मैंने सुना तो आंखों और कानों पर विश्वास नहीं हुआ। आश्चर्य भी हुआ, कोई औरत इतनी बेबाकी, ईमानदारी और साहस के साथ एक अलग ही विचारधारा को बता रही थी। उनकी बात सुनकर एक पूरी तरह राजनीतिक विचार मन में घिर आया, जैसे पहले दलितों पर हुए अत्याचार का बदला अब सवर्णों से लिया जा रहा है और इस विषय पर कुछ बोलना आग में हाथ जलाने जैसा है, ठीक वही स्तिथि नारिविमर्श की हो गई है।
सिर्फ औरतों के पक्ष में बोलिए, सारे पुरुषों को दोषी ठहराओ ,सिर्फ बेटी को अच्छा बताओ बेटों की बखिया उधेड़ो। अवसर था एक समाज सेवी संस्था "परिवार" द्वारा आयोजित परिचर्चा में भाग लेने का। जैसी कि उम्मीद थी, परिचर्चा में खूब रिश्तों को, खासकर बेटों को लानत मलामत भेजी जाएगी, सो वही हुआ।
कई किस्से तो सचमुच दुखी कर देने वाले थे, जिसमें बेटे-बहुओं ने रिश्तों को तार-तार कर दिया था, तो कहीं बेटी दामाद ने भी जमीन जायदाद के लिए भाई-भोजाई और माता पिता का जीना हराम कर दिया था, जायज हक लेने के बाद भी। कहीं भाई-भोजाई दोषी थे, तो कहीं ननद नंदोई, कहीं सास ससुर, तो कहीं देवर-देवरानी या जेठ-जेठानी। मैं सभी के विचार सुन रही थी। परिचर्चा अपने चरम पर थी और हर उम्र के महिला पुरुष इस बात पर सहमत नजर आए, कि बेटे तो सारे नालायक हैं और सारी बेटियां सयानी। गोया कि चर्चा का रुख तो कुछ इस कदर एक तरफा हो गया, कि अगर उनका बस चलता तो वे इस दुनिया से बेटे नाम का जीव ही लुप्त कर देते। लेकिन तभी एक बहुत जोर की आवाज हम सभी को सुनाई दी -"बंद कीजिए अपने किए अपराधों के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराना"।
सबने यकायक चौंककर देखा तो एक 60--65 साल की सभ्रांत महिला मंच पर आ चुकी थी और अपनी रौबदार आवाज में सबको डपट चुकी थी ।
मेरी तरफ मुखातिब हो कहने लगी, मैं कुछ कहना चाहती हूं। मैंने कहा "अवश्य "। तो वे कहने लगी " बहनों शायद आप सभी मेरी बात से सहमत न हों , लेकिन आप सब के विचार सुन मैं बड़ी दुखी हुई, एकतरफा सोच, सारा दोष एक के ही मत्थे। मैं आप सब से केवल एक प्रश्न पूछना चाहती हूं कि- "कोई एक उदाहरण बता दीजिए कि किसी कुंवारे लडके ने अपने माता-पिता को छोड़ा हो या उन्हें वृद्धाश्रम का दरवाजा दिखाया हो, फिर क्या कारण है कि शादी के बाद ही ऐसी स्थिति आ जाती है कि उसे ऐसे निर्णय लेने पड़ते है।
"कई बुजुर्ग महिलाओं ने अपना तमतमाया जवाब तैयार रखा था, लेकिन उस सभ्रांत महिला ने कहा -" नहीं-नहीं बहनजी मैं कोई एक तरफा सोच लेकर नहीं जीती, मैं केवल सास को या केवल बहु को दोषी नहीं ठहराऊंगी। मैं तो समस्या की जड़ पर बात करूंगी, मैं तो आपसे दिल पर हाथ रखकर एक बात पूछना चाहती हूं कि क्या हो जाता है शादी के बाद ? थोड़ा रुक कर बोलीं -- "चलिए जवाब मैं देती हूं। शादी के बाद औरत कभी सास के रूप में, कभी बहु के रूप में, कभी ननद के रूप में, कभी पत्नी के रूप में ऐसी परिस्थिति पैदा कर देती है कि एक साथ रहना दूभर हो जाता है और ठीकरा फूटता है पुरुष के सर।" आप सब कहते है बेटियां अच्छी होती हैं, मैं भी यही कहती हूं कि बेटियां तो सभी अच्छी ही होती हैं, लेकिन क्या वही बेटियां अच्छी सास, अच्छी बहू, अच्छी पत्नी भी होती हैं"। पुरे हॉल में अजीब सी चुप्पी छा गई थी किसी के पास उनके सवालों के जवाब नहीं थे।
उन्होंने एक गहरी सांस ले कर बोलना शुरू किया- " मैं इस संस्था की कार्यकर्ता हूं। मैं भी अपने बेटे बहु से बहुत नाराज थी। मैं मनोविज्ञान की प्राध्यापक रही हूं, लेकिन यह कहां लिखा है कि मनोविज्ञान पढ़ाने वाला मन पढ़ना भी जाने। लेकिन यहां रह मैंने मन पढ़ना भी सीख लिया, लोगों को समझना भी सीख लिया और अपने आप को समझ भी लिया। मेरे बेटे-बहु दोनों बहुत अच्छे और संस्कारी थे, लेकिन मेरी उनसे अपेक्षाएं इतनी अधिक थी कि वे जो भी करते मुझे कम ही लगता । बेटी भी है मेरी। और आप सबकी तरह बेटे से अधिक प्यार करती थी मैं उसे। रोज फोन करती, तो लगता कितना ध्यान रखती है मेरा। वहीं मेरी बहु दिन रात साथ में रह मेरी सेवा करती तो भी उसके हर काम में मीन मेख निकालना मेरा अधिकार था, सास जो ठहरी" वे हंसते हुए बोली। बेटे का तबादला हुआ तो जाने से साफ मना कर दिया। और वे चले गए तो मैंने यहां समय बिताना शुरू किया।
जब सबसे बात की तो पाया कि परिवार टूटने के मूल में है महिलाओं का आपसी सामंजस्य का अभाव, घर की महिला का खराब स्वभाव और रिश्तों में अत्यधिक अपेक्षाएं। क्या मैं गलत कह रही हूं? महिलाओं में जितने क्लेश होते है वैसे पुरुषों में नहीं होते। यहां रहने वाली हर महिला से जब मैंने बात की तो सब यही कहती पाई गई, कि मेरा बेटा तो संस्कारी है, लेकिन बहु ..., बहु को यह कहते पाया कि ससुरजी तो बहुत अच्छे हैं लेकिन सास...। वैसे ही नंदोई, देवर जेठ तो स्नेही थे लेकिन क्रमंश: ननद, देवरानी या जेठानी कलह की साक्षात प्रतिमा। कहीं-कहीं तो घर टूटने का कारण बहु की माताजी भी रहीं। अब पढ़ी लिखी समझदार तो मैं थी ही , और न्यायप्रिय भी, इतनी अकडू भी मैं नहीं कि सच को प्रत्यक्ष देखकर भी नकार दूं। तो अब आप मुझे बताएं कि इन सब अच्छी और संस्कारी बेटियों को ससुराल में क्या हो जाता है कि परिवार बिखर जाते हैं। "
ये श्रीमती शर्मा हैं। घर में इनका इतना दबदबा था कि बहु अपने हाथ से चाय बना कर भी नहीं पी सकती थी इनकी इजाजत के बिना। और समय पर चाय न मिले तो तूफान खड़ा कर देतीं, लेकिन यहां हर नियम के तहत चलती है तो क्या थोड़ा सामंजस्य घर में नहीं बना सकती थी? यह बहुरानी सविता यहां तो समाज सेवा के नाम पर हर काम में आगे लेकिन घर का काम और सास ससुर का साथ बंधन लगता था। पति को बच्चों को छोड़ यहां रह रही है, कहती है जब तक अलग नहीं होंगे घर नहीं जाऊंगी। सविता की तरफ देख बोली "बेटा cherity begins at home, जो घर के लोगों की सेवा नहीं कर सकता वह समाज की क्या सेवा करेगा"। यह नीतू मायके के प्रति पूर्ण समर्पित पर ससुराल के नाम पर बिच्छु काट लेता हो इसे, दुनिया की सबसे अच्छी जगह इसका मायका और सबसे बुरी जगह इसका ससुराल "। यह प्रीती जो यहां महिला अधिकारों की जोरदार बात कर रही है, अपने भाई-भोजाई और माता-पिता का जीना हराम किये है। खुद बहुत अमीर है , पर गरीब भाई से हिस्सा लेने के बाद भी कलह का कारण है। यह श्रीमती दीक्षित हैं, बहु-बेटे पर पूरा कंट्रोल, पर अपनी बड़ी बेटी को ससुराल से अलग होने के तरीके सिखाती रहतीं है, और छोटी बेटी के लिए सास, ननद न हो ऐसा घर ढूंढ रही हैं। कहती है झंझट वाला घर नहीं चाहिए। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी"।
वे एक-एक कर सबको आईने दिखाती जा रहीं थी और अपने इस कुरूप प्रतिबिंब को देख वहां सजी संवरी, अधिकार संपन्न अपने वाक् चातुर्य का लोहा मनवा चुकी नारी शक्ति बगले झांक रही थीं। जो मुखौटे उन्होंने लगा रखे थे,वे उनका साथ छोड़ रहे थे। वे फिर बोली- "हिंसा का, दहेज जैसी बुराई का भ्रूण ह्त्या का, घरेलू हिंसा का खुल कर विरोध करो, लेकिन परिवार को तोड़ो मत। मिलकर बुराई का विरोध करो, लेकिन सारे पुरुष,सारे बेटे,सारे भाई कैसे बुरे हो सकते है”?
अपने स्त्री होने का गलत फायदा उठाना बंद करो और अपने आंसुओं को हथियार मत बनाओ। ईमानदारी से विरोध करो, पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर केवल पुरुष मात्र का नहीं। एक औरत जो मानसिक हिंसा करती है, उसका विरोध करने का साहस भी रखो।
पानी पी कर बोली "बहनों मैं आप सबसे सहमत हूं, औरत बहुत ताकतवर होती है। वह घर तो क्या दुनिया को भी स्वर्ग बना सकती है, लेकिन यह भी सच है जो घर नरक बने हैं उसकी जड़ में भी किसी न किसी अच्छी बेटी की जिद या अहंकार ही रहा है। "मैंने देखा कई की आंख से ग्लानि और पश्चाताप के आंसू गिर रहे थे, इन आंंसुओं ने कितनों के पूर्वाग्रह को धोया, यह मैं नहीं जानती, लेकिन यह एक कड़वा सच था, जो कई की आंखें खोलने वाला था।