कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन और नरसंहार पर बनी फिल्म द कश्मीर फाइल्स ने एक बार फिर कश्मीरी पंडितों के पलायन के जख्म को हरा कर दिया है। फिल्म ने देश में एक बार फिर कश्मीरी पंडितों को चर्चा के केंद्र में ला दिया है। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा संसदीय दल की बैठक में खुद फिल्मी का जिक्र करते हुए कहा कि फिल्म में जो दिखाया गया है, उस सच को दबाने की कोशिश की गई थी।
आखिरी 1990 के दशक में कश्मीर पंडि़तों के पलायन औऱ नरसंहार का असली सच क्या था? इसको जनाने के लिए 'वेबदुनिया' ने श्रीनगर में रहने वाले कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष संजय टिक्कू से एक्सक्लूसिव बातचीत कर कश्मीरी पंडितों के पलायन की असली वजह को सामने लाने की कोशिश की है।
कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के प्रेसिडेंट संजय टिक्कू तीन दशक से अधिक समय से कश्मीरी पंडितों के संघर्ष की आवाज बुलंद करने के साथ कश्मीर पंडितों के हक के लिए लड़ाई लड़ रहे है।
मस्जिद से कश्मीर छोड़ने का एलान-तीन दशकों से कश्मीर पंडितों के संघर्ष के लिए आवाज उठाने वाले संजय टिक्कू वेबदुनिया से बातचीत में कहते हैं कि उन्होंने अब तक 'द कश्मीर फाइल्स' फिल्म तो नहीं देखी है लेकिन उन्होंने 1989 और 1990 में कश्मीर घाटी में जो कुछ हुआ है उसको न केवल सामने से देखा है बल्कि उसको झेला भी है।
संजय टिक्कू कहते हैं कि आज भी उनको 19 जनवरी 1990 की वह तारीख अच्छी तरह याद है। रात 9 बजे के करीब दूरदर्शन के मेट्रो चैनल पर हमराज फिल्म आ रही थी। घर में सभी लोग बैठकर फिल्म देख रहे थे। रात करीब 9.30 बजे के करीब मैं घर की दूसरी मंजिल पर मौजूद था और इसी दौरान मुझे दूर से कुछ आवाजें आती हुई सुनाई दी, कुछ ही देर में पास की मस्जिद से भी एलान होने पर साफ सुनाई देने लगा। मस्जिद पर लगे लाउडस्पीकर से कई तरह के ऐलान होने के साथ नारे (स्लोगन) सुनाई दे रहे थे। इनमें धार्मिक नारों के साथ-साथ पाकिस्तान समर्थन में नारे लगने के साथ-साथ सुरक्षा बलों की आने की बात कहकर रात भर सड़कों पर रहने की बात कही जा रही थी। इस बीच मज्जिद के लाउडस्पीकर से दो बार कश्मीरी पंडितों को घर छोड़ जाने का एलान हुआ।
19 जनवरी 1990 की दहशत की वो रात- मस्जिदों से इस तरह के ऐलान के बाद लोग सड़कों पर निकल आए और करीब एक घंटे में पूरे कश्मीर में पंडितों के खिलाफ आग फैल गई। संजय टिक्कू कहते हैं कि उस कम्युनिकेशन के आज जैसे साध नहीं थे लेकिन जिस तरह से पूरे कश्मीर में नारे और कश्मीर पंडितों को छोड़ने की बात हुई उससे लग रहा था कि सब कुछ प्री प्लान था। वहीं रात में मस्जिदों से आने वाली आवाज दूर तक जाती थी इसलिए शायद रात का वक्त चुना गाया। वह कहते हैं कि लोग रात भर सड़कों पर ही रहे।
अगले दिन सुबह जब मैं बाहर निकला तो सड़कों पर बहुत भीड़ थी चारों ओर डर का माहौल था और कश्मीरी पंडित बड़े पैमाने पर पलायन कर रहे थे। इस माहौल के बीच 21 जनवरी 1990 को एक और नरसंहार हुआ जिसमें 52 लोगों की हत्या हुई और 150 के करीब लोग घायल हुए।
कश्मीरी पंडितों की हिट लिस्ट में परिवार का नाम- वेबदुनिया से बातचीत में संजय टिक्कू कहते हैं उन दिनों में मस्जिदों में एक हिट लिस्ट चिपकाई जाती थी जिसमें कश्मीरी पंडितों के नाम, सरकारी कर्मचारियों के नाम होते थे या जिनको मुखबिर माना जाता था, हिट लिस्ट में शामिल लोगों को निशाना बनाकर उनकी हत्याएं होती थी। इसके अलावा हाथ से लिखे पोस्टर भी दीवारों पर चिपकाए जाते थे। और उसमें लिखा होता था कि आप लोग कश्मीर छोड़कर चले जाइए नहीं तो मार दिए जाएंगे।
इस डर से ऐसे लोग जिन परिवार से लोग मारे गए उन्होंने कश्मीर छोड़ दिया वहीं सरकारी नौकरी में शामिल होने वाले परिवारों ने भी कश्मीर छोड़ दिया। संजय टिक्कू कहते हैं कि इस माहौल में भी कई स्थानीय लोगे ऐसे भी थे, जिन्होंने हिट लिस्ट में नाम आने वाले पंडितों के परिवारों को जानकारी देकर, उनकी जान बचाई।
हिट लिस्ट में आने पर कैसे बची परिवार की जान?-वेबदुनिया से बातचीत में संजय टिक्कू कहते हैं 1990 की जनवरी- फरवरी की बात है कि हमारे हम साये (पड़ोसियों) ने हम लोगों (कश्मीरी पंडितों) से बात करना छोड़े दी थी, बात छोड़ने के पीछे भी एक लंबी कहानी है। उस समय जब किसी कश्मीर पंडित को मार दिया जाता था तो यह लोग सामने नहीं आते थे, ऐसा या तो डर के माहौल के कारण ऐसा था या मारने वाले लोगों के सपोर्ट के कारण। यह वह दौर था जब कश्मीर पंडित निशाने पर थे और उनका कत्ल किया जा रहा था लेकिन यह भी सच है कि 60 फीसदी कश्मीरी पंडितों को उन्हीं के हम साये (स्थानीय कश्मीरों) ने बचाया।
वेबदुनिया के साथ वह अपने साथ ही घटना को विस्तार से बताते हुए कहते हैं कि यह मेरे घर के साथ ही हुआ। कश्मीर के मेरी मौसी और उनका बेटा किराए के मकान में रहती थी। कश्मीर से जब कश्मीरी पंडितों का पलायन होने लगा तो मैं मौसी और उनके बेटे को श्रीनगर के डाउन टाउन स्थित घर लेकर आ गया था। इसके पीछे सोच यह थी कि अगर निकलना पड़ा तो हम लोग इक्ट्ठा निकलेंगे।
मौसी और उनके बेटे को घर पर रहते हुए 20 से 25 दिन हुए होंगे कि एक शाम को घर के मेन दरवाजे को किसी के खटखटाने (नॉक) की आवाज सुनाई दी। बाहर अंधेरा था क्यों कि उन दिनों गली में जितनी स्ट्रीट लाइट थी वह तोड़ दी गई थी जिससे मारने वालों की पहचान न हो पाए। दरवाजा खटखटाने वाले शख्स ने आवाज न देकर केवल खांसा, जिसमें मैं समझ गया कि दरवाजे पर आया शख्स कोई परिचित ही है। गेट खोलते ही वह शख्स घर के आंगन में आ गए और पूछा कि क्या आपका कोई रिश्तेदार आपके साथ रहता है क्या? इसका कारण पूछने पर उन्होंने बताया कि मस्जिद नमाज पढ़ने के दौरान वहां पर दीवार पर चिपकी लिस्ट में रिश्तेदार ऑफ काशीनाथ लिखा हुआ था। उन्होंने रिश्तेदारों को तत्काल वहां से निकालने की बात कही।
इसके बाद हालात को खराब होते-होते देख रात को ही परिवार को बाहर निकालने को सोचा। रात में तीन बजे के करीब ऑटो स्टैंड पहुंचा और भरोसे वाले ऑटो बुलाकर मौसो और उनके बेटे को रात को निकाला। उन दिनों सरकारी गड़ियां सुबह साढ़े सात बजे चलते थी। मैंने दो टिकट निकालकर मौसी और उनके बेटे को दिया और वहां से भेज दिया। इसके बाद मई के महीने में अपने रिश्तदारों को खोजने के लिए जब मैं जम्मू गया तो वहां कश्मीर पंडितों के विस्थापितों के लिए बनाई गई कॉलोनी में जहां जानवर रखे जाते थे वहां पर मुझे अपनी मौसी मिली।