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Written By BBC Hindi
Last Modified: गुरुवार, 16 दिसंबर 2021 (08:29 IST)

जब जनरल नियाज़ी ने जनरल अरोड़ा के सामने हथियार डाले

जब जनरल नियाज़ी ने जनरल अरोड़ा के सामने हथियार डाले - 1971 war Swarnim Vijay Diwas
रेहान फ़ज़ल, बीबीसी संवाददाता
 
15 दिसंबर, 1971 तक बांग्लादेश का लड़ाई अपने क्लाइमेक्स तक पहुंच चुकी थी। 15 और 16 दिसंबर की आधी रात तक 2 पैरा के जवान ढाका के दरवाज़े पर दस्तक दे रहे थे। 16 की सुबह तक रह रह कर दोनों तरफ़ से फ़ायरिंग और गोलाबारी हो रही थी। उसी समय जीओसी 101 इलाके के मेजर जनरल गंधर्व नागरा वहाँ पहुंच गए।
 
अपनी मौत से कुछ समय पहले उन्होंने मुझे बताया था, ''मैंने ढाका के बाहर मीरपुर ब्रिज पर अपनी जोंगा के बोनेट पर अपने स्टाफ़ ऑफ़िसर के नोटपैड पर पूर्वी पाकिस्तान के प्रमुख जनरल नियाज़ी के लिए एक नोट लिखा, 'प्रिय अब्दुल्ला, मैं यहाँ पर हूँ। खेल ख़त्म हो चुका है। मैं सलाह देता हूँ कि तुम अपनेआप को मेरे हवाले कर दो। मैं तुम्हारा ख़्याल रखूंगा।' मेरा ये संदेश ले कर मेरे एडीसी कैप्टेन हरतोश मेहता एक जीप में जनरल नियाज़ी के पास गए।''
 
पाकिस्तानियों ने भारतीय सैनिकों की जीप पर चलाई गोली
उस समय निर्भय शर्मा भी 2 पैरा में कैप्टेन के पद पर काम कर रहे थे। बाद में लेफ़्टिनेंट जनरल के पद से रिटायर हुए और मिज़ोरम और अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रहे निर्भय शर्मा याद करते हैं,
 
''मैं भी कैप्टेन हरतोश मेहता के साथ उस जीप में बैठ गया। जैसे ही हम आगे बढ़े आगे के इलाके के कंपनी कमाँडर मेजर जे एस सेठी और लेफ़्टिनेंट तेजिंदर सिंह भी उछल कर जीप पर सवार हो गए। हमें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि पुल के उस पार तैनात पाकिस्तानी सेना के जवानों को हथियार डालने के बारे में कोई निर्देश नहीं मिले थे।
 
जैसे ही हमने पुल पार किया उन्होंने हम पर गोली चला दी। हमने अपनी जीप रोकी और मैंने चिल्ला कर उनसे फ़ायरिंग रोकने के लिए कहा। फ़ायरिंग तो रुक गई लेकिन पाकिस्तानी सैनिकों ने हमारी जीप को घेर लिया। मैंने पाकिस्तानी जूनियर अफ़सर से कहा कि वो अपने सीनियर अफ़सर को बुलाए।
 
साथ ही मैंने उसे धमकाया कि अगर हमें कुछ भी नुक्सान पहुंचा तो इसका बहुत बुरा परिणाम होगा, क्योंकि भारतीय सेना ने ढाका को चारों तरफ़ से घेर लिया है और जनरल नियाज़ी हथियार डालने के लिए राज़ी हो गए हैं। हमारा सौभाग्य था कि तभी एक पाकिस्तानी कैप्टन वहाँ पहुंच गया। वो हमें मीरपुर गैरिसन के कमांडर के पास ले गया।''
 
जनरल जमशेद ने अपनी पिस्टल जनरल नागरा को सौंपी
लेफ़्टिनेंट जनरल निर्भय शर्मा आगे बताते हैं, ''उन्होंने जनरल नागरा का लिखा नोट हमसे ले लिया और हमें इंतज़ार करने के लिए कहा। क़रीब एक घंटे बाद ढाका गैरिसन के कमांडर मेजर जनरल मोहम्मद जमशेद वहाँ पहुंचे। वो हमारी जीप में मेजर सेठी और मेरे बीच बैठ गए।
 
हमारे पीछे जनरल जमशेद की अपनी जीप चल रही थी। जब हम अपने ठिकाने पर लौट रहे थे तो हम पर पाकिस्तानियों ने फिर फ़ायरिंग की। इस फ़ायरिंग में मेजर सेठी के बाएं पैर में मशीन गन का एक बर्स्ट लगा।
 
एक और गोली लेफ़्टिनेंट तेजिंदर सिंह के हेलमेट को पार कर डिफ़्लेक्ट हो उनके बाले को छूती हुई निकल गई। बहरहाल हम लोग किसी तरह वापस जनरल नागरा के पास पहुंचे। वहाँ जनरल जमशेद ने अपनी पिस्टल जनरल नागरा को दे दी।''
 
जनरल अरोड़ा ने अपनी पत्नी को ढाका ले जाने का फ़ैसला किया
जनरल नागरा ने उस क्षण को याद करते हुए मुझे बताया था, ''मैंने जनरल जमशेद की गाड़ी में बैठ कर उनका झंडा उतारा और 2 माउंटेन डिव का झंडा लगा दिया। जब मैं नियाज़ी के पास पहुंचा तो उन्होंने बहुत तपाक से मुझे रिसीव किया।'
 
उधर 16 दिसंबर की ही सुबह सवा नौ बजे जनरल जैकब को जनरल मानेकशॉ का संदेश मिला कि वो आत्मसमर्पण की तैयारी के लिए तुरंत ढाका पहुंचें।
 
जनरल जैकब अपनी आत्मकथा 'एन ओडिसी इन वॉर एंड पीस' में लिखते हैं, ''जब मैं जनरल अरोड़ा के पास गया तो वहाँ उनके दफ़्तर के सामने मैंने उनकी पत्नी भंती अरोड़ा को पाया। उन्होंने मुझे बताया कि वो भी ढाका जा रही हैं क्योंकि उनकी जगह उनके पति के साथ है। जब मैं जनरल अरोड़ा से मिला तो मैंने उनसे पूछा कि क्या आप अपनी पत्नी को अपने साथ ले जा रहे हैं। जब उन्होंने कहा हाँ तो मैंने कहा कि उन्हें वहाँ ले जाना जोख़िम भरा काम होगा। इसपर उन्होंने जवाब दिया कि उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी मेरी है।''
 
जनरल जैकब ने नियाज़ी को सोचने के लिए आधे घंटे का समय दिया
जब जनरल जैकब जनरल नियाज़ी के कमरे में घुसे तो उन्होंने वहाँ तमाम वरिष्ठ पाकिस्तानी सैन्य अफ़सरों को पाया। वहीं मेजर जनरल गंधर्व नागरा एक सोफ़े पर बैठे जनरल नियाज़ी को पंजाबी में चुटकुले सुना रहे थे।
 
उन्होंने जनरल नागरा को निर्देश दिया कि वो आत्मसमर्पण समारोह के लिए रेसकोर्स में एक मेज़ और दो कुर्सियों का इंतेज़ाम करें और इस बात की भी व्यवस्था करें कि भारत और पाकिस्तानी सैनिकों की संयुक्त टुकड़ी जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा को गार्ड ऑफ़ ऑनर दे जो कुछ ही देर में वहाँ पहुंचने वाले थे।
 
जनरल जैकब ने मुझे बताया था, ''जब मैंने नियाज़ी को आत्मसमर्पण का दस्तावेज़ पढ़ कर सुनाया तो उन्होंने कहा किसने कहा कि हम आत्मसमर्पण कर रहे हैं मेजर जनरल राव फ़र्मान अली को भारत और मुक्ति बाहिनी की संयुक्त कमान के सामने आत्मसमर्पण करने पर आपत्ति थी।
 
समय बीतता जा रहा था। इसलिए मैंने नियाज़ी को एक तरफ़ ले जा कर कहा, अगर आप हथियार नहीं डालते तो मैं आपके परिवारजनों की सुरक्षा की गारंटी नहीं ले सकता। लेकिन अगर आप हथियार डाल देते हैं तो मैं सुनिश्चित करूँगा कि उन्हें कोई नुक्सान नहीं पहुंचे।
 
फिर मैंने उनसे कहा मैं इस पर सोचने के लिए आपको 30 मिनट का समय देता हूँ। अगर आपने इस बारे में फैसला नहीं लिया तो मैं ढाका पर बमबारी का फिर से आदेश दे दूँगा।''
 
नियाज़ी की चुप्पी
जैकब ने मुझे आगे बताया, ''जब मैं बाहर निकला तो मैंने सोचा मैंने ये क्या कर दिया। उस समय नियाज़ी के पास ढाका के अंदर 26,400 सैनिक थे जबकि हमारे पास सिर्फ़ 3000 सैनिक थे और वो भी ढाका से 30 मील दूर।
 
बाद में हुमूदुरहमान कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, कमरे के बाहर जनरल जैकब अपना पाइप पीते हुए तेज़ी से चहलक़दमी कर रहे थे। जबकि असलियत ये थी कि मैं बहुत परेशान और तनाव में था। जब 30 मिनट बाद मैं कमरे में दाख़िल हुआ तो वहाँ गहरा सन्नाटा छाया हुआ था और मेरा आत्मसमर्पण का मसौदा मेज़ पर रखा हुआ था।
 
मैंने नियाज़ी से पूछा कि क्या आप इस मसौदे को स्वीकार करते हैं। इसका उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने तीन बार उनसे यही सवाल किया, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।
 
तब मैंने उस कागज़ को ऊपर लहराते हुए कहा कि अब मैं ये मान कर चल रहा हूँ कि आप इसे स्वीकार करते हैं। नियाज़ी की आँखों से आँसू बहने लगे।''
 
पाकिस्तानी सैनिकों को अपने हथियार रखने की इजाज़त
फिर जैकब ने नियाज़ी को अकेले में ले जा कर कहा कि आत्मसमर्पण समारोह रेसकोर्स में आम जनता के सामने होगा। इसका नियाज़ी ने कड़ा विरोध किया।
 
जैकब कहते हैं कि उन्होंने स्वयं ही पाकिस्तानी सैनिकों को आत्मरक्षा के लिए उनके हथियार रखने की इजाज़त दी थी, लेकिन जनरल नियाज़ी अपनी आत्मकथा 'द बिट्रेयल ऑफ़ पाकिस्तान' में लिखते हैं, ''मैंने जैकब के सामने शर्त रखी कि जबतक भारतीय सैनिक पाकिस्तानी सैनिकों की सुरक्षा करने की स्थिति में नहीं होते, सभी पाकिस्तानी सैनिकों को आत्मसुरक्षा के लिए उनके हथियार रखने की अनुमति दी जाए। जैकब इस शर्त को मानने के लिए राज़ी हो गए।''
 
पिस्टल सरेंडर करने का फ़ैसला
इस बात पर भी असमंजस था कि नियाज़ी समर्पण किस चीज़ का करेंगे। जनरल गंधर्व नागरा ने मुझे बताया था, ''जैकब मुझसे कहने लगे कि नियाज़ी को इस बात पर तैयार करो कि ये कुछ तो सरेंडर करे। मैंने नियाज़ी से कहा कि तुम एक तलवार सरेंडर करो। वो कहने लगे कि पाकिस्तानी सेना में तलवार रखने का रिवाज नहीं है। मैंने फिर उनसे पूछा कि तुम सरेंडर किस चीज़ का करोगे? तुम्हारे पास तो कुछ भी नहीं है। लगता है तुम्हारी पेटी या टोपी उतारनी पड़ेगी, जो ठीक नहीं लगेगा। फिर मैंने ही सलाह दी कि तुम एक पिस्टल लगाओ और पिस्टल उतार कर सरेंडर कर दो।'
 
इसके बाद सब लोग खाने के लिए मेस की तरफ़ बढ़े। ऑब्ज़र्वर अख़बार के संवाददाता गाविन यंग बाहर खड़े हुए थे। उन्होंने जैकब से अनुरोध किया कि क्या वो भी खाना खा सकते हैं ? जैकब ने उन्हें अंदर बुला लिया। वहां पर करीने से टेबल लगी हुई थी। काँटे, छुरी और पूरे तामझाम के साथ। जैकब का कुछ भी खाने का मन नहीं हुआ। वो कमरे के एक कोने में अपने एडीसी के साथ खड़े हो गए। बाद में गाविन ने अपने अख़बार के लिए दो पन्ने का एक लेख लिखा 'सरेंडर लंच।'
 
अरोड़ा को पाकिस्तानी और भारतीय सैनिकों द्वारा गार्ड ऑफ़ ऑनर
चार बजे नियाज़ी और जैकब जनरल अरोड़ा को लेने ढाका हवाईड्डे पहुंचे। अरोड़ा अपने दलबल के साथ पाँच एम आई 4 और चार अलूट हैलिकॉप्टर्स से ढाका हवाईअड्डे पर उतरे।
 
बाद में एयर चीफ़ मार्शल एस के कौल ने एक इंटरव्यू में कहा, ''जब हमने ढ़ाका में लैंड किया तो हमें रेसकोर्स मैदान ले जाने के लिए बहुत-सी कारें खड़ी थीं। रास्ते में बाँग्लादेशी लोग हमारी जय-जयकार कर रहे थे। सारा माहौल उसी तरह का दिख रहा था जब 26 साल पहले अमेरिकी सेनाओं ने पेरिस में प्रवेश किया था।''
 
रेसकोर्स मैदान पर पहले अरोड़ा ने गार्ड ऑफ़ ऑनर का निरीक्षण किया। बाद में लेफ़्टिनेंट जनरल हिम्मत सिंह (उस समय लेफ़्टिनेंट कर्नल) ने एक इंटरव्यू में कहा, ''पाकिस्तानी टुकड़ी का नेतृत्व जनरल नियाज़ी के एडीसी ने किया। पाकिस्तानी टुकड़ी अपनी बेहतरीन वर्दी में थी। उनकी तुलना में भारत के 2 पैरा और 4 गार्ड्स के जवान मैली कुचैली वर्दी में थके हुए से लग रहे थे।
 
दरअसल 4 गार्ड्स के जवानों ने भारतीय सीमा से ढाका तक का 100 किलोमीटर का रास्ता बिना नहाए धोए और कपड़े बदले तय किया था। पाकिस्तानी सैनिकों ने इस लड़ाई में अपने कपड़े गंदे करना गवारा नहीं किया था जबकि भारतीय सैनिकों ने लड़ाई के दौरान ये परवाह नहीं की थी कि वो दिख कैसे रहे हैं।''
 
आत्मसमर्पण समारोह सिर्फ़ 15 मिनट में समाप्त हुआ
अरोड़ा और नियाज़ी एक मेज़ के सामने बैठे और दोनों ने आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ों की पाँच प्रतियों पर हस्ताक्षर किए। नियाज़ी थोड़े परेशान हुए क्योंकि उनके पास कलम नहीं थी। जनरल अरोड़ा की बगल में खड़े एक भारतीय अफ़सर ने उन्हें अपना पेन दिया।
 
वाइस एडमिरल एन कृष्णन अपनी आत्मकथा 'अ सेलर्स स्टोरी' में लिखते हैं, ''नियाज़ी ने पहले दस्तख़त किए। उसके बाद अरोड़ा ने। पता नहीं क्या सोचकर नियाज़ी ने अपना पूरा नाम नहीं लिखा सिर्फ़ ए ए के निया ही लिखा। मैंने इस बारे में जनरल अरोड़ा को बताया।
 
उन्होंने फिर नियाज़ी से बात की। इसके बाद नियाज़ी ने फिर अपना पूरा नाम लिखा। नियाज़ी ने अपनी वर्दी पर लगे बिल्ले हटाए और अपनी ।38 रिवॉल्वर निकालकर अरोड़ा को सौंप दी।
 
उन्होंने अधीनता स्वीकार करने की मुद्रा में अपने माथे को जनरल अरोड़ा के माथे से लगाया। उस समय उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे।'' पूरा समारोह सिर्फ़ 15 मिनट में समाप्त हो गया।
 
नियाज़ी को एक पत्थर आकर लगा
बाद में जनरल नियाज़ी ने अपनी आत्मकथा 'द बिट्रेयल ऑफ़ ईस्ट पाकिस्तान' में लिखा, ''जैसे ही मैंने काँपते हाथों से आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ पर दस्तख़त किए सारा दुख मेरे दिल से उमड़ कर मेरी आँखों में आ गया। समारोह से पहले एक फ़्रेंच पत्रकार ने मुझसे पूछा, टाइगर आप कैसा महसूस कर रहे हैं ? मैंने जवाब दिया 'डिप्रेस्ड।' पास ही में खड़े जनरल अरोड़ा ने कहा, 'इनको बहुत कठिन परिस्थितियों में लगभग असंभव काम करने के लिए दिया गया था। इन हालात में कोई दूसरा जनरल इससे बेहतर नहीं कर सकता था।''
 
अँधेरा होता जा रहा था। वहाँ मौजूद लोगों के हुजूम ने नारे लगाने शुरू कर दिए थे। वहाँ मौजूद भारतीय अफ़सरों ने दौड़ कर नियाज़ी के चारों तरफ़ घेरा बना दिया और फिर उन्हें भारतीय सेना की एक जीप में बैठा कर सुरक्षित जगह पर ले जाया गया।
 
लेकिन जब नियाज़ी जीप में बैठ रहे थे तो भीड़ की तरफ़ से चलाया गया एक पत्थर उन्हें आ कर लगा। इस बीच जैकब की नज़र आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ पर पड़ी। उस पर लिखा था। इस पर भारतीय समय के अनुसार 4 बज कर 31 मिनट पर हस्ताक्षर किए जाएंगे।
 
जैकब ने अपनी घड़ी की तरफ़ देखा उस समय उसमें 4 बज कर 55 मिनट हुए थे। दो सप्ताह बाद उन्होंने आत्मसमर्पण के उस दस्तावेज़ पर कलकत्ता में दोबारा जनरल नियाज़ी और जनरल अरोड़ा से दस्तख़त करवाए।
 
इंदिरा गाँधी का संसद में भारत की जीत का एलान
ठीक उसी समय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी संसद भवन के अपने दफ़्तर में स्वीडिश टेलीविज़न को एक इंटरव्यू दे रही थीं। तभी उनकी मेज़ पर रखे लाल टेलिफ़ोन की घंटी बजी। रिसीवर पर उन्होंने सिर्फ़ चार शब्द कहे, 'यस।।यस और थैंक यू।'
 
दूसरे छोर पर जनरल मानेक शॉ उन्हें बाँगलादेश में पाकिस्तानी सेना के हथियार डालने की ख़बर दे रहे थे। इंदिरा गाँधी ने टेलीविज़न प्रोड्यूसर से माफ़ी माँगी और तेज़ क़दमों से चलती हुई लोकसभा की तरफ़ बढ़ीं।
 
अभूतपूर्व शोरशराबे के बीच उन्होंने एलान किया कि ढाका अब स्वतंत्र देश की स्वतंत्र राजधानी है। बाकी का उनका वक्तव्य तालियों की गड़गड़ाहट और नारेबाज़ी के बीच डूब कर रह गया।
 
इंदिरा गांधी को नज़दीक से जानने वाली पुपुल जयकर इंदिरा गांधी की जीवनी में लिखती हैं, ''मैं उस दिन संसद भवन में थी। अपने दफ़्तर के बाहर इंदिरा गाँधी साँसदों से घिरी हुई खड़ी थीं। जैसे ही उन्होंने मुझे देखा वो उन्हें छोड़ कर मेरे पास आ गईं। वो हमारी मात्र 30 सेकेंड की मुलाक़ात थी। उन्होंने मुझे गले लगाया और मैं देख सकती थी कि उनकी आँखों में आँसू थे। चलते-चलते उन्होंने मुझसे फुसफुसाकर कहा, 'क्या हमें कभी शांति नसीब होगी' ?''
 
नियाज़ी ने आत्मसमर्पण करने के फ़ैसले पर दी सफ़ाई
जनरल नियाज़ी की मौत से पहले मैंने लाहौर फ़ोन कर उनसे पूछा कि आपने भारतीय सेना के सामने हथियार डालने का फ़ैसला क्यों किया? नियाज़ी ने जवाब दिया, ''अल्ला ग़ारत करे याहिया और वेस्ट पाकिस्तान वालों को जिन्होंने जीती हुई बाज़ी हार दी।
 
ये शिकस्त मग़रिब में थी और लानत हम पर पड़ी। जब मैं लड़ रहा था तो मैंने 13 तारीख़ को हुक्म दिया आखिरी गोली, आख़िरी आदमी। ये हुक्म फ़ौज के लिए मौत का वारंट होता है।
 
इस तरह का हुक्म अफ़्रीका की लड़ाई के दौरान रॉमेल ने दिया था, लेकिन उनकी फ़ौज ने ये हुक्म नहीं माना था। लेकिन हमारी फ़ौज ने हुक्म माना था और वो कफ़न बाँध कर लड़ने के लिए तैयार थे।
 
मग़रबी पाकिस्तान वालों को लगा कि ये लड़ाई तो लंबी होगी। वो मशरक़ी पाकिस्तान वालों से छुटकारा पाना चाहते थे ताकि वो मग़रबी पाकिस्तान में हुकूमत कर सकें।
 
13 तारीख़ को उन्होंने मुझे हुक्म दिया स्टॉप फ़ाइटिंग। मेरे पास गवर्नर मलिक आया। उसने मुझसे कहा तुम क्यों बेवकूफ़ी कर रहे हो। हमें मग़रबी पाकिस्तान को बचाने के लिए मशरकी पाकिस्तान देना पड़ा।''
 
बाद में युद्धबंदी बन चुके जनरल नियाज़ी से पाकिस्तानी सेना के पीआरओ सिद्दीक सालिक ने भी पूछा कि ढाका में आपके सीमित साधनों के बावजूद क्या आप लड़ाई को कुछ और लंबा खींच सकते थे।
 
सालिक अपनी किताब 'विटनेस टू सरेंडर' में लिखते हैं, ''नियाज़ी का जवाब था, इससे और मौतें और बर्बादी होती। ढाका की सड़कों पर लाशें ही लाशें पड़ी होतीं।
 
लेकिन इसके बावजूद लड़ाई का नतीजा वही निकलता। मेरी निगाह में 90,000 लोगों को युद्धबंदी बनाना 90,000 महिलाओं और क़रीब 5 लाख लोगों को अनाथ बनाने से बेहतर विकल्प था।
 
लेकिन जब मैंने उनसे कहा कि अगर आप दूसरा विकल्प चुनते तो शायद पाकिस्तानी सेना का इतिहास दूसरे ढंग से लिखा जाता तो इसका जनरल नियाज़ी के पास कोई जवाब नहीं था।''
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