शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. »
  3. बीबीसी हिंदी
  4. »
  5. बीबीसी समाचार
Written By BBC Hindi

लाहौर केस के दस्तावेज भारत में

भगतसिंह
- शालिनी जोशी (देहरादून से)

BBC
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे विवादास्पद और चर्चित मुक़दमे 'लाहौर षड़यंत्र केस' के कोर्ट ट्रायल के दस्तावेज पहली बार भारत लाए गए हैं। इस मुकदमे के दस्तावेज की प्रति लाहौर हाईकोर्ट ने हरिद्वार स्थित गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय को सौंपी हैं।

करीब 2000 पन्ने के इस दुर्लभ दस्तावेज को विश्वविद्यालय के अतिविशिष्ट श्रद्धानंद संग्रहालय में रखा गया है।

उल्लेखनीय है कि आठ अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने विधानसभा में बम फेंकने के बाद खुद ही गिरफ्तारी दे दी थी। उनका मकसद था अदालत को मंच बनाकर अपने क्रांतिकारी विचारों का प्रसार करना।

बाद में जब ये पाया गया कि भगत सिंह ब्रिटिश पुलिस अधीक्षक जेपी साण्डर्स की हत्या में भी शामिल थे तो उन पर और उनके दो साथियों राजगुरु और सुखदेव पर देशद्रोह के साथ-साथ हत्या का भी मुकदमा चला जो लाहौर षड़यंत्र केस या भगत सिंह ट्रायल के नाम से इतिहास में विख्यात है।

अहम दस्तावेज : इन दस्तावेजों में यह शामिल है कि मुकदमों के दौरान भगत सिंह और उनके साथियों ने क्या कहा था। इसके अनुसार भगत सिंह ने असेंबली में बम फेंकने के बाद जो पर्चे फेंके थे उसमें लिखा था, 'किसी आदमी को मारा जा सकता है, लेकिन विचार को नहीं।'

भगत सिंह ने 'बड़े साम्राज्यों का पतन हो जाता है, लेकिन विचार हमेशा जीवित रहते हैं' और 'बहरे हो चुके लोगों को सुनाने के लिए ऊँची आवाज जरूरी है' जैसी बातें भी पर्चों में लिखी थीं।

इतिहासकार कहते हैं कि इसी घटना के बाद उन पर देशद्रोह का मुकदमा चला जिसने एकबारगी पूरे ब्रिटिश राज को थर्रा दिया था और देश भर में जन-आक्रोश उमड़ पड़ा था। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर स्वतंत्र कुमार इन दस्तावेजों को भारत लाए जाने को बड़ी उपलब्धि मानते हैं।

वे कहते हैं, 'हमारे लिए ये गर्व की बात है। विश्वविद्यालय की स्थापना गुजराँवला में ही हुई थी जो अब पाकिस्तान में है। मैं पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश के निमंत्रण पर लाहौर गया हुआ था। वहाँ उन्होंने वो कक्ष और रिकॉर्ड दिखाए जो इस मुकदमे से जुड़े हुए थे। मैंने इसकी एक प्रति के लिए अनुरोध किया और मुझे खुशी है कि पाकिस्तान हाईकोर्ट ने इसे स्वीकार कर लिया।'

वो कहते हैं, 'कई बार आदमी काम करता है और उसे अंजाम पता नहीं होता, लेकिन इन तीन युवकों का जज्बा देखकर लगता है कि उन्होंने अंजाम ही सबसे आगे रखा और फाँसी के लिए ही तैयारी की।'

पाँच मई 1930 को शुरू हुआ ये मुकदमा 11 सितंबर 1930 तक चला था।

इतिहासकार कहते हैं कि ये मुकदमा इसलिए भी अभूतपर्व था क्योंकि इसमें कानूनी न्याय तो दूर की बात न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत को भी तिलांजलि दे दी गई थी जिसके तहत हर अभियुक्त को अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाता है।

वे बताते हैं कि सरकार ने एक अध्यादेश निकालकर ऐसे अधिकार हासिल कर लिये जिसकी मदद से वो गवाही के सामान्य नियमों और अपील के अधिकार के बिना भगतसिंह और उनके साथियों पर मुकदमा चला सकती थी। तमाम विरोधी स्वरों और गाँधीजी के आग्रह के बावजूद 23 मार्च 1931 को तीनों को फाँसी पर लटका दिया गया।

इन दस्तावेजों में पुलिस अधिकारियों का पक्ष और जजों की टिप्पणियों के साथ अदालत की हर कार्यवाही का विस्तार से वर्णन है।

जजों का फैसला सहित पूरी कार्यवाही फारसी में लिखी गई है हालाँकि नाम अंग्रेजी में लिखे हुए हैं।

संग्रहालय के निदेशक डॉ. प्रभात कहते हैं, 'भगत सिंह की विचारधारा को लेकर कई धारणाएँ और मान्यताएँ है और उनके अध्ययन में ये दस्तावेज काफा उपयोगी होगा।'