सोमवार, 23 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. मेरा ब्लॉग
  4. Gurunanak dev, sanatan dharm, guru grinth sahib

गुरुनानक देव: सनातन धर्म संस्कृति के विराट दर्शन

गुरुनानक देव: सनातन धर्म संस्कृति के विराट दर्शन - Gurunanak dev, sanatan dharm, guru grinth sahib
भारतीय सनातन धर्म- संस्कृति के कालजयी अतीत में दृष्टिपात करने पर हम पाते हैं कि सम्पूर्ण विश्व में जागृति एवं ईश्वरीय शक्ति चेतना के प्रसार के लिए महापुरुषों, सन्त-महात्माओं के प्रादुर्भाव के साथ- साथ स्वयं भगवान ने इस पावन पुण्य भूमि में समय-समय पर अवतीर्ण होकर सम्पूर्ण सृष्टि के उत्थान एवं जनकल्याण की प्रतिष्ठा कर समन्वय स्थापित किया है।

हमारी सनातन संस्कृति की यही विशेषता रही है कि जीवन दर्शन में स्थूल एवं सूक्ष्म की व्याख्या करने के लिए भौतिक ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण सृष्टि की अध्यात्मिक उन्नति का पथ प्रशस्त किया है।

इन्हीं तारतम्यों में विराट सनातन संस्कृति की गोद से जैन एवं बौध्द पन्थ का प्रादुर्भाव होने के साथ ही 'सिक्ख पन्थ' की ज्योति को आलोकित किया है। सामाजिक-आर्थिक, लौकिक-पारलौकिक एवं आत्मिक परिशुद्धता को अपने जीवन की सार्वभौमिक प्रयोगात्मक सिध्दि के माध्यम से समन्वय-शान्ति-सौहार्द का पल्लवन करने का दर्शन देने वाले महान सन्त गुरूनानक देव जी महाराज का जन्म सन् 1469 में कार्तिक पूर्णिमा को तलवंडी ननकाना साहब (वर्तमान पाकिस्तान) में हिन्दू परिवार में हुआ था।

गुरूनानक देव को बाल्यकाल से ही आध्यात्मिक, दयाभाव एवं प्रेमानुभूति, समरसता की प्रवृत्ति एवं अभिरुचि ने उन्हें 'आत्मा से परमात्मा के मिलन' की ओर प्रेरित किया जिससे उनका जीवन मनुष्य मात्र ही नहीं बल्कि जीवकल्याण के लिए समर्पित हो गया।

उन्होंने सामाजिक कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए गृहस्थ धर्म के पालन का भी दायित्व संभालता और समाज के सर्जनात्मक पक्ष को मजबूती प्रदान करने की बात को स्थापित कर एक अलग दृष्टिकोण दिया।

उनका जन्म एक ऐसे समय में हुआ था जब सम्पूर्ण भारतीय समाज, सामाजिक विसंगतियों एवं कुरीतियों से घिरा होने के कारण अपने धर्म एवं सामाजिक उन्नति से कट सा गया था। चूंकि उस दौर में भारतीय समाज बाहर से आए बर्बर, अरबी इस्लामिक आक्रान्ताओं की क्रूरतम त्रासदी में परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, जिससे हीनग्रस्त भावना एवं भय का वातावरण हर क्षण बना रहता था। इस कारण सम्पूर्ण सनातन भारतीय समाज जीवन एवं मृत्यु के बीच की लड़ाई से जूझ रहा था।

गुरू नानक जी के जन्म से पूर्व एवं उनके जीवनकाल के वक्त बर्बर आतंकी क्रूर लुटेरे इस्लामिक आक्रान्ताओं द्वारा भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के लिए जबरन धर्मांतरण करवाया जाता था। इतना ही नहीं सनातनी परम्पराओं के पालन पर प्रतिबन्ध के साथ ही अनेकों अन्तरात्मा को कंपा देने वाले अत्याचारों की सुनामी आ गई थी, जिसकी वजह से भारतीय संस्कृति की परस्पर समानता एवं बन्धुत्व की धार्मिक एवं सामाजिक शैली खण्डित होकर दूषित सी हो गई थी।

इन्हीं कारणों के फलस्वरूप सनातन हिन्दू समाज में कुरीतियां एवं सामाजिक विद्रूपताओं की उत्पत्ति हुई जिससे संगठित समाज में भेदभाव की विभिन्न दरारें बनीं और सनातन हिन्दू समाज अन्दर - अन्दर ही खोखला होने लगा। गुरूनानक जी ईश्वरीय प्रेरणा के माध्यम से गहन चिन्तन करते हुए इन समस्याओं के निदान हेतु उपायों एवं समाज को सशक्त करने के लिए तत्पर रहते थे।

इन्हीं विचारों को समाज में ढालने के लिए उन्होंने ईश्वरीय सत्ता के प्रति आस्था एवं धर्मपारायणता का संदेश प्रसारित करने का ध्वज उठाकर जनजागृति एवं समाज सशक्तिकरण के लिए चल पड़े। इसके लिए सर्वप्रथम उन्होंने जातिगत भेदभावों को दूर करने एवं धर्म शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन का अभियान व्यापक स्तर पर शुभारंभ किया। उनके इस विचार के पीछे निश्चित ही भारत के आध्यात्मिक उत्कर्ष व स्वत्व बोध की दूरदृष्टि रही होगी, जिससे सुप्त समाज पुनः जागृत होकर अपनी आत्मशक्ति को पहचाने और सशक्त होकर अत्याचार का प्रतिकार और दमन कर सके।

गुरूनानक जी की धर्मपरायणता व आत्मबोध को जागृत करने के पीछे कुछ दृष्टि ऐसी ही रही होगी कि 'यदि भारतीय सनातन संस्कृति को अक्षुण्ण रखना है तो समाज को सशक्त करना होगा। इसके लिए सामाजिक भेदभावों को दूर करते हुए समाज की उन्नति एवं संगठन हेतु वैचारिक तौर पर सम्पूर्ण सनातन हिन्दू समाज को दृढ़ता प्रदान करने के कार्य करने होंगे, क्योंकि वैचारिक अनुष्ठान के बिना संगठित होने का भाव अपनी उत्कृष्टता को प्राप्त नहीं कर पाएगा।

गुरूनानक देव ने समाज को अपने दूरदर्शी दृष्टिकोण एवं भविष्यदृष्टा की तरह देखा और उसके हिसाब से सरलतम तौर-तरीकों के माध्यम से अलख जगाने का कार्य किया। वे एक सन्त महात्मा तो थे ही इसके साथ ही स्पष्ट वक्ता, कवि एवं अपनी मधुर वाणी के द्वारा समाज को प्रेरित करते रहते थे। सामाजिक एकसूत्रता के उदाहरण तौर पर मुखवाणी 'जपुजी साहिब' में कहते हैं,

नीचा अंदर नीच जात, नीची हूं अतिनीच
नानक तिनके संगी साथ, वडियां सिऊ कियां रीस

अर्थात् नीच जाति में भी जो सबसे ज्यादा नीच है, नानक उसके साथ है, बड़े लोगों के साथ मेरा क्या काम।
गुरूनानक देव जी ने समाज की दु:खती नस को पकड़कर उसका उपचार करने का कार्य अपने उपदेशों, रचनाकर्म एवं सामाजिक कार्यों के माध्यम से किया है। उन्होंने लंगर की अनूठी व्यवस्था की शुरुआत कर ‘एक संगत-एक पंगत’ के द्वारा सामाजिक सद्भाव एवं बराबरी का बुनियादी ढांचा तैयार किया जो कि सामाजिक ऐक्यता का आधार बिन्दु बना।

उन्होंने अपनी धार्मिक यात्राओं के माध्यम से विभिन्न धर्मों के संत-महात्माओं से विचार-विमर्श एवं धार्मिक स्थलों का भ्रमण कर सभी में एकता के बिन्दु अर्थात् 'ईश्वर की आराधना' की एकरूपता को सिध्द किया। गुरूनानक देव का इन यात्राओं के पीछे स्पष्ट दृष्टिकोण यही था कि अधिक से अधिक लोगों से मिलना-जुलना, उनकी समस्याओं को सुनना एवं सामाजिक एकता को स्थापित करना जो कि परस्पर भावनात्मक जुड़ाव एवं वैचारिक बोध के माध्यम से ही संभव हो सकती थी। उनकी धार्मिक यात्राओं में एक मुस्लिम सहभागी मर्दाना बना जो एकेश्वरवाद की खोज में उनके साथ अपने अंतिम समय तक साथ चलता रहा।

गुरूनानक देव ने मूर्ति -पूजा, तंत्र-टोटके एवं तत्कालीन समय में व्याप्त बुराइयों का पुरजोर विरोध करते हुए समाधानमूलक नई दिशा दी, जिससे समाज में नवचेतना का सूत्रपात हुआ। उन्होंने विभिन्न संस्कृतियों की अच्छाइयों को ग्रहण कर अपने संदेशों के माध्यम से आध्यात्मिक -सामाजिक-राजनैतिक उपदेशों के द्वारा कार्यान्वयन की परम्परा को आधार देकर समरसता को भारतीय सीमाओं तक ही नहीं बल्कि मुस्लिम पवित्र तीर्थों मक्का एवं बगदाद तक अपनी यात्राओं के माध्यम से प्रसारित किया। उनके विषय में एक कहानी प्रसिद्ध है जब मक्का में काबा की तरफ पैर कर लेटने पर मुस्लिमों ने उनसे नाराजगी व्यक्त की, तो उन्होंने कहा जिधर काबा न हो उस ओर पैर कर दो। वह  नानक जी के जिधर पैर करता, उसे उसी ओर काबा दिखने लगता। अन्ततोगत्वा जब वहां लोग परेशान हो गए तो गुरुनानक देव न उसे ईश्वर के सर्वव्यापी होने का मर्म समझाया।

इस्लामिक आक्रान्ताओं की क्रूरता एवं पाशविकता के कारण जो भारतीय समाज धर्मांतरित हो गया था। नानक देव को यह टीस सदैव चोटिल करती रहती थी। अतएव गुरूनानक देव ने इस बात को ध्यान में रखते हुए जोर डाला कि- 'भारतीय धर्मांतरित समाज' को अपनी संस्कृति की जड़ों से जुड़े रहना चाहिए एवं अपने मूल की ओर चिन्तन कर वापस लौटने के यत्न- प्रयत्न करने चाहिए’ 

अर्थात् जो लोग आक्रान्ताओं के कारण इस्लाम में धर्मान्तरित हो गए थे,वे पुनः अपने मूल सनातन हिन्दू समाज में वापसी कर अपने जीवन को सफल बनाएं।

इस्लामिक लुटेरों द्वारा जब भारत के विभिन्न केन्द्रों की सत्ता में कब्जा कर लिया गया तो वे सत्तासीन ही नहीं हुए बल्कि धर्मान्ध होकर भारत की संस्कृति, आस्था केन्द्रों, परम्पराओं व इस्लाम के अलावा सभी को 'काफिर' मानते थे। ऐसी स्थिति में हिन्दू समाज को हेय मानने व सभी में इस्लामिक प्रभुत्व के लिए बलात् धर्मान्तरण की त्रासदी के लिए करोड़ों हिन्दुओं के रक्त से अपनी तलवारों को नहला दिया।

जब इस्लाम के लिए छल- बल, दण्ड इत्यादि की अति हो रही थी उस समय भी गुरूनानक देव ने निर्भय होकर धार्मिक कट्टरपंथी इस्लामी आक्रान्ताओं के मुंह पर तमाचा मारते हुए कहा था कि ‘कोई हिन्दू या कोई मुसलमान नहीं बल्कि सभी भगवान की सृष्टि में उसके द्वारा सर्जित प्राणी हैं’

इस संदेश में ही आप गौर करिए तो इसमें गूढ़ार्थ यह छिपा हुआ था कि जबरन धर्मांतरण की कुटिलता में रोक लगे एवं सनातन हिन्दू समाज को उसकी संस्कृति से मृत्यु का भय दिखाकर अलग न करें। इस सृष्टि में रक्तपात का भय दिखाकर इस्लामिक प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास न करें। सभी ईश्वर की ही उत्पत्ति हैं।

गुरूनानक देव वास्तव में एक महान ईश्वरीय शिल्पी थे जिन्होंने हिन्दू समाज को अपनी संस्कृति से जुड़े रहने के लिए सिख पंथ की बुनियाद रची। वर्तमान में भले ही सिख पंथ एक अलग धार्मिक मान्यता को प्राप्त कर लिया हो किन्तु यह धर्म गुरूनानक देव जी के आदर्शों की बुनियाद में अब सनातन हिन्दू संस्कृति की विराटता में रचा बसा हुआ है।

सेमेटिक मजहबों के अलावा भारतीय संस्कृति से उत्पन्न पन्थों की उपासना पध्दति में भले अन्तर दिखता है,लेकिन उनके मूल में शाश्वत सनातन हिन्दू संस्कृति के आदर्श ही अविरल प्रवाहित हो रहे हैं।

साथ ही आधुनिक समय में संवैधानिक तौर पर भले ही अलग धार्मिक मान्यता प्राप्त हुई हो,लेकिन चाहे सिख पंथ हो, जैन या बौध्द पंथ हों; इनके प्रवर्तकों या संस्थापकों ने कभी भी इस बात की उद्घघोषणा नहीं की कि हम किसी अलग धर्म की स्थापना कर रहे हैं। इनका संगठन ठीक ऐसे हुआ था जैसे वैष्णव, शाक्त, शैव इत्यादि सम्प्रदायों की उपासना प्रणाली का। वर्तमान समय में जब राष्ट्र को खण्डित करने के उद्देश्य से प्रायः इन पन्थों को संवैधानिक तौर पर अलग धर्म की मान्यता प्राप्त होने के कारण;  इन्हें सनातन हिन्दू धर्म व संस्कृति से अलग बतलाने व सिध्द करने के षड्यन्त्र किए जाते हैं।

ऐसे में समाज को गुरुनानक देव, दशम् गुरुओं, ऋषभदेव व महात्मा बुद्ध के मूल दर्शन की ओर लौटकर सत्य का सन्धान करते हुए षड्यन्त्रों का प्रतिकार करने की दिशा में कदम बढ़ाने चाहिए। क्योंकि इनकी स्थापना ही सामञ्जस्य- समन्वय व संगठित कर भारत की आध्यात्मिकता एवं मानव कल्याण के उत्थान के लिए ही हुई थी। और ऐसे में गुरुनानक देव का दर्शन शाश्वत सन्देश लिए हुए पथ प्रशस्त करता है।

इस परिपाटी को आगे के क्रम में दशम् गुरूओं ने शस्त्र-शास्त्र एवं दर्शन के माध्यम से प्रसारित कर भारतीय समाज को आन्तरिक एवं बाह्य शक्ति से समर्थ बनाया। गुरूनानक देव जी का जीवन दर्शन उनके धार्मिक एवं सामाजिक सुधार,कर्तव्यपरायणता, मानव मात्र के प्रति प्रेम, सद्भाव, समरसता, ईश्वर के प्रति आस्था सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के लिए अमूल्य निधि है। वे सदा ही अपनी दिव्यता, सामञ्जस्य की रसधार से आप्लावित कर विभिन्न आडम्बरों से मुक्ति दिलाने एवं ईश्वरीय चेतना के प्रसार के लिए भगवान के स्वरूप, महान सन्त एवं समाज उन्नायक के तौर पर सर्वदा वन्दनीय पूज्यनीय एवं अनुकरणीय रहेंगे।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)
ये भी पढ़ें
Milkha singh Birth Anniversary : फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह के बारे में 10 प्रमुख जानकारियां