछ समय के लिए ऐसा ज़रूर हो सकता है।

मैं इस बात को लेकर बेहद चिंतित हूँ। हम अभी भी पुरुषों को हमारे परिवारों का मुख्य कमाने वाले के रूप में देखते हैं। ऐसे में अगर हमें लोगों को नौकरियों से निकालने से जुड़े फैसले लेने पड़ें तो महिलाओं को अपनी नौकरियों से हाथ धोने पड़ेंगे। इससे फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें नौकरियों की कितनी ज़रूरत है या वे कितनी मेहनत से काम करती हैं। लेकिन कहीं कहीं पर उम्मीद अभी भी बाकि है।

दशकों से महिलाओं को उनकी पारिवारिक संपत्ति में अधिकार दिलाने में महिलाओं की मदद कर रहीं संस्था मक़ाम से जुड़ीं सोमा केपी वर्तमान समस्या को लेकर चिंतित नज़र आती हैं। लेकिन वे ये भी मानती हैं कि जो लड़कियां एक बार इतने लंबे संघर्ष के बाद सामाजिक बेड़ियों से आज़ाद हो चुकी हैं, वे इतनी आसानी से वापस आसानी से सामाजिक बेड़ियों की शिकार नहीं होंगी।

सोमा कहती हैं, हमें लगातार रिपोर्ट्स मिल रही हैं कि लॉकडाउन के दौरान महिलाओं ने डोमेस्टिक वॉयलेंस के साथ - साथ पुलिस की ओर से भी वो काम करने के लिए प्रताड़ना झेली है जिसके बदले में उन्हें कुछ नहीं मिलता। लॉकडाउन के दौरान वे आधी रात को खेत जाकर चारा लेकर आती थीं ताकि गाय-भैंस दूध दे सकें।

लेकिन ये ऐसा काम है जिसके बदले में उन्हें कोई शुक्रिया तक नहीं कहता। मगर वे लगातार करती रहीं। मगर अब ये सरकार और व्यावसायिक घरानों पर निर्भर करेगा कि वे कोरोनावायरस के बाद की दुनिया में महिलाओं को किस तरह समावेशित करने के प्रयास करते हैं।