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अख्तर नज़मी की ग़ज़लें
1.
सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है ये ज़मी दूर तक हमारी है मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँजिससे यारी है उससे यारी है हम जिसे जी रहे हैं वो लम्हाहर गुज़िश्ता सदी पे भारी हैमैं तो अब उससे दूर हूँ शायद जिस इमारत पे संगबारी है नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंनेअब समन्दर की ज़िम्मेदारी है फ़लसफ़ा है हयात का मुश्किल वैसे मज़मून इख्तियारी है रेत के घर तो बेह गए नज़मी बारिशों का खुलूस जारी है 2.
कब लोगों ने अल्फ़ाज़ के पत्थर नहीं फेंके वो खत भी मगर मैंने जला कर नहीं फेंके ठहरे हुए पानी ने इशारा तो किया थाकुछ सोच के खुद मैंने ही पत्थर नहीं फेंके इक तंज़ है कलियों का तबस्सुम भी मगर क्यों मैंने तो कभी फूल मसल कर नहीं फेंकेवैसे तो इरादा नहीं तोबा शिकनी कालेकिन अभी टूटे हुए साग़र नहीं फेंके क्या बात है उसने मेरी तस्वीर के टुकड़ेघर में ही छुपा रक्खे हैं बाहर नहीं फेंकेदरवाज़ों के शीशे न बदलवाइए नज़मीलोगों ने अभी हाथ से पत्थर नहीं