मनुष्य अपने विचारों को अपना मौलिक गुण मानता है। मानवीय सभ्यता का विस्तार मनुष्य के अंतहीन विचार प्रवाहों से हुआ, ऐसा माना जा सकता है। हालांकि इस मान लेने पर भी सब सहमत हो, यह जरूरी नहीं। फिर भी विचारों का जो सहज प्रवाह है वह सहमति, असहमति या सर्वसम्मति का इंतजार नहीं करता। वह सनातन स्वरूप में प्रवाहमान ही रहता है।
विचारों का सनातन प्रवाह ही हमें नित नए विचारों से निरंतर साक्षात्कार करवाते रहता है। इसी से विचार के इस प्राकृत स्वरूप को कोई व्यक्ति, समूह, संगठन, समाज, राज या कोई अन्य साकार-निराकार शक्ति न तो बांध पाई है, न खत्म कर सकती है।
मनुष्य डर सकता है, झुक सकता है, कारागार में बंद हो सकता है, बिक सकता है, निस्तेज हो सकता है, यह हर मनुष्य की व्यक्तिगत वैचारिक क्षमता और प्रतिबद्धता पर निर्भर है। पर विचार सूर्य की ऊर्जा से भी एक कदम आगे है। विचार अंधेरे में भी मनुष्य को रास्ता दिखाता है।
जन्म से नेत्रहीन मनुष्य को प्रकाश की अनुभूति या प्रत्यक्ष संकल्पना नहीं होती है। पर विचार मन की आंखों की तरह है, जो नेत्र न होने पर देखना और ज्ञान न होने पर ज्ञान से साक्षात्कार करवाकर अज्ञानी को ज्ञानवान और अविचारी को भी विचार के प्रवाह से सरोबार बिना बताए सतत करता ही रहता है। मनुष्य अपनी व्यक्तिगत या सामूहिक सोच-समझ के आधार पर विचार के किसी अंश का समर्थक या विरोधी हो सकता है, पर विचार के अस्तित्व को नष्ट नहीं किया जा सकता है।
विचार मूलत: केवल प्राकृत विचार ही है, पर मनुष्य ने विचारों में रूप-रंग और भांति-भांति के भेद और मेरे-तेरे का भाव और न जाने कितने तरह के मत-मतांतर को जन्म दे दिया है। इस तरह मनुष्य ने विचारों को अपने तक, अपने वैचारिक सहमना समूह, संगठन, समाज, धर्म, दर्शन, आस्था-संस्कार, संस्कृति के दायरे में बांधने की निरंतर कोशिश की, जो आज भी जारी है।
इस तरह विचार को व्यक्ति अपनी संपत्ति की तरह मानने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि मुक्त विचार हवा-प्रकाश की तरह सर्वव्यापी स्वरूप में न रह मनुष्य के मन में संपत्ति भाव के स्वरूप में विकसित होने लगा और मनुष्यों के मन-मस्तिष्क में विचारों के वर्चस्व का विस्तार होने लगा। इस तरह से मनुष्यता विचारों को लेकर सहज न रहकर नित नए मत-मतांतरों में बंटने लगी।
आज स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि विचारों के आधार पर हम सब व्यापक होने के बजाय निरंतर सिकुड़ रहे हैं। अब हम विचारों को सर्वकालिक समाधान के विस्तार के बजाय संगठन, समुदाय, पक्ष, धर्म, दर्शन, सरकार, देश, विचारधारा के एक विचार के रूप में गोलबंद करके आपस में एक-दूसरे से समझपूर्ण सहज संवाद करने तथा सीखते रहने के बजाय नित नए विवादों को जन्म देने लगे हैं। विचार एक-दूसरे को मूलत: समझने, समझाने का अंतहीन सिलसिला है जिसने मानव सभ्यता, संस्कृति और सामूहिकता की समझ का निरंतर विस्तार किया।
मनुष्य के मन में विचार को कब्जे में कर अपना निजी विस्तार करने की भौतिक लालसाएं बढ़ने लगीं तो सारा परिदृश्य ही बदलने लगा। गाली और गोली के रूप में मनुष्य ने दो हथियारों को अपने जीवन-व्यवहार में विचार पर कब्जा करने के लिए खोजा। गाली और गोली की खोज एक तरह से मनुष्यता में विचार के स्वाभाविक विस्तार की सीधे-सीधे हार है। वैसे देखा जाए तो गाली भी मनुष्य का एक तरह का विचार ही है।
शायद शब्द को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के विचार ने ही गाली को जन्म दिया हो, पर गाली का जन्म एक तरह से विचार की हार ही है। विचार संवाद और सभ्यता के विस्तार का साधन है। गाली की उत्पत्ति ने विवाद और असभ्यता का विस्तार किया है। गाली, गोली से ज्यादा मारक है। गोली से मनुष्य विशेष घायल होता या मरता है, पर गाली से विचार सभ्यता ही हार जाती है।
विचार की ताकत अनंत है, क्योंकि विचार मानवीय शक्तियों का विस्तार करता है, निर्भयता को मन में प्रतिष्ठित करता है। निर्भयता का विचार अनंत से एकाकार होने का मार्ग है। इसी से निर्भय मनुष्य न गाली से डरता है, न गोली से। कानून ने भी गाली को लेकर व्यवस्था बनाई कि गाली यदि सुनने वाले को बुरी लगे तो वह अपराध की श्रेणी में आएगी। यदि कोई निरंतर गाली देता है तो लोग उसे अनसुना करना ही समाधान मानते हैं।
अपने आप में भयभीत या विचार की ताकत से डरा मनुष्य ही गाली या गोली का प्रयोग अपने लोभ-लालच की पूर्ति के लिए करता है। आज तक की दुनिया में न तो गाली से कोई समाधान हुआ है और न ही गोली से। इसके बाद भी विचार की तेजस्विता से भयभीत लोग दिन-रात गाली और गोली को ही समाधान समझते हैं। पर विचार है कि वह गाली और गोली से न तो घबराता है, न ही उन्हें समूल नष्ट करने का विचार लाता है। बस, गाली और गोली का प्रयोग ही नहीं करता, यही विचार की जीवनी शक्ति है, जो विचार को कायम रखती है।
महात्मा गांधी के विचार को गोली नहीं मार पाई और गाली भी सत्य, अहिंसा और अभय के विस्तार को रोकने में समर्थ नहीं है। जिन्होंने गांधी को मात्र शरीर समझा, विचार नहीं, वे गोली से विचार को मारने की भूल कर बैठे। गोली मारने के 7 दशक बाद भी दिन-रात गांधी के विचार को गाली देकर गोली और गाली दोनों की क्षणभंगुरता को ही पुष्ट कर रहे हैं। सुकरात और ईसा के साथ विचारों से भयभीत राज और समाज ने विचार को शरीर मानने की भूल की।
गाली और गोली मनुष्य की विचार शक्ति की हार है। वैसे विचार जय-पराजय से परे है, पर मनुष्य लोभ-लालच और नफरत के अनंत चक्र में विचार की ताकत को समझे बिना अपनी ताकत का विस्तार करने के लिए जीवनभर गाली और गोली के भंवर में भटकता रहता है कि मैं यह पा लूंगा, वह हासिल कर लूंगा।
भारत की विचार परंपरा में आदिशंकराचार्य ने निरंतर विचार को देशभर में भ्रमण कर समझाने का कार्य कर भारत के विचार को लोकमानस में जीवंत किया। संत विनोबा का कहना था कि आपने मुझे गाली दी और मैंने आपकी गाली ले ली तो गाली सफल हो गई, पर आपकी गाली मैंने ली ही नहीं तो आपकी गाली असफल हो गई। निर्भयता का मूल यही है कि गाली देने वाले की गाली को लेना ही नहीं है। इसी में मनुष्य और विचार दोनों की अमरता है।