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Written By DW
Last Updated : सोमवार, 22 फ़रवरी 2021 (16:58 IST)

'विकास' की बलि चढ़ रहे हैं उत्तराखंड के गांव

'विकास' की बलि चढ़ रहे हैं उत्तराखंड के गांव - Uttarakhand villages are sacrificing 'development'
रिपोर्ट : हृदयेश जोशी
 
उत्तराखंड के गांवों में लोगों को बरसात और भूकंप के वक्त अपने घरों पर बड़े-बड़े पत्थरों के गिरने और भूस्खलन का डर सताता है। हिमालय दुनिया के सबसे नए पहाड़ों में है। यह इलाका भूकंप के लिहाज से अतिसंवेदनशील श्रेणी में है।
 
उत्तराखंड के चमोली जिले में आई आपदा को 15 दिन हो चुके हैं लेकिन राहत कार्य अब तक पूरा नहीं हो पाया है। अब तक राहतकर्मी यहां 68 ही शव निकाल पाए हैं और करीब 150 लोग अब भी लापता हैं। इस आपदा के बाद आसपास के गांवों में काफी डर फैल गया है। इसे देखते हुए सरकार ने रैणी क्षेत्र में बनी झील की निगरानी के लिए एक 'क्विक डिप्लॉयेबल एंटेना सिस्टम' लगाया है ताकि उस स्थान से लाइव ऑडियो और वीडियो कॉल की जा सके और हालात की पूरी जानकारी रहे। सरकार का कहना है कि अभी राज्य आपदा प्रबंधन टीम (एसडीआरएफ) के साथ 10 वैज्ञानिक करीब 14,000 फीट की ऊंचाई पर बनी झील की निगरानी कर रहे हैं।
 
जलवायु परिवर्तन या मानव निर्मित आपदा?
 
विशेषज्ञ पिछली 7 फरवरी को आई आपदा के पीछे जलवायु परिवर्तन प्रभाव और विनाशकारी मौसमी घटनाओं (एक्सट्रीम वेदर ईवेंट्स) को वजह मान रहे हैं। लेकिन स्थानीय लोगों का कहना है कि बर्बादी की कहानी यहां चल रहे 'बेतरतीब निर्माण' और हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट्स की वजह से है जिसमें नियमों की लगातार अवहेलना की गई है। हाशिये पर पड़े इन ग्रामीणों का कहना है कि वे कई सालों से अपने गांवों को तबाह होते देख रहे हैं और लगातार एक डर में जी रहे हैं। जोशीमठ से कोई 15 किलोमीटर दूर बसा चाईं गांव बर्बादी की ऐसी ही कहानी कहता है।
 
हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट के लिए संवेदनशील हिमालयी पहाड़ों के भीतर कई सुरंगें बिछा दी गई हैं जिनसे बिजली बनाने के लिए नदियों का पानी गुजारा जाता है। लेकिन इन सुरंगों का आकार, संख्या और इन्हें बनाने का तरीका ग्रामीणों की फिक्र और गुस्से की वजह रहा है। खुशहाल सिंह चाईं गांव के पास बने 400 मेगावॉट के हाइड्रो प्रोजेक्ट का जिक्र करते हुए कहते हैं कि सुरंगें बनाने के लिए होने वाली ब्लास्टिंग ने यहां पूरे पहाड़ को हिलाकर रख दिया। 
 
उनके मुताबिक जब वो (कंपनी के लोग) ब्लास्टिंग करते थे, तो इतनी जोर का धमाका होता कि (पहाड़ों पर बने) हमारे मकान हिलते थे। हम शासन-प्रशासन से लड़े लेकिन हमारी अनुसनी की गई। हमने विरोध किया तो हमारा दमन किया गया। कंपनी पर मुकदमा हम लोगों को करना था लेकिन (विरोध करने पर) गांव वालों पर ही मुकदमा कर दिया गया।
 
उधर गांव वालों को बरसात और भूकंप के वक्त अपने घरों पर बड़े-बड़े पत्थरों के गिरने और भूस्खलन का डर भी सताता है। हिमालय दुनिया के सबसे नए पहाड़ों में है और उत्तराखंड का यह इलाका भूकंप के लिहाज से अतिसंवेदनशील श्रेणी में है। 62 साल की प्रेमादेवी को डर है कि 'खोखले हो चुके पहाड़ों में' अगर भूकंप आया तो उनका क्या होगा। प्रेमादेवी ने डीडब्लू को बताया कि रात को जब बरसात आती है तो हमको नींद नहीं आती। हमें लगता है कि हम अब मरे, तब मरे। पिछले साल 15 अगस्त को कितने बड़े-बड़े बोल्डर (गांव में) आए और हम मरते-मरते बचे।
 
वैज्ञानिकों की चेतावनी का असर नहीं
 
असल में लंबे समय से उत्तराखंड में हाइड्रो पॉवर बांधों और अब चारधाम सड़क मार्ग पर सवाल उठे हैं और यह मामला अदालत में भी गया है। साल 2013 में आई केदारनाथ आपदा, जिसमें 6,000 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी, के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक्सपर्ट कमेटी ने कहा कि आपदा को बढ़ाने में बड़े-बड़े बांधों का रोल था। साल 2015 में भूगर्भ विज्ञानी वाईपी सुंदरियाल समेत 7 जानकारों के शोध में साफ लिखा गया कि 'हिमालयी क्षेत्र और खासतौर से उत्तराखंड में मौजूदा विकास नीति और नदियों पर विराट जलविद्युत की क्षमता के दोहन का पुनर्मूल्यांकन की जरूरत है।'
 
रिपोर्ट के लेखकों में से एक भू-गर्भविज्ञानी नवीन जुयाल कहते हैं कि हमने बहुत साफ लिख दिया है कि कृपा करके ऊंचे हिमालयी क्षेत्र में कोई जलविद्युत परियोजना न बनाई जाए लेकिन हमारी बात की कौन परवाह करता है?'
 
पिछले साल प्रकाशित हुई एक दूसरी रिसर्च बताती है कि बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं के रिजरवॉयर जब भरते और खाली होते हैं तो रेत और गाद के मूवमेंट से पहाड़ी ढालों पर दरारें बनती हैं। रिसर्च के लेखकों में एक भूगर्भशास्त्री एसपी सती के मुताबिक, 'इस फिनॉमिना को ड्रॉ डाउन इफेक्ट कहा जाता है जिसके कारण बांध के ऊपर की ओर बहुत दूर तक ये दरारें पड़ती है। हमारे शोध में यह बात स्पष्ट रूप से कही गई है कि इससे ऊपरी इलाकों में बसावटों को खतरा है।
 
जलस्रोतों और कृषि-बागवानी का नुकसान
 
आज चमोली जिले के ही दर्जनों गांव दरक रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ता अतुल सती चाईं, रैणी, पैंग, लाता और तंगनी जैसे गांवों के नाम गिनाते हैं। अतुल कहते हैं कि ग्रामीण और सामाजिक कार्यकर्ता कई सालों तक विरोध करते रहे लेकिन इसके बावजूद पहाड़ों पर एक के बाद एक प्रोजेक्ट लगते रहे। इन गांवों से कई परिवारों को विस्थापित होना पड़ा है, क्योंकि वो खतरे की जद में हैं, पर बहुत से परिवार जाना चाहते हैं और उन्हें विस्थापित नहीं किया गया है।
 
दूसरी ओर इन गांवों की कृषि और बागवानी पर भी पिछले कुछ सालों में असर पड़ा है, क्योंकि जलस्रोत सूख रहे हैं। कभी अपने माल्टों और संतरों के लिए मशहूर चाईं आज बंजर और वीरान गांव दिखता है। चाईं गांव की यशोदादेवी कहती हैं कि अब यहां कुछ नहीं बचा है। इस गांव की सारी नमी चली गई। सारे खेत-पात सूख गए। पहले यहां कितने संतरे, नींबू, नारंगी और फल होते थे। जो कहीं नहीं होता था, वह हमारे चाईं गांव में होता था लेकिन अब यहां कुछ नहीं उगता।
 
जानकार पानी की समस्या के लिए पहाड़ों पर हो रही ब्लास्टिंग को भी जिम्मेदार बताते हैं। भू-गर्भविज्ञानी एसपी सती समझाते हैं कि पहाड़ों पर पानी का संचय उनकी 'सीडेन्ट्री पोरोसिटी' से होता है यानी पहाड़ों की चट्टानों के छिद्र या दरारें पानी को एकत्रित करने का काम करते हैं। सती के मुताबिक 'चट्टानों की दरारों से जो पानी इकट्ठा होता है वही पानी स्रोतों में आता है। अगर हम विस्फोट करते हैं तो इन दरारों का स्वरूप बदल जाता है। पहाड़ों पर रुका पानी नीचे चला जाता है और स्रोत सूख जाते हैं। पहाड़ के कई गांवों में यही हो रहा है।
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