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Last Modified: शनिवार, 18 फ़रवरी 2023 (16:22 IST)

कश्मीरी पंडित विस्थापित यूं मनाते हैं महाशिवरात्रि

कश्मीरी पंडित विस्थापित यूं मनाते हैं महाशिवरात्रि - Displaced Kashmiri Pandits celebrate Mahashivratri like this
जम्मू। कहने को 33 साल का अरसा बहुत लंबा होता है और अगर यह अरसा कोई विस्थापित रूप में बिताए तो उससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह अपनी संस्कृति और परंपराओं को सहेजकर रख पाएगा, पर कश्मीरी पंडित विस्थापितों के साथ ऐसा नहीं है जो बाकी परंपराओं को तो सहेजकर नहीं रख पाए लेकिन शिवरात्रि की परंपराओं को फिलहाल नहीं भूले हैं। इसके लिए वे कई दिन पहले ही अपनी तैयारियां आरंभ कर देते हैं।

आतंकवाद के कारण पिछले 33 वर्ष से जम्मू समेत पूरी दुनिया में विस्थापित जीवन बिता रहे कश्मीरी पंडितों के 3 दिन तक चलने वाले सबसे बड़े पर्व महाशिवरात्रि का धार्मिक अनुष्ठान पूरी आस्था और धार्मिक उल्लास के साथ आज समाप्त हो गया है। यह पंडित समुदाय के लिए धार्मिक के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक पर्व भी है।

जम्मू स्थित कश्मीरी पंडितों की सबसे बड़ी कॉलोनी जगती है और समूचे जम्मू में बसे कश्मीरी पंडितों के घर-घर में पिछले एक हफ्ते से ही पूजा की तैयारी शुरू हो चुकी थी। लोग घर की साफ-सफाई और पूजन सामग्री एकत्रित करने में व्यस्त थे।

कश्मीर घाटी में बर्फ से ढंके पहाड़, सेब तथा अखरोट के दरख्तों के बीच मनोरम प्राकृतिक वातावरण में यह पर्व मनाने वाले कश्मीरी पंडितों ने आज छोटे-छोटे सरकारी क्वार्टरों और जम्मू की तंग बस्तियों में धार्मिक अनुष्ठान को पूरा किया है। शिवरात्रि को कश्मीरी में हेरथ भी कहते हैं।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हेरथ शब्द संस्कृत शब्द हररात्रि यानी शिवरात्रि से निकला है। नई मान्यता के अनुसार यह फारसी शब्द हैरत का अपभ्रंश है। कहते हैं कश्मीर घाटी में पठान शासन के दौरान कश्मीर के तत्कालीन तानाशाह पठान गवर्नर जब्बार खान ने कश्मीरी पंडितों को फरवरी में यह पर्व मनाने से मना कर दिया। अलबत्ता उसने सबसे गर्म माह जून-जुलाई में मनाने की अनुमति दी।

खान को पता था कि इस पर्व का हिमपात के साथ जुड़ाव है। शिवरात्रि पर जो गीत गाया जाता है, उसमें भी शिव-उमा की शादी के समय सुनहले हिमाच्छादित पर्वतों की खूबसूरती का वर्णन किया जाता है। इसलिए उसने जानबूझकर इसे गर्मी के मौसम में मनाने की अनुमति दी लेकिन गवर्नर समेत सभी लोग उस समय हैरत में पड़ गए जब उस वर्ष जुलाई में भी भारी बर्फबारी हो गई, तभी से इस पर्व को कश्मीरी में हेरथ कहते हैं।

इसकी खातिर पूरे घर की साफ-सफाई करके पूजा स्थल पर शिव और पार्वती के दो बड़े कलश समेत बटुक भैरव और पूरे शिव परिवार समेत करीब 10 कलशों की स्थापना कश्मीरी पंडितों के घरों में देखने को मिली है। पहले कुम्हार खासतौर पर इस पूजा के लिए मिट्टी के कलश बनाते थे लेकिन अब पीतल या अन्य धातुओं के कलश रखे गए हैं। फूलमालाओं से सजे कलश के अंदर पानी में अखरोट भी रखे गए थे।

तीन दिन तक तीन-चार घंटे तक विधिवत पूजा होती रही है। तीसरे दिन कलश को प्रवाहित करने का प्रचलन है। जिसे आज रात को प्रवाहित किया जाएगा। पहले मिट्टी के कलश को जेहलम दरिया में प्रवाहित किया जाता था। अब पास के जल निकाय पर औपचारिकता पूरी की गई है। कलश में रखे अखरोट के प्रसाद को आज सगे-संबंधी के बीच बांटकर शिवरात्रि की परपंरा को पूरा किया गया।

कश्मीरी पंडितों के संगठन पनुन कश्मीर के अधिकारियों ने बताया कि सामाजिक अलगाववाद के बावजूद कश्मीरी पंडितों ने अपनी धार्मिक परंपरा को जीवंत रखा है। उन्होंने कहा कि अपनी जड़-जमीन से बेदखल हमारे समुदाय से बच्चों की अच्छी शिक्षा और पूजा-पाठ की परंपरा को बचाए रखा। अभी भी देश-विदेश में बसे इस समुदाय की युवा पीढ़ी भी पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ यह धार्मिक पर्व मनाती है।
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