चीनियों की चीनी कम-कूटनीति
व्यंग्य रचना
कहते हैं जितनी अक्ल बादाम खाने से नहीं आती, उससे ज्यादा धोखा खाने से आती है। हमने अपने सगे-संबंधियों से ज्यादा अपने पड़ोसियों का भरोसा किया है और पड़ोसियों ने भरोसे की भैंस को पानी में डुबोने में कोई कसर बाकी नहीं रख अपना पड़ोसी धर्म निभा दिया है। चाहे वह चीन हो या पाकिस्तान- हम हर बार धोखा खाते हैं। अब हमारी आदत-सी पड़ गई है। अब साल-दो साल में उनसे धोखा न खाएं तो हम कूटनीति-विदेश नीति की उपलब्धि क्या गिना पाएंगे? कुछ उपलब्धि पाने के लिए समस्याएं तो चाहिए ना! रोज-रोज सीमा की या सीमापार की खबरें न हों तो मीडिया क्या छापेगा? सीमा पर झड़पें न हों तो सैन्य-दस्तों और युद्ध के साजो-सामान को जंग लग जाएगी। जंग न लगे इसीलिए जंग लड़ना जरूरी है।जंग न लड़ना हो तो जंग का अभ्यास शांतिकाल में भी करते रहना चाहिए। यह आदिकाल से चाणक्य की नीति रही है। छुट-पुट झड़पों और सीमा पर झड़पों से अभ्यास होता रहता है। अभ्यास से हमारी शिथिलता का ह्रास और समझ-बूझ का विकास होता रहता है।तब भी हमारा समझ-बूझ से रिश्ता कम है। गरीब देश है। बादाम खाने-खर्चे का बोझ सहन नहीं कर सकते। जो पैसा देश का है वह नित्य प्रति के घोटालों में खर्च हो जाता है। नेताओं की फौज और उसके मेवों की मौज का मर्ज हमारे देश पर कर्ज बढ़ाता है, तो हमारा फर्ज बनता है कि हम बादाम खाकर अक्ल बढ़ाने से ज्यादा अक्ल पाने के लिए धोखा खाएं। बार-बार धोखा खाएं। अड़ोसी-पड़ोसी सबसे धोखा खाएं। चीन, पाकिस्तान ही क्यों, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल सभी से धोखे पर धोखा खाएं, आखिर अक्ल कभी तो आएगी। बुराई भी क्या है- कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। वस्तु-विनिमय का सिद्धांत यहां भी लागू होता है। इस हाथ ले- उस हाथ दे।
इधर धोखा खा-खाकर हमारा भाग्य भी इतना मजबूत हो गया है कि उस पर कोई असर नहीं होता। वह न तो सौभाग्य में बदलता है और न ही दुर्भाग्य में तब्दील होता है। हमें मालूम है कि हम विश्व की महाशक्ति बनने की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। हमारी सैन्य क्षमता विस्तार पा चुकी है। हम विश्व मंच पर गुट-निरपेक्ष आंदोलन के नेता हैं। हम विश्व के परमाणु संपन्न चुनिंदा देशों के क्लब के सदस्य हैं। विश्व की महाशक्तियों से हमारे बेहतर ताल्लुकात हैं।