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Written By WD

बुझते नहीं कुछ चिराग़ हवाओं के ज़ोर से...

शायर-अली सरदार जाफ़री की 14वीं पुण्यतिथि पर विशेष

बुझते नहीं कुछ चिराग़ हवाओं के ज़ोर से... - ali sardar jafari
- दिनेश 'दर्द'

'बहुत इंतिहाई आकर्षक आँखें, बिल्कुल हीरे की तरह चमकती हुईं। लंबे-लंबे बाल, जिन्हें वो निहायत ही दिलचस्प अंदाज़ से बार-बार पीछे की तरफ कर लेते और साथ ही एक बहुत दिलकश ज़हीन मुस्कुराहट के मालिक।' किसी शख़्स की तारीफ़ में कभी ये तमाम दिलफ़रेब बातें कही थीं, शौकत आपा ने। शौकत आपा, यानी शौकत आज़मी ने। आज़मी परिवार के बेहद क़रीबी ये शख़्स थे, जनाब अली सरदार जाफ़री। शौकत के अलावा और भी तमाम लोगों ने सरदार जाफ़री को लेकर जो तज़्किरा किया है, उसे सुनकर यक़ीन कर पाना सचमुच बड़ा मुश्किल है, कि क्या किसी एक शख़्स में इतनी सलाहियतें भी हो सकती हैं। तमाम सलाहियतों के मालिक, इस शख़्स ने ग़ुलाम मुल्क में आँखें खोलीं। पैदाइश हुई, उत्तरप्रदेश के गोंडा ज़िले के बलरामपुर में। एक ज़मींदार घराने में 29 नवंबर 1913 को पैदा हुए इस चश्मोचराग़ ने घर के ख़ालिस मज़हबी माहौल में साँस लीं। इसी माहौल के चलते घर में 'अनीस' के मर्सियों (शोक गीत) का दौर दौरा रहता था। 'अनीस' के मर्सियों का घर में वही मक़ाम था, जो हिन्दू परिवारों में गीता और रामायण का होता है। कान में पड़ने वाले इन्हीं मर्सियों ने ज़रा-सी उम्र में ही सरदार जाफ़री के ज़ेहन-ओ-दिल पर ऐसा असर डाला कि गाहे ब गाहे वो ख़ुद भी मर्सिए कहने लगे, जो सिलसिला 1933 तक जारी भी रहा।

 
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पढ़ते-पढ़ते यूँ मिल गईं शरीके हयात : इधर शुरुआती कुछ बरस बलरामपुर में ही बिताकर उन्होंने वहीं से स्कूली तालीम ली और फिर आगे की पढ़ाई के लिए 1933 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का रुख़ किया। जहाँ ख़ासतौर से अख़्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, जज़्बी, मजाज़, जाँनिसार अख़्तर, ख़्वाजा अहमद अब्बास की सुहबत मिली| यहीं पर कम्युनिस्ट विचारधारा से मुतअस्सिर हुए और इसी के चलते 1936 में यूनिवर्सिटी से बेदख़ल भी कर दिए गए। बाद इसके उन्होंने 1938 में दिल्ली यूनिवर्सिटी के जाकिर हुसैन कॉलेज में दाख़िला लिया और ग्रेजुएट हुए। अब इंग्लिश लिटरेचर की वसीअ तालीम के लिए लखनऊ यूनिवर्सिटी की सीढ़ियाँ चढ़ीं। यहीं 1939 में उनकी मुलाक़ात राजनीति विज्ञान से एमए कर रहीं सुल्ताना से हुई, जो बाद में उनकी शरीके हयात भी हुईं।

लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा
और सारा ज़माना देखेगा
हर क़िस्सा मेरा अफ़साना है
हर आशिक़ है सरदार यहाँ
हर माशूक़ा सुल्ताना है... ('मेरा सफ़र' नज़्म से...)

कवि के दिल का लहू होता है कविता में : बहरहाल, सरदार जाफ़री पर जोश मलीहाबादी, जिगर मुरादाबादी और फ़िराक़ गोरखपुरी का ख़ासा असर था। लिहाज़ा, उन्हीं के असर में रहते हुए पढ़ाई के दौरान उन्होंने जंग के खिलाफ़ ग़ज़लें लिख डालीं। साथ ही इंडियन नेशनल कांग्रेस की सियासी सरगर्मियों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे। नतीजा ये हुआ कि एमए फाइनल की परीक्षा में बैठने की इजाज़त नहीं मिल सकी और गिरफ़्तार करके जेल भेज दिए गए, सो अलग। जेल से निकलने के बाद भी बलरामपुर में नज़रबंदी की ज़िंदगी गुजारनी पड़ी। 1940 में लखनऊ की पहली गिरफ़्तारी के बाद भी जाफ़री साहब को प्रगतिशील आंदोलन में भाग लेने पर दो बार बम्बई में गिरफ़्तार किया गया। उन्होंने मुसम्मम तौर पर कहीं टिककर नौकरी नहीं की। हर परीशाँ हाल के हमदर्द थे और कलम के सिपाही भी, इसलिए ज़िंदगी भर मोर्चे पर रहकर अदब की ख़िदमत अंजाम देते रहे। उनका मानना था कि अदब का मक़्सद समाज के हितों से जुड़ा होना चाहिए। इसीलिए उन्होंने हमेशा तरक्कीपसंद शायरी का दामन थामे रक्खा। एक टीवी इंटरव्यू में उन्होंने यह तस्लीम किया था कि शायरी करने वाला कोई भी शख़्स मिर्ज़ा ग़ालिब से प्रेरणा लिए बग़ैर रह ही नहीं सकता। उनका मानना था कि हर अच्छी कविता में कवि के दिल का लहू घुल-मिल जाता है।

टैगोर से मुलाक़ाम ने बड़ा काम किया : ज़िंदगी में पेश आ रही तमाम जद्दोजहद के बावजूद उनकी कलम ज़ुल्मो सितम के ख़िलाफ़ लगातार आग उगलती रही। कई दहाइयों तक जारी रहे उनके अदबी सफ़र की रसाई अपने देश के साथ-साथ कई दूसरे मुल्कों तक भी थी। उन्होंने कलम सम्हाली, तो सबसे पहले काग़ज़ों पर अफ़्साने उतारे और 1938 में अफ़्सानानिगारी की एक किताब शाए हुई। उनकी इस पहली किताब का उनवान था, 'मंज़िल'। इसी बरस दिसंबर में रवीन्द्रनाथ टैगोर से शांति निकेतन में हुई मुलाक़ात ने भी बड़ा काम किया। टैगोर से मिले आशीर्वाद ने मजबूर-ओ-मज़्लूम के हक़ में सरदार जाफ़री की कलम को नए तेवर दे दिए। 1936 में प्रोग्रेसिव रायटर्स मूवमेंट की पहली सभा के प्रेसिडेंट बनाए गए थे और बाकी की जिंदगी भी बने रहे| 1939 में इस मूवमेंट को समर्पित अदबी रिसाले 'नया अदब' के सह-संपादक भी बनाए गए, जो 1949 तक छपता रहा। इस दरमियान 1944 में उनकी ग़ज़लों का पहला मज्मूआ 'परवाज़' के नाम से आ चुका था।

...जब इस्मत ने दी आईस्क्रीम पार्टी : 30 जनवरी 1948 को सरदार और सुल्ताना अपनी शादी का रजिस्ट्रेशन करवाने लोकल बस से रजिस्ट्रार ऑफिस पहुँचे। दूल्हा बने सरदार की जेब में उस वक़्त महज़ 3 रुपए थे। कृशन चंदर, केए अब्बास और इस्मत चुगताई की गवाही में इस कानूनी शादी का क़रार हुआ। इसके बाद बतौर शादी की पार्टी इस्मत उन्हें आईसक्रीम खिलाने बाहर ले गईं। शादी के बाद ये जोड़ा अंधेरी कम्यून में रहने चला गया, जहाँ कैफ़ी और शौकत आज़मी पहले से रहते थे। शादी के क़रीब साल भर बाद, 20 जनवरी 1949 को प्रोग्रेसिव उर्दू रायटर्स की सभा मुन्अक़िद करने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। इस बाबत मुंबई के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने भी उन्हें कई बार आगाह किया था। और आख़िर इन चेतावनियों के 3 महीने बाद उन्हें गिरफ्तार कर ही लिया गया।

सीने में रहेगा मज्लूमों का दर्द : अली सरदार जाफ़री मुसलसल सिगरेट पीने के आदी थे। एक बुझती नहीं, कि दूसरी पैकेट होठों पर आने को आमादा रहती। इस शौक ने उन्हें एंजाइना का शिकार बना दिया। जिस दिल में मजबूर, बेबस, लाचारों की तकलीफ़ों का दर्द रहता था, उस सीने में एंजाइना का दर्द रहने लगा। और शायद ये बात उन्हें हरगिज़ गवारा नहीं थी, इसीलिए 1968 में उन्होंने यह ऐब पूरी तरह छोड़ दिया। मगर शराब का अब भी होठों से हलक तक का सफ़र जारी था। सरदार जाफ़री थे बहुत आशावादी। उनके ज़ेहन में रूमी की एक कविता की यह पंक्ति हमेशा ज़िंदा रहती थी, जिसमें रूमी ने कहा था कि 'हमचू सब्ज़ा बारहा रोईदा-ईम'। इसके मआनी होते हैं, 'हम दूब घास (हरियाली) की तरह हर बार उगे हैं।' अपनी ज़िंदगी के इन्हीं तज्रुबात को उन्होंने अपनी कविता 'मेरा सफ़र' में बयाँ भी किया है।

'ऐ वतन, ख़ाक़े वतन, वो भी तुझे दे देंगे,
बच गया है जो लहू, अबके फ़सादात के बाद।'

कृशन चंदर ज़ियादा क़रीब थे उनके : सरदार साहब के वैसे तो कई दोस्त थे, लेकिन वो कृशन चंदर के ज़ियादा क़रीब थे। इन दोनों के बीच बेहतरीन तालमेल था। उनकी मंडली में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, आईके गुजराल, राजिंदर सिंह बेदी, मुल्कराज आनंद, कैफ़ी आज़मी, दिलीप कुमार, रामानंद सागर, जाँ निसार अख़्तर, साहिर लुधियानवी, केए अब्बास, इस्मत चुगताई, क़ुर्तुल ऐन हैदर आदि शामिल थे। सरदार जाफरी संवेदनशील कवि, नाटककार, कहानीकार, फिल्म निर्माता, क्रांतिकारी, चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ बेहतरीन आलोचक और अनुवादक की हैसियत से भी जाने जाते थे। उन्होंने साहित्यिक इतिहास और आलोचना संबंधी कई किताबें लिखीं। इप्‍टा के लिए आपने दो नाटक लिखने के अलावा एक डॉक्यूमेंट्री फिल्‍म 'कबीर, इकबाल और आजादी' बनाई। उनकी रचनाओं में कई काव्य-विधाएं जैसे मसनवी, ग़ज़ल, नज़्म, कविताएं आदि शामिल हैं। 'पैकर' उनवान से नाटक भी लिखा। 'लखनऊ की पांच रातें' नाम से एक 'यात्रा वृतांत' की किताब भी मंज़र-ए-आम पर आ चुकी है।

अपनी आपा का नहीं उठा सके जनाज़ा : एक आम आदमी की तरह उन्होंने भी ज़िंदगी भर तमाम नशेबो-फ़राज़ देखे। उनका बचपन अपनी आपा की सरपस्ती में गुज़रा, इसलिए उनसे ख़ास निस्बत रही। मगर क़ैद में होने की वजह से वो अपनी आपा के इंतिक़ाल पर उनके जनाज़े में शामिल नहीं हो सके, जो बात उन्हें हमेशा परीशाँ करती रही। 1949 में नासिक जेल से पत्नी सुल्ताना के नाम लिखे ख़त भी एक सरमाया हैं। इन ख़तों में मुहब्बत, जज़्बात, तन्हाई और उम्मीद के कई अलग-अलग रंग देखने को मिलते हैं, जो नज़रों से तो शायद नज़र न आएँ, लेकिन दिल पर ये रंग महसूस ज़रूर किए जा सकते हैं।

कई भाषाओं में अनुदित हुईं कविताएँ : जाफ़री साहब की कविताएं रूसी, उज्बेकी, फारसी, अंग्रेजी, फ्रेंच, अरबी सहित कई भारतीय भाषाओं में अनुदित हो चुकी है। उर्दू और अंग्रेजी में साहित्य समाज और राजनीति संबंधी विषयों पर भी उन्होंने बड़ी तादाद में टिप्पणियां, आलेख और स्तंभ लिखे हैं। लाल किला, साबरमती आश्रम और तीन मूर्ति निवास पर आधारित दृश्य और श्रव्य कार्यक्रम के लिए उनकी लिखी पटकथा काबिले तारीफ़ रही है। उन्होंने अमरीका, कनाड़ा, रूस, फ्रांस, तुर्की आदि देशों का भ्रमण किया तथा इस दौरान वहाँ के क्रांतिकारी कवियों से भी मुलाक़ात की। इन कवियों में तुर्की के नाज़िम हिकमत, फ्रांस के लुई अरागाँ, एल्या एहरान, रूस के शालोखोव ख़ास हैं। पाब्लो नेरुदा से उनकी मुलाक़ात नेरुदा के 1951 में भारत आने पर हुई थी।

अटलजी ने शरीफ को दिया था तोहफा : आपने दो मशहूर टी.वी. प्रोग्राम, 'कहकशां' और 'महफिल-ए-यारां' बनाए। 18 एपिसोड में बने कहकशां में 20वीं सदी के सात मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, फ़िराक़ गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, मजाज़, हसरत मोहानी, मख़्दूम मोहिउद्दीन और जिगर मुरादाबादी के जीवन पर बहुत अच्छे और विश्लेषणात्मक रूप से प्रकाश डाला था। दोनों सीरियल काफ़ी पसंद किए गए। वहीं 'महफ़िल-ए-यारां' में अलग-अलग हस्तियों से लिए इंटरव्यू भी सराहनीय रहे। उन्होंने कुछ फिल्मों के संवाद और पटकथा सहित कुछ वृत्तचित्रों की स्क्रिप्ट भी लिखी। जिस दौरे पर आप तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ पकिस्तान गए थे, तब सरहद पर एक ऑडियो एल्बम भी बनाया गया। एल्बम का निर्माण स्क्वाड्रन लीडर अनिल सहगल ने किया था और आवाज़ दी थी बुलबुल-ए-कश्मीर 'सीमा सहगल' ने। सरहद ऑडियो द्वारा रिकॉर्ड किया गया यह एल्बम तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को 20-21 फ़रवरी 1999 को लाहौर सम्मेलन में भेंट किया था।

कुछ ख़ास अदबी मज्मूए : उर्दू शायरी को एक नए फ़िक्रोफ़न के साथ पेश करने वाले जाफरी साहब ने कई किताबें लिक्खीं। इनमें 1944 में आई 'परवाज़' के अलावा 'जम्हूर' (1946), 'नई दुनिया को सलाम' (1947), 'ख़ून की लकीर' (1949), 'अम्न का सितारा' (1950), 'एशिया जाग उठा' (1950), 'पत्थर की दीवार' (1953), 'एक ख़्वाब और' (1965) 'पैराहने शरर' (1966), 'लहु पुकारता है' (1978), 'मेरा सफ़र' (1999) हैं। इसके अलावा 'अवध की ख़ाक-ए-हसीन', 'सुब्हे फर्दा' और आख़िरी कृति 'सरहद' (1999) रही।

दुनियाभर ने माना उनके अदब का सोना : अदब की ख़िदमत के लिए देश-विदेश में उनकी सेवाओं को सराहा और सम्मानित किया गया। इनमें 1965 में सोवियत लैंड नेहरु अवार्ड, 1967 में पद्मश्री, 1978 में पाकिस्तान सरकार द्वारा इक़बाल गोल्ड मैडल सम्मान, 1979 में उत्तरप्रदेश उर्दू अकादमी अवार्ड, 1983 में 'एशिया जाग उठा' के लिए कुमारन आसन अवार्ड, 1986 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी द्वारा डी.लिट्, इसी वर्ष अंतर्राष्ट्रीय उर्दू अवार्ड और इक़बाल सम्मान मिला। 1992 में संभलपुर विश्वविद्यालय ओड़िशा द्वारा गंगाधर मेह्र अवार्ड, 1995 में महाराष्ट्र राज्य उर्दू अकादमी द्वारा ज़ोई अंसारी अवार्ड, 1997 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा संत ध्यानेश्वर अवार्ड, 1997 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा मौलाना मज़हरी अवार्ड, 1997 में ज्ञानपीठ अवार्ड, 1999 में हॉवर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका द्वारा अंतर्राष्ट्रीय शांति पुरस्कार आदि सम्मानों से सम्मानित किया गया।

...और आँसू पोछने वाला आँसू दे गया : यूँ तो दुनिया में सब जाने के लिए ही आते हैं। अज़ल से ये सिलसिला आज तक जारी है और ताअबद रहेगा। हर जाने वाले का ग़म, वक़्त की धुंध में घुल-घुलकर रफ़्ता-रफ़्ता कम होता जाता है। मगर कुछ लोगों का जाना कभी न भर पाने वाला ज़ख़्म दे जाता है। उन्हीं कुछ मख़्सूस लोगों की फेहरिस्त में 14 बरस पहले, 86 की उम्र में, 1 अगस्त, 2000 को ये पाएदार अदीब भी शामिल हो गया था। जिसने ज़िंदगी भर कमज़ोर और मज़्लूमों के आँसू पोंछे, वो ख़ुद जाते-जाते उन्हें आँसू दे गया। वहीं वो बच्चे ख़ुशनसीब रहे, जिनके लबों पर उन्होंने मुस्कान की तितलियाँ उतारीं। मगर अफ़सोस, कि अब ये होंठ इन तितलियों की बैठक के लिए तरसेंगे। हालांकि, बहुत मुमकिन है कि बच्चे अब भी हँसें-मुस्कुराएं, लेकिन अब इन मुस्कुराहटों की वजह अली सरदार जाफ़री नहीं हो सकेंगे। इस कढ़वे सच को बर्दाश्त करने के बावजूद, दिल को जैसे अभी भी कोई उम्मीद है। दिल में अब भी एक आस गूँज रही है कि- बुझते नहीं कुछ चिराग़ हवाओं के ज़ोर से...

फिर इक दिन ऐसा आएगा
आँखों के दिए बुझ जाएंगे
यादों के हसीं बुतखाने से
हर चीज़ उठा दी जाएगी
फिर कोई नहीं पूछेगा
सरदार कहाँ है महफ़िल में
लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा।

उनकी रुख़्सती के एक साल बाद स्क्वाड्रन लीडर अनिल सहगल ने श्रद्धांजलि स्वरूप एक पुस्तक प्रकाशित करवाई थी, जिसका नाम था 'अली सरदार जाफरी : द यूथफुल बोटमैन ऑफ जॉए'।

 

शबाना आज़मी को यूँ याद आते हैं 'दोदा'... अगले पन्ने पर...


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'दोदा' कहती थी मैं उन्हें : तरक्कीपसंद शायर कैफ़ी आज़मी की बेटी, अभिनेत्री और सामाजिक कार्यकर्ता शबाना आज़मी ने अली सरदार जाफ़री को लेकर खुलकर बात की। जज़्बात में डूबी शबाना ने अपने 'दोदा' के बारे में कई दिलचस्प बातें साझा कीं। उन्होंने बताया कि सरदार साहब के बड़े बेटे 'नाज़िम' उन्हें 'डैडी' कहने की कोशिश में 'दोदा' कहते थे। लिहाज़ा, फिर हम (मैं और भाई बाबा आज़मी) भी उन्हें इसी संबोधन से बुलाने लगे, जबकि उनकी पत्नी सुल्ताना जी को हम अम्मा कहते थे। एक तरह से वो दोनों पति-पत्नी 'जगत दोदा' और 'जगत अम्मा' ही थे। 9 साल की उम्र तक उनका साथ रहा। बच्चों से 'दोदा' बहुत मुहब्बत किया करते थे। बच्चों से मिलकर बेइंतहा ख़ुश होते और फिर गोद में उठा लेते और बच्चे जब उनकी दायीं भवों के ऊपर उभरा मस्सा दबाते, तो ज़ोर से हँस पड़ते।

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दूसरों के दु:ख में तड़प उठते थे : उन्होंने बताया कि मुझसे 'दोदा' का ख़ास रिश्ता रहा है। यहाँ तक कि मेरा नाम 'शबाना' भी 'दोदा' का ही दिया है। बिल्कुल फैमिली मेंबर ही थे हमारे। समझ लीजिए कि अब्बा के बड़े भाई थे वो। बिल्कुल एक गार्जियन की तरह। ज़माने भर का दर्द लिए 'दोदा' की एक बात जो उन्हें सबसे मुम्ताज़ करती है, वो है औरों के दु:ख में न केवल दु:खी हो जाना, बल्कि तड़प उठना। इसी तड़प के चलते वो परेशान हाल शख़्स की इम्दाद के लिए फौरन बेचैन हो उठते थे और ये तड़प, मदद मुहैया कराने के बाद ही जाती थी।

अब्बा के लिए बुलाए तमाम डॉक्टर्स : 9 फरवरी 1973 की एक रात अब्बा को दौरा पड़ा। उस वक़्त 'दोदा' ने जो मदद की, वो कोई अपना ही कर सकता है। उनको ख़बर लगते ही उन्होंने स्वास्थ्य मंत्री और तमाम स्पेशलिस्ट डॉक्टरों से बात करके अब्बा को ब्रीच कैंडी अस्पताल में दाख़िल करवाया। 'दोदा' बड़े नेकदिल इंसान थे। उनके साथ उनकी दो बिन ब्याही बहनें 'सितारा' और 'रबाब बानो जाफ़री' भी रहती थीं। 'दोदा' उनका भी ख़ूब ख़याल रखते थे।

दुनियावी चीज़ें पसंद नहीं थी 'दोदा' को : 'दोदा' और अम्मा को दुनियावी (मटीरियलिस्टिक) चीज़ें पसंद नहीं थीं। पैसे रहते हुए भी उन्होंने कभी ज़ियादा दुनियावी चीज़ें नहीं ख़रीदीं। हम कमरा हमारे कमरे से ज़रा बड़ा था। ड्रॉइंग रूम ही लाइब्रेरी थी, वहाँ बहुत सारी किताबें हुआ करती थीं। वहीं सोफे भी लगे थे। हम उन्हीं सोफों पर ख़ूब मस्ती किया करते थे। उन्होंने 1967 में दोस्तों की मदद से 52000 रुपए में एक छोटा-सा फ्लैट ज़रूर लिया था। सारी उम्र छोटे से फ्लैट में रहे। गाड़ी तो उन्होंने ज़िंदगी भर नहीं ख़रीदी।

'मैं निपट लूँगी' : एक बार जब मैं 13 साल की थी, तब लोकल ट्रेन से स्कूल जाया करती थी। इसी दौरान ग्रांट रोड स्टेशन पर किसी बात को लेकर मेरा कुछ लड़कों से झगड़ा हो गया। इत्तिफ़ाक़न वहाँ से गुज़रते वक़्त 'दोदा' की नज़र मुझ पर पड़ गई। वो क़रीब आए और उन्होंने पूछा, 'क्या हुआ ?' मैंने सिर्फ़ तीन लफ़्ज़ों में जवाब दिया, 'मैं निपट लूँगी'। यह सुनते ही 'दोदा' लौट गए, जैसे उन्हें मुझ पर पूरा विश्वास था। मेरा यही तीन लफ़्ज़ का जवाब उन्होंने बाद में एक सम्मान समारोह के दौरान सार्वजनिक रूप से बयाँ किया। उस वक़्त मेरा सिर फ़ख़्र से ऊँचा हो गया।

गरीब सीता के घर पे कब तक रहेगी रावण की हुक्मरानी,
द्रौपदी का लिबास उसके बदन से कब तक छिना रहेगा
शकुंतला कब तक अंधी तक़दीर के भँवर में फँसी रहेगी,
यह लखनऊ की शिगुफ्तगी मक़बरों में कब तक दबी रहेगी?

काश 'मॉन्ट ब्लांक' पेन होता मेरे पास : वैसे तो 'दोदा' कभी कोई ख़्वाहिश नहीं करते थे लेकिन एक बार उन्होंने इच्छा ज़ाहिर की कि काश मेरे पास 'मॉन्ट ब्लांक' पेन हो। यह बात जब अदाकार फारुख शेख तक पहुँची, तो उन्होंने 'दोदा' को एक 'मॉन्ट ब्लांक' पेन तोहफे में दे दिया। 'दोदा' मनचाहा पेन पाकर बहुत ख़ुश थे। और फिर जब यही बात इस पेन कंपनी तक पहुँची, तो कंपनी की ओर से कुछ नुमाइंदे एक ख़ूबसूरत 'मॉन्ट ब्लांक' पेन लेकर 'दोदा' के सामने हाज़िर हो गए। इतना ही नहीं कंपनी वालों ने कहा कि 'हमारी ख़ुशनसीबी है, जो आपने इस पेन की आरर्ज़ू की और हम उसे पूरा कर सके।

गोश्त का सालन और कबाब : एक मर्तबा बीमारी की हालत में डॉक्टरों ने 'दोदा' को खाने में कुछ परहेज़ बताए। इसके तहत उन्हें सिर्फ़ अरहर की दाल और लौकी खाना थी। हालाँकि अरहर उन्हें पसंद थी लेकिन लौकी नहीं। वो ये खाना खा-खा कर उक्ता गए। मैंने उनकी हालत देखी और 'दोदा' से पूछ बैठी, 'क्या खाओगे 'दोदा' ?' मेरा इतना पूछना था कि, बेसाख़्ता ही उनके मुँह से निकल पड़ा, 'गोश्त का सालन और कबाब'।

हर मजबूर-बेबस से सरोकार था उनका : 'दोदा' एक इंटलेक्चुअल पर्सनेलिटी थे। मेरा उनसे बहुत क़रीबी रिश्ता रहा है। वो एक बड़े अदीब थे। मेरे बस की बात नहीं कि उनकी शायरी पर कोई तफ़्सीर या तब्सिरा करूँ। हाँ, इतना ज़रूर कहूँगी कि उनकी शायरी का हर आम आदमी, ग़रीब, मजदूर और बेबस इंसान से सरोकार था। उन्होंने हमेशा मजदूरों के हक़ में आवाज़ बुलंद की। 'इप्टा' (भारतीय जन नाट्य संघ) की नींव रखने में डॉ. मुल्कराज आनंद और अली सरदार जाफ़री का अहम रोल रहा है।

कोई सरदार कब था इससे पहले तेरी महफ़िल में,
बहुत अहले-सुखन उट्ठे, बहुत अहले-कलाम आए।

बेटे नाज़िम की नज़र में पिता सरदार जाफ़री... अगले पन्नर...


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नाज़िम हिकमत पर रखे हमारे नाम : हैदराबाद में क़ियाम कर रहे सरदार जाफ़री के बड़े बेटे अली नाज़िम जाफ़री ने भी पिता को लेकर अपने मुख़्तसर-सी चर्चा की। उन्होंने बताया कि पिताजी तुर्क कवि नाज़िम हिकमत की रचनाओं से भी प्रभावित थे। साथ ही उनके अच्छे दोस्त भी। लिहाज़ा, इसी दीवानगी में उन्होंने मेरा नाम 'नाज़िम' और अपने छोटे बेटे का नाम 'हिकमत' रख दिया। हालांकि, हिकमत का 2007 में इतिक़ाल हो गया।

मदद किए बग़ैर चैन नहीं मिलता था : पिताजी को बच्चों से बहुत प्यार था। बच्चों के साथ वक़्त बिताने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे वो। बच्चे भी उनकी गोद में आकर उनके मस्तक पर उभर आए मस्से को ज़रूर दबाते। उनसे किसी का दु:ख भी बर्दाश्त नहीं होता था। मालूम होने पर कि फलां-फलां शख़्स दु:खी है, जब तक उसके पास तक मदद न पहुँचा देते, चैन नहीं लेते थे।

देवनागरी में लिपिबद्ध की शायरी : पिताजी ने उर्दू ही नहीं, हिन्दी के लिए भी बहुत काम किया। 1957 में स्थापित नेशनल बुक ट्रस्ट के ज़रिए उन्होंने 'दीवान-ए-मीर', 'दीवान-ए-ग़ालिब', 'मीरा बानी', 'कबीर बानी' सहित कई शायरों के कलाम देवनागरी लिपि में उपलब्ध करवाए। इससे उर्दू या अरबी-फारसी न समझने वाले हिन्दी भाषी लोगों को बड़ी तादाद में लाजवाब शायरी पढ़ने को मिल सकी।

तुम आओ गुलशनो-लाहौर से चमन-बर-दोश,
हम आयें सुबहे-बनारस की रौशनी लेकर
हिमालय की हवाओं की ताज़गी लेकर,
और उसके बाद ये पूछें कि कौन दुश्मन है?