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किसानों की आत्महत्याएं महाराष्ट्र में चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बना

किसानों की आत्महत्याएं महाराष्ट्र में चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बना - Why farmer suicides did not become an election issue in Maharashtra
Farmers suicides in Maharashtra: कितना अजीब देश है हमारा। पीने का स्वच्छ पानी, भरपूर या पोषक भोजन बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा, यौन अपराध, अन्य असामाजिक घटनाएं कभी चुनावी मुद्दे बनते ही नहीं। ले-देकर वही सांप्रदायिक नारे या बेबुनियाद आरोप प्रत्यारोप का चुनाव प्रचार का दौर। ज्ञातव्य है कि महाराष्ट्र में हाल में 288 विधानसभा सीटों के चुनाव संपन्न हुए। पूरे देश में हरित क्रांति आने से पहले ही तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय वसंत राव नाईक के जमाने में इस राज्य में हरित क्रांति आ चुकी थी। नकद फसलों जैसे गन्ना, प्याज, चीकू, अंगूर, संतरा आदि से लबालब इसी प्रदेश में किसानों द्वारा बैंकों के कर्ज के कारण हजारों की संख्या में कथित रूप से आत्महत्याएं कर लेने की खबरें मीडिया में पिछले पंद्रह साल से आ रही हैं। 
 
विधवाओं का गांव : मीडिया की ही एक खबर के अनुसार इस राज्य के मराठा बहुल मराठवाड़ा अंचल के जिले बीड में तो एक पूरा गांव विधवाओं का गांव कहा जाता है। कारण कि वहां के तमाम कर्जदार किसान बैंकों के कर्ज नहीं उतार पाए तो उन्होंने खुदकुशी कर ली, लेकिन हैरानी की बात यह है कि मीडिया, विधानसभा और विधान परिषद में इन मौतों पर स्यापा मनाने वाले विधायक चुनावी प्रचार में किसानों की आत्महत्याओं की घटनाओं के मुद्दे को छेड़ते तक नहीं है, जबकि इसी देश में किसान को धरती पुत्र तथा अन्नदाता तक कहा जाता है।
 
एक आंकड़े के अनुसार महाराष्ट्र में 2014 से 2020 तक कुल 57 हजार 160 किसानों ने खुदकशी की। यह आंकड़ा राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने जारी किया है। अमरावती, जो विदर्भ अंचल का प्रमुख शहर है, वहीं इस साल के जून तक 557 किसान अपनी जान दे चुके हैं।
 
किसानों की आत्महत्याओं पर मोदी की भी चुप्पी : लोकसभा चुनाव के दौरान मध्य प्रदेश से सटे विदर्भ अंचल में हर पार्टी के नेता अपनी रैलियों में किसानों की आत्महत्या का मुद्दा उठाने से बचते रहे,और तो और पीएम नरेंद्र मोदी ने भी इस अति संवेदनशील मामले में वैसी ही चुप्पी धारण कर रखी थी जैसी कि वे मणिपुर की हिंसक गतिविधियों के बारे में शायद ही कभी कुछ बोले हों। विपक्ष भी इस मामले में जबानी जमा खर्च करता रहा। एक बार कांग्रेस के नेता जयराम रमेश ने जरूर इस मामले को उठाया था, लेकिन बाद में वे भी छुई मुई हो गए। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने भी विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान इस मुद्दे को उठाया, किंतु इसके पीछे भी भावना शायद यह थी कि यदि इंडिया गठबंधन को सरकार मिल गई तो वो किसी जादुई छड़ी के जैसा किसानों की ये आत्महत्या रातों रात रुकवा देंगे।
 
उन्होंने 21 अक्टूबर को एक रैली में भाजपा को किसानों का सबसे बड़ा दुश्मन बताते हुए कहा था कि किसानों को तभी लाभ मिलेगा जब जनता राज्य की सत्ता से डबल इंजन की सरकार को हटा देगी। सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर खड़गे ने लिखा कि राज्य को अकाल या दुष्काल मुक्त बनाने का वादा महायुति सरकार ने चुनावी जुमलेबाजी के तहत किया था। उन्होंने लिखा कि 20 हजार करोड़ रुपए के वाटर ग्रिड का वादा झूठा निकला लेकिन खरगे के पास किसानों को इन दुश्वारियों से निकालने के लिए कोई ब्ल्यू प्रिंट नहीं था।
 
महायुति गठबंधन का वचन : अब फिर से सत्ता महायुति गठबंधन का वचन भी याद दिला दें। उसने अपने घोषणा पत्र में किसानों के कर्ज माफ करने की बात कही थी। शेतकरी (किसान) सम्मान योजना के तहत 15 हजार रुपए देने की बात भी लिखी गई थी। वादा यह भी किया गया था कि समर्थन मूल्य पर 20 फीसद सब्सिडी की दी जाएगी, उधर हाल के चुनाव में हारी महाविकास आघाड़ी ने किसानों का तीन लाख रुपए तक का कर्ज माफ करने की बात कही और 50 हजार रुपए की सहायता नियमित रूप से देने का वचन दिया। जाहिर है कि जनहित से जुड़े मुद्दे अब चुनाव में बेजान हो चुके हैं। उनकी कोई पूछ परख नहीं होती। वहीं, पुराने लोक लुभावन नारे नया वर्क चढ़ाकर भोली-भाली जनता के सामने उछाल दिए जाते हैं।
 
कुछ जानकार तो यहां तक कहते है कि इस राज्य में 20 साल पहले ही किसानों की आत्महत्या करने का कारुणिक दौर शुरू हो चुका था। तब ये एक छोटी सी चिंगारी थी। इसे तभी बुझा दिया जाता, तो आज ये चिंगारी लगभग पूरे महाराष्ट्र में जंगल की आग बनकर बेकसूर किसानों की जान की गाहक नहीं बनती। राज्य और केंद्र सरकार ने जरूर समय-समय पर राहत पैकेज जारी किए, लेकिन वे ऊंट के मुंह में जीरे के सामान सिद्ध हुए। दिसंबर 2023 से मार्च 2024 के बीच प्याज के निर्यात पर प्रतिबंध लगाना यहां के किसानों पर विपरीत असर डालने वाला सिद्ध हुआ।
 
प्याज की खेती के मामले में महाराष्ट्र का नाशिक जिला एक तरह से पूरे विश्व के भाव तय करता है। घर-घर के किचन की आलू की तरह ही यह सब्जी भी अनिवार्य जरूरत है। बता दें कि प्याज के कुल राष्ट्रीय उत्पादन में नाशिक और उसके आसपास पैदा होने वाले प्याज की कुल हिस्सेदारी 30 से 35 प्रतिशत है, किंतु पिछली बरसात में यहां के किसानों को दुबले को दो आषाढ़ जैसी स्थिति का सामना करना पड़ा क्योंकि ज्यादा बारिश के कारण 20 से 30 प्रतिशत प्याज खेतों में ही सड़ गया। (यह लेखक के अपने विचार हैं, वेबदुनिया का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है)
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