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Last Modified: शुक्रवार, 27 मार्च 2020 (16:01 IST)

'महामारी' पर ओशो रजनीश ने वर्षों वर्ष पूर्व दिया था चौंकाने वाला संदेश

'महामारी' पर ओशो रजनीश ने वर्षों वर्ष पूर्व दिया था चौंकाने वाला संदेश - Osho Rajneesh on epidemic
भगवान बुद्ध पर दिए अपने प्रवचनों में ओशो ने महामारी का जिक्र किया है। ओशो कहते हैं कि एक समय वैशाली में दुर्भिक्ष हुआ था और महामारी फैली थी। लोग कुत्तों की मौत पर रहे थे। मृत्यु का तांडव नृत्य हो रहा था। मृत्यु का ऐसा विकराल रूप तो लोगों ने कभी नहीं देखा था न सुना था। सब उपाय किए गए थे लेकिन सब उपाय हार गए थे। फिर कोई और मार्ग न देखकर लिच्छवी राजा राजगृह जाकर भगवान को वैशाली लाए। भगवान की उपस्थिति में मृत्यु का नंगा नृत्य धीरे-धीरे शांत हो गया था। मृत्यु पर तो अमृत की ही विजय हो सकती है। फिर जल भी बरसा था सूखे वृक्ष पुन: हरे हुए थे; फूल वर्षों से न लगे थे फिर से लगे थे फिर फल आने शुरू हुए थे। लोग अति प्रसन्न थे।
 
 
ओशो का यह प्रवचन लगभग एक घंटे से ज्यादा का रहा है।
 
 
आगे सद्गुरु ओशो कहते हैं कि हम बड़े बैचेन हो जाते हैं जब महामारी फैल जाए, लोग मरने लगे लेकिन एक बात पर हम ध्यान कभी ही नहीं देते हैं‍ कि सभी को मरना है। महामारी फैले की न फैले। इस जगत में 100 प्रतिशत लोग मरते हैं। आपने कभी खयाल किया कि ऐसा नहीं की 99 प्रतिशत मरते हो, 98 प्रतिशत मरते हो। अमेरिका में कम मरते हो या भारत में ज्यादा मरते हो। यहां 100 प्रातिशत लोग मरते हैं। जितने बच्चे पैदा होते हैं उतने सभी मरते हैं।
 
 
महामारी तो फैली ही हुई है। महामारी का और क्या अर्थ होता है? जहां बचने का कोई उपाय नहीं, जहां कोई औषधि काम नहीं आएगी। साधारण बीमारी को हम कहते हैं कि जहां औषधि काम आ जाए। महामारी को कहते हैं जहां कोई औषधि काम न आए। जहां हमारे सब उपाय टूट जाए और मृत्यु अंततः जीते।

 
महामारी तो फैली हुई है। सदा से फैली हुई है। इस पृथ्वी पर हम मरघट में ही है। यहां मरने के अतिरिक्क्त और कुछ होने वाला नहीं है। देर सबेर यह घटना घाटेगी। वैशाली के लोगों ने ये कभी न देखा था कि सभी लोग मरते हैं। यदि ये देखा होता तो भगवन को पहले ही बुला लाते कि हमें कुछ जीवन के सूत्र दे देते कि हम भी जन सकें की अमृत क्या है, लेकिन नहीं गए क्योंकि महामारी फैली हुई थी।

 
आदमी ने कुछ ऐसी व्यवस्था की है कि मौत दिखाई नहीं पड़ती। जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है वहां दिखाई नहीं पड़ती और जो व्यर्थ की बातें हैं वह खूब दिखाई पड़ती है। तुम एक कार या मकान को खरीदते हो तो कितना सोचते हो, रातभर सोते नहीं, कितनी खोजबीन करते हो। तुम सिनेमाघर जाते हो तो कितना सोचते हो, लेकिन तुम जीवन के संबंध में जरा भी नहीं सोचते हो।

 
तुम ये भी नहीं देखते हो कि जीवन हाथ से बहा जा रहा है और मौत रोज पास आए चली जा रही है। मौत द्वार पार खड़ी हैं। कब चली आएगी कहां ले जा सकती हैं? हमने जिस तरह से झुठलाया है मौत को जिसका हिसाब नहीं।
 
एक अन्य प्रचवन में ओशो से किसी ने महामारी पर प्रश्न किया था। ओशो ने कहा था कि महामारी से कैसे बचे 
यह प्रश्न ही आप गलत पूछ रहे हैं। प्रश्न ऐसा होना चाहिए था, महामारी के कारण मेरे मन में मरने का जो डर बैठ गया है उसके संबंध में कुछ कहिए? इस डर से कैसे बचा जाए..?
 
क्योंकि महामारी से बचना तो बहुत ही आसान हैं, लेकिन जो डर आपके और दुनिया के अधिक लोगों के भीतर बैठ गया है, उससे बचना बहुत ही मुश्किल है। अब, इस महामारी से कम लोग इस डर के कारण ज्यादा मरेंगे...।
 
'डर' से ज्यादा खतरनाक इस दुनिया में कोई भी वायरस नहीं है। इस डर को समझिए, अन्यथा मौत से पहले ही आप एक जिंदा लाश बन जाएंगे। 'डर' में रस लेना बंद कीजिए। आमतौर पर हर आदमी डर में थोड़ा बहुत रस लेता है, अगर डरने में मजा नहीं आता तो लोग भूतहा फिल्म देखने क्यों जाते?
 
अपने भीतर के इस रस को समझीए। इसको बिना समझे आप डर के मनोविज्ञान को नहीं समझ सकते हैं। अपने भीतर इस डरने और डराने के रस को देखिए, क्योंकि आम जिंदगी में जो हम डरने-डराने में रस लेते हैं, वो इतना ज्यादा नहीं होता है कि अपके अचेतन को पूरी तरह से जगा दे सामान्यत: आप अपने डर के मालिक होते हैं,  लेकिन सामूहिक पागलपन के क्षण में आपकी मालकियत छिन सकती हैं। आपका अचेतन पूरी तरह से टेकओवर कर सकता है। आपको पता भी नहीं चलेगा कि कब आप दूसरों को डराने और डरने के चक्कर में नियंत्रण खो बैठे हैं।
 
संदर्भ : वैशाली में मृत्‍यु का तांडव नृत्‍य (एस धम्मो सनंतनो)
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