- लूसी जोन्स
घरेलू गौरैया दुनिया में सबसे ज़्यादा इलाक़ों में पायी जाने वाली जंगली चिड़िया है। ये परिंदा अंटार्कटिका के सिवा हर महाद्वीप पर पाया जाता है। गौरैया को अक्सर इंसानों की बस्ती के आस-पास देखा गया है। फिर चाहे वो शहरी इलाक़ा हो, जंगल हों या फिर ग्रामीण बस्तियां।
हालांकि, अब पूरी दुनिया में गौरैया की आबादी घट रही है। ब्रिटेन में तो गौरैया बड़ी तेज़ी से ख़त्म हो रही हैं। लेकिन, बहुत से देशों में गौरैया की अपनी अलग पहचान है। किसी झाड़ी, पेड़ या दीवार की दरार से चांव-चांव करती गौरैया का दिख जाना बहुत आम बात है। कभी ये तालाब में तो कभी किसी नदी या पोखर में गोते लगाती भी दिख जाती हैं।
कैसे हुआ गौरैये का विकास
इतनी ज़्यादा तादाद में होने के बावजूद, अचरज की बात ये है कि इसके विकास की कहानी के बारे में हाल के दिनों तक लोगों को ज़्यादा जानकारी नहीं थी। माना जाता है कि इस पक्षी की नस्ल सबसे पहले मध्य-पूर्व में विकसित हुई थी। यहीं से ये पूरे यूरोप और एशिया में फैल गई।
बाद में इस पंछी को ऑस्ट्रेलिया और उत्तरी अमरीका ले जाकर आबाद किया गया। यूजीन शीफेलिन नाम के एक कलाकार ने अमरीका में शेक्सपियर के नाटकों के मंचन के दौरान गौरैया को भी नाटकों का किरदार बनाने की कोशिश की। ये बात उन्नीसवीं सदी के आख़िर की है। शायद यूजीन ने ही अमरीका का तार्रुफ़ गौरैया से कराया था।
क्या गौरैया को ग़ैरज़रूरी समझा गया?
नॉर्वे की ओस्लो यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक मार्क रविनेट को घरेलू गौरैया के विकास की कहानी में दिलचस्पी तब पैदा हुई, जब उन्हें अंदाज़ा हुआ कि गौरैया के विकास की कहानी पर तो किसी ने ढंग से ग़ौर ही नहीं किया।
द रॉयल सोसाइटी की तरफ़ से प्रकाशित एक लेख में मार्क ने इस परिंदे के विकास पर अच्छी रोशनी डाली है। गौरैया चूंकि बड़ी तादाद में हमारे आस-पास दिखती है, शायद इसीलिए हमने इसके विकास को समझने की कोशिश नहीं की।
लेकिन, मार्क रविनेट के रिसर्च से कई चौंकाने वाले नतीजे सामने आए हैं। ये बात तो पहले से साफ़ थी कि गौरैया ने ख़ुद को इंसानों के आस-पास रहने के हिसाब से ढाल लिया था। चूंकि, गौरैया ने इंसानी बस्तियो के आसपास लंबा वक़्त गुज़ारा था, तो ये वक़्त की मांग थी कि ये पंछी, इंसानों से तालमेल बैठा लें।
अंग्रेज़ अधिकारियों का गौरैया प्रेम
मार्क कहते हैं कि, ''अगर आप गौरैया के दुनिया में विस्तार के नक़्शे पर नज़र डालें तो ये अपने प्राचीन आवास यानी मध्य-पूर्व के देशों के अलावा उत्तरी अमरीका, दक्षिणी अफ़्रीका और ऑस्ट्रेलिया तक में पाई जाती है। इससे एक बात तुरंत साफ़ होती है कि जो लोग भी गौरैया को इन देशों में लेकर गए, वो ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया के युग के लोग थे। उनका ताल्लुक़, ब्रिटिश साम्राज्य से था।'
अंग्रेज़ों को लगता था कि वो उनकी बगिया की साथिन है। तो, वो जहां भी गए, गौरैया को अपने साथ ले गए। उसकी चहचहाहट से अपने वतन से दूर बैठे लोगों को अपने मुल्क में होने का एहसास होता था। ऐसा अंदाज़ा लगाया जाता था कि खेती के विकास के साथ-साथ गौरैया की नस्ल का भी विकास हुआ।
मार्क रविनेट कहते हैं, 'मैं ये तो नहीं कहूंगा कि इस अंदाज़े पर मेरी रिसर्च से मुहर लगती है। लेकिन, जितना मैंने पढ़ा-समझा है उससे एक बात साफ़ है कि जैसे-जैसे खेती करने की प्रक्रिया एक जगह से दूसरी जगह पहुंची, गौरैया भी वहां पहुंच गई।'
घरेलू गौरैया का जंगली गौरैया से रिश्ता
मार्क और उनकी टीम की अगली चुनौती घरेलू गौरैया का जंगली गौरैया यानी बैक्ट्रियानस स्पैरो के डीएनए से मिलान।
मार्क बताते हैं, 'जब मैंने कल्पना की कि दोनों एक दूसरे से बहुत मिलती होंगी। दोनों प्रजातियों के बीच मामूली फ़र्क़ होगा। लेकिन, मुझे ये देख कर झटका लगा कि दोनों प्रजातियों में बहुत अंतर है। साफ़ था कि विकास की प्रक्रिया में कुछ तो ऐसा ज़रूर हुआ होगा जिससे घरेलू गौरैया के जंगली रिश्तेदारों का विकास हुआ।"
"इससे हम गौरैया के विकास के पथ को और गंभीरता से पड़ताल करने पर मजबूर हो गए। आख़िर क्या वजह थी कि दोनों नस्लों में ये फ़ासला बढ़ा? अब ये पता लगाना ज़रूरी हो गया था।'
मार्क रविनेट ने पाया कि दोनों प्रजातियों में दो जीन का फ़र्क़ था।
मार्क बताते हैं कि, 'मैंने पहले घरेलू गौरैया के बारे में गूगल से पड़ताल की। मुझे बता चला कि जो जीन इसकी खोपड़ी की बनावट के लिए ज़िम्मेदार है, वो जंगली नस्ल में अलग तरह का है। मुझे फ़ौरन एहसास हुआ कि दोनों में ये फ़र्क़ इंसानों और कुत्तों की वजह से आया। दोनों के जीन बिल्कुल ही अलग थे। यानी घरेलू गौरैया के विकास का रास्ता बिल्कुल ही अलग था।'
मार्क ने इस बात की कई नज़रिये से पड़ताल की। फिर उन्होंने ये बात अपने साथियों से साझा की। घरेलू गौरैया के जो दो जीन अलग पाए गए, उनका ताल्लुक़ इंसानों और कुत्तों के ज़्यादा स्टार्च वाले खान-पान से था।
अनाज खाने वाली गौरैया
घरेलू गौरैया की मज़बूत खोपड़ी का मतलब ये था कि इस गौरैया ने खेती से पैदा होने वाले अनाज खाने शुरू किए। मार्क बताते हैं कि, 'हमें ये बात तो पता ही है कि जानवरों की खोपड़ी के आकार का वास्ता इंसानों से जुड़े खान-पान को ज़्यादा अपनाने से होता है। ज़्यादातर गौरैया जब बच्चों को पाल रही होती हैं, तो कीड़ों को खा कर गुज़ारा करती हैं। इसके अलावा पूरे साल, घरेलू गौरैया अनाज खा कर पेट भरती है। इनके मुक़ाबले जंगली नस्ल शायद जंगली बीजों और घास पर निर्भर होती है।'
गौरैया से जुड़ा ये रिसर्च तो बस शुरुआत है। अब गौरैया को लेकर बड़ा वैज्ञानिक प्रोजेक्ट शुरू होने वाला है। इसमें मार्क रविनेट और उनकी टीम अपने अब तक के तजुर्बों की बिनाह पर आगे बढ़ेगी। एक छात्र क़रीब 100 गौरैया की खोपड़ी का सीटी-स्कैन कर रहा है। वहीं मार्क रविनेट, गौरैया की तमाम प्रजातियों के जीन सीक्वेंस को तैयार कर रहे हैं।
पर, इस शुरुआती रिसर्च से एक बात तो हुई है। हम घर के बाहर अक्सर दिख जाने वाले इस जाने-पहचाने परिंदे को और ज़्यादा क़रीब से जानने लगे हैं। इसके विकास का इंसान के विकास से सीधा ताल्लुक़ जो रहा है।