नाम 'खुदा की सेना' और काम शैतान का...
जम्मू। जैश-ए-मुहम्मद अर्थात 'खुदा की सेना'। जैश-ए-मुहम्मद खुदा की इबादत के लिए जेहाद को रास्ता मानता है, तो आत्मघाती हमलों को सेवा। इस्लाम में आत्महत्या की चाहे इजाजत नहीं दी जाती, लेकिन जेहाद तथा धर्म की कथित रक्षा के लिए आतंक की आड़ में कुर्बानी देने के तर्क दिया जाता है।
अब पुलवामा का हमला, पहले उरी में सैन्य शिविर तथा पठानकोट एयरबेस पर हमला करने वाले और इससे पहले संसद भवन जैसी अति सुरक्षित समझे जाने वाली इमारत की सभी सुरक्षा व्यवस्थाओं को नेस्तनाबूद कर सारे देश को हिला देने वाले संगठन की चर्चा आज कश्मीर में ही नहीं बल्कि विश्वभर में हो रही है, जिसने अपने गठन के मात्र दो सालों के दौरान जितनी कार्रवाइयों को अंजाम दिया था कि उसने लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया था।
अल-कायदा से प्रशिक्षण प्राप्त और ओसामा-बिन-लादेन की शिक्षाओं पर चलने वाले जैश-ए-मुहम्मद के संस्थापक आतंकवादी नेता मौलना मसूद अजहर के लिए वे क्षण बहुत ही ‘अहम’ थे जब उसे जम्मू की जेल से इसलिए रिहा कर दिया गया था क्योंकि भारत सरकार को अपने 154 विमान यात्रियों को रिहा करवाना था। तब उसकी रिहाई के परिणामों के बारे में नहीं सोचा गया था।
अपनी रिहाई और संगठन के गठन के बाद तीन महीनों तक खामोश रहने वाले जैश-ए-मुहम्मद ने 19 अप्रैल 2000 को सारे विश्व को चौंका दिया था। कश्मीर की धरती को हिला दिया था। पहला मानव बम हमला किया था जैश-ए-मुहम्मद ने कश्मीर में। जैश-ए-मुहम्मद की ओर से बादामी बाग स्थित सेना की 15वीं कोर के मुख्यालय पर मानव बम का हमला करने वाला कोई कट्टर जेहादी नहीं था बल्कि 12वीं कक्षा में पढ़ने वाला 17 वर्षीय मानसिक रूप से तथा कैंसर से पीड़ित युवक अफाक अहमद शाह था।
इसके उपरांत मानव बम हमलों की झड़ी रुकी नहीं। क्रमवार होने वाले आत्मघाती हमलों में प्रत्येक आतंकवादी मानव बम की भूमिका निभाने लगा। यह सब करने वाले थे जैश-ए-मुहम्मद के सदस्य। उन्होंने इस्लाम की उन हिदायतों को भी पीछे छोड़ दिया था जिसमें कहा गया था कि आत्महत्या करना पाप है, लेकिन वे इसे नहीं मानते और कहते हैं- 'जेहाद तथा धर्म की रक्षा के लिए अपने शरीर की कुर्बानी दी जा सकती है।
इस 'कुर्बानी’ का एक नया चेहरा फिर नजर आया प्रथम अक्टूबर 2001 को। कश्मीर विधानसभा की इमारत पर मानव बम हमला करने वालों ने 47 मासूमों की जानें ले ली। अभी विधानसभा पर हुए हमले के धमाके की गूंज से कानों को मुक्ति मिल भी नहीं पाई थी कि सारा विश्व स्तब्ध रह गया। दिन था 13 दिसंबर का और निशाना था भारतीय संसद भवन। कोई सोच भी नहीं सकता था। लेकिन जैश-ए-मुहम्मद ने वहां भी धमाका कर दिया। ताजा हमलों की लिस्ट में पठानकोट एयरबेस, उरी के सैन्य शिविर तथा पुलवामा में केरिपुब पर हुए हमले भी जुड़ गए हैं।
सच में कश्मीर में करगिल युद्ध के बाद आरंभ हुए आत्मघाती हमलों, जिन्हें दूसरे शब्दों मे फिदायीन हमले भी कहा जाता है, को नया रंग, रूप और मोड़ दिया है जैश-ए-मुहम्मद ने। उस जैश ने जो आज आतंक और दहशत का पर्याय बन गया है सारे विश्व में। चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि करगिल युद्ध के बाद के 20 सालों के दौरान कश्मीर में जिन डेढ़ हजार के करीब आत्मघाती हमलों को अंजाम दिया जा चुका है उनमें से आधे से अधिक में जैश के आतंकी शामिल थे। इनमें से कथित तौर पर 52 में मानव बमों ने हिस्सा लिया था।