Story of Amla tree and Goddess Lakshmi: आंवला नवमी की दो प्रमुख पौराणिक कथाएं हैं: पहली, माता लक्ष्मी द्वारा शिव और विष्णु की संयुक्त पूजा से जुड़ी है, जो विष्णु को प्रिय आंवला वृक्ष में तुलसी और शिव को प्रिय बेलपत्र के गुणों को पहचानती हैं, और दूसरी, 'आंवलिया राजा' की कहानी, जो निःस्वार्थ दान के महत्व को दर्शाती है। यह पर्व हमें प्रकृति के संरक्षण, उदारता और अटूट आस्था का संदेश देता है, और भक्तों को सुख-समृद्धि, उत्तम स्वास्थ्य और अक्षय पुण्य का आशीर्वाद प्रदान करता है।
 यहां आंवला नवमी की दो सबसे प्रचलित पौराणिक कथाएं प्रस्तुत हैं:ALSO READ: Amla Navami 2025: आंवला नवमी कब है, क्या है इस दिन का महत्व 
		 
		आंवला नवमी (अक्षय नवमी) की पौराणिक कथाएं
		 
		1. माता लक्ष्मी और आंवला वृक्ष की कथा: यह कथा आंवला नवमी पर आंवला वृक्ष की पूजा के महत्व को स्थापित करती है।
		 
		कथा : 
		पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार माता लक्ष्मी पृथ्वी लोक पर भ्रमण कर रही थीं। रास्ते में उनके मन में एक अद्भुत इच्छा जाग्रत हुई। वह चाहती थीं कि उन्हें भगवान विष्णु और भोलेनाथ शिव, दोनों की पूजा एक साथ करने का सौभाग्य प्राप्त हो। माता विचार करने लगीं कि इन दोनों देवताओं की पूजा एक ही समय में कैसे की जाए, क्योंकि भगवान विष्णु को तुलसी अत्यंत प्रिय है, और भगवान शिव को बेलपत्र।
		 
		तभी, माता लक्ष्मी ने एक आंवले का वृक्ष देखा। उन्हें तुरंत यह ज्ञान हुआ कि: 'तुलसी और बेलपत्र के सभी गुण एक साथ इस आंवले के वृक्ष में समाए हुए हैं। अतः, यह वृक्ष साक्षात भगवान विष्णु और भगवान शिव का संयुक्त स्वरूप है।'
 
 
 
  
														
																		 							
																		
									  
		 
		माता लक्ष्मी ने तत्काल उस आंवले के पेड़ को विष्णु और शिव का प्रतीक मानकर, पूरे विधि-विधान से उसकी पूजा-अर्चना शुरू कर दी। उन्होंने आंवले के वृक्ष की परिक्रमा की, उसे जल चढ़ाया और दीपदान किया।
		 
		परिणामस्वरूप माता लक्ष्मी की भक्ति से प्रसन्न होकर, भगवान विष्णु और भगवान शिव दोनों एक साथ वहां प्रकट हुए। माता लक्ष्मी ने आंवले के पेड़ के नीचे ही भोजन तैयार किया और सबसे पहले दोनों देवताओं को भोजन कराया। इसके बाद, उन्होंने स्वयं उस भोजन को प्रसाद रूप में ग्रहण किया।
		 
		चूंकि यह घटना कार्तिक शुक्ल नवमी के दिन हुई थी, इसलिए तभी से इस तिथि पर आंवले के वृक्ष की पूजा, उसके नीचे बैठकर भोजन करने और दान करने की परंपरा शुरू हो गई। यह माना जाता है कि इस दिन जो भी आंवले के वृक्ष की पूजा करता है, उसे भगवान शिव और विष्णु दोनों का संयुक्त आशीर्वाद प्राप्त होता है, और उसे अक्षय पुण्य यानी कभी न खत्म होने वाला पुण्य मिलता है।
		 
		कथा : 
		प्राचीन समय में, एक धर्मात्मा राजा थे, जो भगवान विष्णु के परम भक्त थे। उनका यह नियम था कि वह प्रतिदिन सवा मन आंवले का दान करने के बाद ही भोजन ग्रहण करते थे। इस दानवीरता के कारण उनका नाम 'आंवलिया राजा' पड़ गया था।
		 
		एक दिन राजा के बेटे और बहू ने सोचा कि राजा इस तरह रोज इतने सारे आंवले दान करते हैं, तो एक दिन उनका सारा खजाना खाली हो जाएगा। उन्होंने राजा से यह दान बंद करने को कहा। पुत्र की बात सुनकर राजा को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने अपनी पत्नी के साथ महल छोड़ दिया और जंगल में जाकर रहने लगे।
		 
		भूखे-प्यासे सात दिन बीत गए, लेकिन राजा ने अपना प्रण नहीं तोड़ा। राजा की सच्ची भक्ति देखकर भगवान विष्णु ने सोचा कि यदि आज मैंने इसका प्रण नहीं रखा, तो उसका सत्य (सत) भंग हो जाएगा।
		 
		सुबह जब राजा और रानी उठे, तो उन्होंने देखा कि जंगल में उनके राज्य से भी बड़ा नया राज्य बस गया है। राजा ने अपनी रानी से कहा: 'रानी! देखो, कहते हैं, सत यानी सत्य नहीं छोड़ना चाहिए।' उन्होंने फिर से आंवले दान करके भोजन किया।
		 
		उधर, आंवले के देवता का अपमान करने और माता-पिता को अपमानित करने के कारण, बेटे और बहू के बुरे दिन आ गए। उनका राज्य दुश्मनों ने छीन लिया और वे दाने-दाने को मोहताज हो गए।
काम ढूंढते हुए वे अपने पिताजी के नए राज्य में आ पहुंचे। बहू जब सास के पास आई, तो अपने पिछले कर्मों को याद करके रोने लगी। राजा ने उन्हें क्षमा किया और उन्हें फिर से दान-पुण्य करने का महत्व समझाया। अंत में, राजा की भक्ति और दान-पुण्य के प्रताप से सभी को सुख और शांति मिली।
	 
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