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Last Updated : सोमवार, 7 जुलाई 2025 (14:50 IST)

चातुर्मास: जब शिव संभालते हैं सृष्टि और विष्णु लेते हैं योग निद्रा

Chaturmas
चातुर्मास सनातन हिंदू धर्म में अत्यंत पावन और महत्वपूर्ण कालचक्र है। यह आषाढ़ शुक्ल देवशयनी एकादशी से प्रारंभ होकर, कार्तिक शुक्ल देवोत्थान एकादशी तक चलता है, जो लगभग चार माह की अवधि होती है। इस विशेष काल में भगवान विष्णु योगनिद्रा में लीन हो जाते हैं और सृष्टि के संचालन का दायित्व भगवान शिव ग्रहण करते हैं। यह अवधि सनातन धर्म में विशेष आध्यात्मिक महत्व रखती है।ALSO READ: चातुर्मास कब से कब तक रहेगा, इन 4 माह में 15 चीजें नहीं खाना चाहिए
 
सृष्टि का संचालन त्रिदेव – ब्रह्मेश (सृष्टिकर्ता), हृषीकेश (जगतपालक), और महेश (जगत नियंता/संहारक) करते हैं। जब जगतपालक श्रीहरि विष्णु सृष्टि का कार्यभार श्री हर शिव को सौंपकर योगनिद्रा में प्रवेश करते हैं, तो प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों होता है और भगवान विष्णु इन चार मासों में विश्राम क्यों करते हैं?
 
भगवान विष्णु की योगनिद्रा का वर्णन विभिन्न पुराणों जैसे विष्णु पुराण, वामन पुराण, पद्म पुराण, स्कंद पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण और ब्राह्मण ग्रंथों में मिलता है।  
 
एक मान्यता के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया, तो उन्होंने राजा बलि की दानशीलता और सत्यनिष्ठा की परीक्षा ली। गुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी राजा बलि अपने वचन पर अडिग रहे। वामन रूप में विष्णु जी ने राजा बलि से तीन पग धरती मांगी। राजा बलि, वामन की विराटता को समझ नहीं पाए और तीन पग धरती दान देने को तैयार हो गए। तब वामन ने पहले पग में पूरी धरती, दूसरे में सकल ब्रह्माण्ड को नाप लिया। जब तीसरे पग की बारी आई, तो राजा बलि ने वचनबद्धता में अपना शीश आगे कर दिया। 
 
राजा बलि की भक्ति से प्रसन्न होकर श्री हरि ने उन्हें वर मांगने को कहा। राजा बलि ने तुरंत श्रीहरि को पाताल में अपने साथ रहने के लिए आमंत्रित कर लिया। अपने वचन का पालन करते हुए श्री हरि तभी से चातुर्मास में पाताल लोक के क्षीरसागर (दूध का महासागर) में शेषनाग की शैया पर योगनिद्रा में रहने लगे। क्षीरसागर को आध्यात्मिक रूप से ब्रह्मांडीय चेतना का प्रतीक माना जाता है – एक अलौकिक और दिव्य स्थान जहां जगतपालक श्रीहरि गहन ध्यान में लीन होते हैं।
 
वही ब्रह्मवैवर्त पुराण में एक और मान्यता है कि राक्षस शंखचूड़ से युद्ध के बाद भगवान विष्णु अत्यधिक श्रांत (थकान) हो गए थे। इसलिए, उन्होंने सृष्टि का कार्यभार भगवान शिव को सौंप दिया और स्वयं गहन योगनिद्रा में चले गए। तभी से इन चार महीनों में महादेव शिव पर सृष्टि के संचालन का दायित्व आ गया।
 
चातुर्मास में श्रीहरि की योगनिद्रा का वास्तविक अर्थ सामान्य मनुष्यों की नींद से भिन्न है। यह एक संकेतात्मक अवस्था है, जिसमें वे संसार के कार्यकलापों से स्वयं को अलग कर स्वयं के भीतर स्थिर हो जाते हैं। इस अवधि में वे पूर्ण निद्रा में नहीं होते, बल्कि उनकी चेतना जागृत रहती है। उनकी यही चेतना महादेव में भी जागृत रहती है, जैसा कि वर्णित है: 'ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव जानत अविवेका, प्रणवाक्षर के मध्ये ये तीनों एका।'
 
महादेव इस समय विष्णु जी की चेतना को स्व में जागृत रखने की भूमिका निभाते है। वे भक्तों की प्रार्थनाएं और विनती सुनते हैं। वे धर्मचक्र और कर्मचक्र के अनुरूप घटनाओं को घटित होने देते हैं। इस बीच, भगवान शिव, जिन्हें हम सामान्यतः संहारक मानते हैं, सृष्टि के पालक और संरक्षक की भूमिका निभाते हैं। यह चातुर्मास की एक अनूठी विशेषता है, जो भगवान शिव के बहुआयामी स्वरूप को उजागर करती है। वे न केवल विनाश के देवता हैं, बल्कि संरक्षक, प्रदाता और परम योगी भी हैं।ALSO READ: 6 जुलाई से होंगे चातुर्मास प्रारंभ, जानिए इन 4 माह में क्या नहीं करना चाहिए
 
सावन का महीना, जो इन्हीं चार महीनों के अंतर्गत आता है, भगवान शिव को अत्यंत प्रिय है। इस पूरे माह में भक्त शिवलिंग पर जल, दूध, बेलपत्र, धतूरा आदि चढ़ाकर उनकी आराधना करते हैं। माना जाता है कि इस दौरान शिवजी पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं और अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।

यही कारण है कि देशभर के मंदिरों से शिव पालकी निकाली जाती है, और सप्तपुरी में से एक उज्जैन में महादेव महाकाल की शाही सवारी विश्वविख्यात है। महादेव का यह पालक रूप भक्तों को यह विश्वास दिलाता है कि भले ही पालक की सर्वोच्च सत्ता विश्राम कर रही हो, उनकी सुरक्षा और कल्याण का ध्यान शिव जी द्वारा हमेशा रखा जाएगा।
 
चातुर्मास में विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश जैसे मांगलिक कार्य वर्जित होते हैं। परंतु यह अवधि आध्यात्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होती है, जिसमें कई पवित्र व्रत-त्योहार आते हैं। देवशयनी एकादशी पर हरिहर मिलन, गुरु पूर्णिमा, सावन सोमवार और कांवड़ यात्रा, नागपंचमी, रक्षाबंधन, हरतालिका तीज, श्री गणेश चतुर्थी, श्री कृष्ण जन्माष्टमी, ढोल ग्यारस, अनंत चतुर्दशी, पितृ पक्ष, शारदीय नवरात्रि, दशहरा, करवा चौथ, अहोई अष्टमी, धनतेरस, दीपावली, गोवर्धन पूजा, भाई दूज, देवउठनी एकादशी ये सभी पर्व मनुष्यों को अपने भीतर झांकने और आत्मिक शांति प्राप्त करने का अवसर देते हैं। 
 
इस अवधि में हम बाहरी प्रपंचों से दूर रहकर आत्मिक उन्नति पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। यह समय हमें सात्विक जीवन शैली अपनाने, व्रत, उपवास, तामसिक भोजन का त्याग, ध्यान, तपस्या, संयम, साधना, स्वाध्याय, समर्पण और आत्मनियंत्रण की ओर उन्मुख होने के लिए प्रेरित करता है, जिससे इहलोक और परलोक दोनों की गति सुधरती है।
 
धार्मिक ग्रंथ धर्मसिंधु और निर्णयसिंधु में चातुर्मास का विस्तृत विवरण मिलता है। यह ऋतु परिवर्तन और प्रकृति के चक्र से भी जुड़ा है। इस दौरान प्रकृति में एक अद्भुत सुखद और मोहक परिवर्तन देखा जाता है। यह सब जगतपालक विष्णु और जगत नियंता शिव के एकात्मक रूप से सृजनात्मक ऊर्जा को पुनर्जीवित करने का प्रतीक है।
 
भगवान विष्णु की योगनिद्रा हमें यह भी सिखाती है कि जीवन में आत्मनिरीक्षण और विश्राम आवश्यक है। जिस प्रकार ब्रह्मांडीय व्यवस्था के लिए स्वयं पालक होते हुए भी वे एक अवधि के लिए विश्राम करते हैं, उसी प्रकार मनुष्यों को भी अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए नींद और आत्मचिंतन की आवश्यकता होती है।

यह सृष्टि के संतुलन और ऊर्जा के पुनर्गठन का समय भी है। इस अवधि में भगवान शिव सृष्टि के संचालन का कार्यभार संभालते हैं, जो शैव और वैष्णव परंपराओं के मध्य सुंदर सामंजस्य दर्शाता है। यह समय धार्मिक ग्रंथों के अनुसार पूजा-पाठ, ध्यान और जप के लिए विशेष फलदायी माना जाता है।

यह तपस्या और आत्मचिंतन का काल है, जो दर्शाता है कि उच्चतम सत्ता भी स्वयं को नवीनीकृत करने और ब्रह्मांडीय ऊर्जा को संचित करने के लिए विराम लेती है। इसी प्रकार, मानवों के लिए यह अवधि आत्मकल्याण, आध्यात्मिक उन्नति और आत्मशुद्धि के लिए अत्यंत उत्तम है। यह हमें अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखने और भक्तिमार्ग पर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।
 
चातुर्मास का समापन दीपावली के बाद ग्यारहवें दिन देवोत्थान एकादशी पर होता है, जब भगवान विष्णु अपनी योगनिद्रा से जागते हैं और सृष्टि का कार्यभार पुनः संभालते हैं। इस दिन से विवाह, गृह प्रवेश जैसे सभी शुभ कार्य पुनः प्रारंभ हो जाते हैं, और वातावरण में एक नई ऊर्जा तथा उत्साह का संचार होता है।
 
संक्षेप में, चातुर्मास दिव्य शक्तियों के सामंजस्य को दर्शाता है, जो ब्रह्मांड का संतुलन बनाए रखती हैं। ठीक वैसे ही, यह हमें भी आत्म-सुधार और आध्यात्मिक विकास के लिए प्रेरित करता है, जिससे हम अपने जीवन को अधिक सफल, सार्थक और सुंदर बना सकते हैं।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)ALSO READ: यदि सिद्धियां प्राप्त करना चाहते हैं तो चातुर्मास में करें ये 3 कार्य
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