गांधी तो अभी भी प्लेटफ़ॉर्म पर ही हैं, उनका केवल देश बदला है!
अमेरिकी राष्ट्रपति के निवास स्थान ‘व्हाइट हाउस’ के सामने की एक सड़क का नाम बदलकर ‘Black Lives Matter' (अश्वेतों का जीवन मायने रखता है) कर दिया गया है। पांच जून को दिन के उजाले में बड़े-बड़े शब्दों में समूची चौड़ी सड़क (16th Street) को इन शब्दों से पीले रंग से ढक दिया गया। नाम में कहीं भी अंग्रेज़ी के ‘Also’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। व्हाइट हाउस की आंखों से आंखें मिलाते हुए ऐसा करने का साहस वाशिंगटन डी.सी. की महापौर (मेयर) मरेल इ. बौसर ने दिखाया है।
दुनिया भर की सत्ताओं को अपनी अंगुलियों पर नचाने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति अपने ही शहर और देश की राजधानी की महापौर के इस साहसिक कदम को रोक नहीं पाए। उनका क़ाफ़िला अब जितनी भी बार इस सड़क से गुजरेगा जॉर्ज फ़्लायड नामक एक साधारण से अश्वेत नागरिक की एक गोरे पुलिसकर्मी के घुटने के नीचे हुई मौत का दृश्य टकराता रहेगा। शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को सड़कों से खदेड़ने के लिए राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड का इस्तेमाल करने का फैसला ले लिया है पर सड़क पर लिखा हुआ नाम अब हमेशा क़ायम रहने वाला है।
क्या भारत में ऐसा संभव है या कभी हो सकेगा कि राष्ट्रपति भवन या प्रधानमंत्री आवास के आसपास या कहीं दूर से भी गुजरने वाली सड़क को करोड़ों प्रवासी मज़दूरों के जीवन के नाम पर कर दिया जाए? नज़र नहीं आने वाले अत्यंत ही बारीक अक्षरों में लिख दिया जाए कि: 'मज़दूरों की ज़िंदगी मायने रखती है'। ऐसा न तो ‘मुमकिन’ है और न ही कोई ऐसी मांग भी करेगा। प्रवासी मज़दूरों की व्यथा को ऊंची आवाज़ में उठाने वाले राहुल गांधी भी नहीं जिनके कि पिता, दादी और नाना के नामों से देश भर की इमारतें, संस्थान और चौराहे पटे पड़े हैं। और फिर ‘न्यू इंडिया’ में तो इस समय केवल नामों को ही बदलने का उपक्रम चल रहा है!
देश की सर्वोच्च अदालत के समक्ष दिल्ली के एक नागरिक की याचिका प्रस्तुत की गई थी कि अंग्रेज़ी में भी देश का नाम ‘India’ के बजाय ‘Bharat’ या ‘Hindustan’ होना चाहिए। याचिका बाद में ख़ारिज हो गई। प्रधानमंत्री की तो ढेर सारी योजनाओं और परिकल्पनाओं के नाम ही अंग्रेज़ी भाषा में हैं। हम शहरों, सड़कों, संस्थानों और इमारतों के नाम बदलने में लगे हुए हैं; पुराने इतिहास में संशोधन कर रहे हैं और दुनिया के दूसरे देश और उनके नागरिक नया इतिहास रचने में जुटे हैं। नामों को तो वे भी बदल रहे हैं पर उनकी इबारत पीड़ा और आंसुओं से तराशी जा रही है, धर्म और राजनीति से नहीं।
कोई साढ़े चार सौ साल पहले अंग्रेज़ी के महान कवि और नाटककार विलियम शैक्सपियर ने कहा था कि: 'नाम में क्या रखा है!’ अमेरिका के सैकड़ों शहरों और दुनियाभर की राजधानियों में इस समय जो कुछ भी चल रहा है उससे साबित हो रहा है कि नाम में बहुत कुछ रखा है। नाम फिर चाहे (तब) अज्ञात मोहनदास करमचंद गांधी का हो जिसे सवा सौ साल पहले अश्वेत होने के कारण दक्षिण अफ़्रीका के एक स्टेशन (पीटरमारित्ज़बर्ग) के प्लेटफ़ॉर्म पर रेल के डिब्बे से धक्के मारकर उतार दिया गया था या फिर साधारण अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ़्लॉयड का हो जिसे अमेरिकी शहर मिनियापोलिस में 25 मई को दिन दहाड़े मार दिया गया था।
दक्षिण अफ़्रीका की घटना भी नस्लवाद से प्रेरित थी और अमेरिका की घटना भी। गांधी को धक्के देकर रेल के डिब्बे से निकलने के कोई सौ साल बाद 1994 में दक्षिण अफ़्रीका को तो रंगभेद की नीति से आज़ादी मिल गई पर अमेरिकी अश्वेत दो सौ सालों के बाद भी समान नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष में लगे हैं। हमारे यहां ‘निर्जीव’ चीजों के नाम बदले जा रहे हैं और समान नागरिक अधिकारों की मांग करने वाली ‘सजीव’ आत्माओं को देशद्रोही करार दिया जा रहा है।
वाशिंगटन में हाल ही में कुछ ‘अज्ञात’ शरारती तत्वों ने भारतीय दूतावास के सामने स्थापित गांधीजी की प्रतिमा को क्षतिग्रस्त कर दिया था। घटना दो जून की रात की है। भारतीय दूतावास ने अमेरिकी विदेश विभाग और अन्य स्थानीय एजेंसियों के पास शिकायत दर्ज करा दी है और जांच भी चल रही है।
नई दिल्ली स्थित अमेरिकी राजदूत केन जस्टर ने घटना के लिए क्षमा याचना भी की है। हमारे पास इस सवाल का क्या जवाब है कि देश में ही गांधी के विचारों और आस्थाओं की ‘ज्ञात’ क्षेत्रों के द्वारा रोज़ाना खुले आम हत्या क्यों हो रही है और दर्ज होने वाली शिकायतों पर क्या कार्रवाई की जा रही है? याद किया जा सकता है कि आज ही के दिन यानी सात जून 1893 को महात्मा गांधी को दक्षिण अफ़्रीका के एक रेल्वे स्टेशन पर धक्के देकर प्लेटफ़ॉर्म पर फेंका गया था। गांधी अभी भी प्लेटफ़ॉर्म पर ही हैं। देश बदल गए हैं। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)