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Last Updated : मंगलवार, 9 अगस्त 2022 (17:57 IST)

ओलंपिक में सबसे ज्यादा मेडल लाई पुरुष टीम, अब महिला स्टार हॉकी खिलाड़ी भी उभरने लगी है

आजादी से पहले अब तक उतार चढ़ाव भरा रहा सफर

ओलंपिक में सबसे ज्यादा मेडल लाई पुरुष टीम, अब महिला स्टार हॉकी खिलाड़ी भी उभरने लगी है - A topsy turvey path for the national sports Hockey ever since the Independence
भारतीय हॉकी की अगर बात करें तो सफर उतार चढ़ाव से भरा हुआ रहा है। आजादी से पहले ध्यानचंद का दौर, आजादी के बाद लगातार ओलंपिक में गोल्ड मेडल और फिर एक लंबा सूखा। बीच बीच में कुछ टूर्नामेंट में मन बहलाने को खिताब मिले। फिर अचानक 41 साल बाद एक मेडल आया। जानते हैं भारतीय हॉकी का कल आज और कल।

ध्यानचंद का दौर- आजादी से पहले ही जीते 3 गोल्ड मेडल

यूं तो हॉकी 1908 और 1920 ओलंपिक में भी खेली गई थी लेकिन 1928 में एम्सटरडम में हुए खेलों में इसे ओलंपिक खेल का दर्जा मिला और इन्ही खेलों से दुनिया ने भारतीय हॉकी का लोहा माना और ध्यानचंद के रूप में भारतीय हॉकी के सबसे दैदीप्यमान सितारे ने पहली बार अपनी चमक बिखेरी।

ओलंपिक में सबसे ज्यादा आठ स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम के सफर की शुरूआत एम्सटरडम से ही हुई। इससे पहले भारत में हॉकी के इतिहास के नाम पर कलकत्ता में बेटन कप और बांबे (मुंबई) में आगा खान कप खेला जाता था। भारतीय हॉकी महासंघ का 1925 में गठन हुआ और 1928 ओलंपिक में जयपाल सिंह मुंडा की कप्तानी में भारतीय टीम उतरी।

भारतीय टीम जब लंदन के रास्ते एम्सटरडम रवाना हो रही थी तो किसी को उसके पदक जीतने की उम्मीद नहीं थी और तीन लोग उसे विदाई देने आये थे। लेकिन स्वर्ण पदक के साथ लौटने पर बांबे पोर्ट पर हजारों की संख्या में लोग उसका स्वागत करने के लिये जमा थे। भारतीयों पर हॉकी का खुमार अब चढना शुरू हुआ था और इसके बाद लगातार छह ओलंपिक में स्वर्ण के साथ ओलंपिक में भारत के प्रदर्शन का सबसे सुनहरा अध्याय हॉकी ने लिखा।

दादा ध्यानचंद हॉकी के जादूगर थे और अपने काल में ऐसा नाम कमाया कि 'क्रिकेट के संत' माने जाने वाले डॉन ब्रैडमैन भी उनके कायल हो गए थे। हॉकी को उन्होंने भरपूर जीया और देश के लिए तीन ओलिम्पिक (1928 एम्सटर्डम), 1932 लॉस एंजिल्स और 1936 बर्लिन) खेलें और इन तीनों में वे ओलि‍‍म्पिक स्वर्ण विजेता टीम का हिस्सा बने। यदि दुनिया द्वितीय विश्वयुद्ध में नहीं झोंकी जाती तो दादा ध्यानचंद के गले में और स्वर्ण पदक लटकते रहते।

भारत में हॉकी की शुरुआत क्रिकेट से भी बेहतर रही। 1928 ओलंपिक में जयपाल सिंह मुंडा भारत के पहले कप्तान थे। इसके बाद सैयद लाल शाह बुखारी भारत के कप्तान थे। और मेजर ध्यानचंद 1936 के ओलंपिक में भारत के कप्तान थे जिन्हें हॉकी का जादूगर कह कर भी पुकारा गया।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को चलाने वालों को कुछ सद्‍बुद्धि आई और उन्होंने दादा ध्यानचंद को हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा खेल नायक मानकर हर साल 29 अगस्त को देश में 'खेल दिवस' के रूप में मनाने का फैसला किया।

आजादी के बाद कम सुविधा में भी बड़ी उपलब्धियां

1947 में भारत आजाद हुआ था और 1948 की भारतीय ओलिंपिक टीम के कप्तान महू (मप्र) के किशनलाल थे। किशनदादा ने पूरा जीवन हॉकी को समर्पित किया और उन्हें 'पद्मश्री' से सम्मानित किया गया था। आज हालत यह है कि किशनदादा की विधवा को अपना घर चलाने के लिए महू में ही स्वल्पाहार की दु‍कान पर बैठना पड़ रहा है लेकिन मप्र सरकार ने कभी जरूरी नहीं समझा कि उन्हें पेंशन दी जाए।

भारत ने 1948 के ओलिंपिक के फाइनल में ग्रेट ब्रिटेन की टीम को हराकर स्वर्ण पदक हासिल किया था। भारत ने ब्रिटेन को उसी की सरजमीं पर जाकर शिकस्त दी थी।

1948 लंदन ओलंपिक्स आजाद भारत का पहला ओलंपिक था जिसने दुनिया के खेल मानचित्र पर भारत को पहचान दिलाई। ब्रिटेन को 4-0 से हराकर भारतीय टीम लगातार चौथी बार ओलंपिक चैंपियन बनी और बलबीर सिंह सीनियर के रूप में हॉकी को एक नया नायक मिला।

1952 हेलसिंकी ओलंपिक में भारत नीदरलैंड को हराकर चैंपियन बना। इस ओलंपिक में बलबीर सिंह सीनियर ने भारत के 13 में से 9 गोल करे थे।

1956 मेलबर्न ओलंपिक्स के फाइनल में पाकिस्तान को एक गोल से हराकर भारत छठी बार स्वर्ण पदक जीता।1960 रोम ओलंपिक्स में पाकिस्तान भारत पर भारी पड़ा लेकिन टीम इंडिया रजत पदक जीतने में सफल रही।

भारत की टीम ने इसका बदला टोक्यो ओलंपिक्स 1964 में निकाला और पाकिस्तान को खिताबी मात दी।इसके बाद सिर्फ 1972 म्यूनिख ओलंपिक में भारत बमुश्किल कांस्य पदक जीत पाया।

1980 मॉस्को ओलंपिक में भारत स्पेन जैसी टीम को 4-3 से हराकर वापस स्वर्ण पदक जीता यह उसका ओलंपिक में आठवां स्वर्ण पदक था।

1980 के बाद ओलंपिक में खामोश रही हॉकी

इसके बाद से ही भारतीय हॉकी रसातल में जाती रही। इसकी दो वजह रहीं। पहली यह कि मैदान पर खेली जाने वाली परंपरागत हॉकी पीछे छूट गई और उसकी जगह नकली घास एस्ट्रोटर्फ ने ले ली। और दूसरी यह कि यूरोपीय देशों ने अपने मनमाने तरीके से हॉकी के नियम बना डाले। यानी मूल एशियाई तो पहले ही दम तोड़ चुकी थी। कलात्मक हॉकी ने 'हिट एंड रन' का ‍लिबास ओढ़ लिया था। नकली घास गरम नहीं हो उस पर पानी छिड़का जाने लगा और जिस देश के खिलाड़ी दमखम में माहिर थे, वे आगे निकलते चले गए।

करीब दो दशक पहले जब भारत में केवल 2 एस्ट्रोटर्फ थे, वहीं दूसरी तरफ हॉलैंड के स्टार खिलाड़ी बोवलैंडर के मुताबिक तब तक उनके देश में 350 ऐस्ट्रोटर्फ बिछ चुके थे। हॉलैंड में जहाँ बच्चे स्कूल में एस्ट्रोटर्फ पर खेलते थे, वहीं भारत में खिलाड़ी तब नकली घास के दर्शन करता था, जब वह 18-20 बरस का होता था।

एक तरफ खिलाड़ी सुविधाओं के लिए तरसते हैं तो दूसरी तरफ हॉकी महासंघ की राजनीति इस खेल को बर्बाद करने में रही-सही कसर पूरी कर देती थी। इस दौरान 15 साल के कार्यकाल में भारत के 16 कोच बदले गए। भारतीय टीम का कोच खुद नहीं जान पाया कि उसकी उम्र कितने बरस रहेगी।

90 के दशक में प्रगट सिंह, इसके बाद धनराज पिल्ले, दिलीप तिर्की बहुत से कप्तान आए।लगभग हॉकी देश में मृतप्राय हो गई थी। किसी भी फैन को इस खेल से उम्मीद नहीं थी।

2008 में ओलंपिक के लिए क्वालिफाय भी नहीं कर पाई हॉकी टीम

बीजिंग ओलिंपिक का टिकट हासिल करने के लिए भारत को यह क्वालिफाइंग फाइनल हर हाल में फतह करना था। तब सुदूर चिली के सेंटियागो शहर की चिलचिलाती गर्मी में भारतीय हॉकी सूरमा ग्रेट ब्रिटेन के सामने घुटने टेक चुके थे।

भारत में लोगों ने सुबह उठकर ठीक से आँखें भी नहीं मली थीं कि यह खबर आ गई कि हमारे देश की हॉकी को कालिख पुत चुकी है और भारतीय टीम बीजिंग पहुँचने से वंचित रह गई है। 80 बरस में यह पहला प्रसंग है, जब हमारी टीम को ओलिंपिक में भाग लेने के लिए पात्रता मुकाबले की जलालत झेलनी पड़ी और शर्मनाक हार ने सभी का सिर नीचा कर दिया। हॉकी को केन्द्रित करके जो 'चक दे इंडिया' फिल्म बनाई थी, उस गीत के बोल हमारा मुँह चिढ़ा रहे थे।

41 साल बाद आया ओलंपिक मेडल और पुनर्जीवित हुई हॉकी

भारतीय हॉकी के लिये वर्ष 2021 यादगार रहा तथा टोक्यो ओलंपिक खेलों में पुरुष और महिला हॉकी टीमों ने प्रेरणादायक प्रदर्शन कर इतिहास रचा जिसे युगों तक याद रखा जाएगा। पुरुष टीम ने ऐतिहासिक कांस्य पदक जीतकर पदक के चार दशकों के सूखे को खत्म किया तो वही महिला टीम ने चौथा स्थान हासिल कर इस खेल में नयी जान फूंक दी।

कोरोना वायरस महामारी से उपजे हालात की बाधाओं और चुनौतियों को धता बताते हुए, भारतीय पुरुष टीम खेल में पदक के 41 साल के लंबे इंतजार को समाप्त करके अपने गौरवशाली अतीत को फिर से याद किया और एक नयी सुबह की शुरुआत की। कांस्य पदक के मैच में भारतीय टीम ने पिछड़ने के बाद शानदार वापसी करते हुए जर्मनी को 5-4 से शिकस्त दी।

महिला टीम मामूली अंतर से ऐतिहासिक कांस्य पदक से चूक गई, लेकिन इन वैश्विक खेलों में उसने अब तक का अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर प्रशंसकों को भावनात्मक रूप से टीम के साथ जोड़ा।

भविष्य कैसा?

हालांकि जैसी हॉकी भारत में चली है यहां से हॉकी को वापस अपना रास्ता भटकते हुए देर नहीं लगेगी। टोक्यो ओलंपिक के बाद पुरुष और महिला टीम की कोई खास उपलब्धि नहीं रही है।पुरुष टीम एशिया कप जैसा टूर्नामेंट जीतने में विफल रही है और महिला टीम विश्वकप में 9वें स्थान पर रही।

इसका एक बड़ा कारण कुछ बड़े खिलाड़ियों जैसे रुपिंद्र पाल सिंह का संन्यास और स्ट्राइकर और कप्तान रानी रामपाल की गैरमौजूदगी हो सकता है। आने वाले राष्ट्रमंडल खेल दोनों ही टीमों की दशा और दिशा तय करेंगे।