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Written By DW
Last Updated : बुधवार, 6 मार्च 2024 (11:03 IST)

दुनिया में हर आठवां इंसान मोटापे की चपेट में

दुनिया में हर आठवां इंसान मोटापे की चपेट में - Every eighth person in the world is in the grip of obesity
-क्लेयर रोठ
 
विज्ञान पत्रिका 'दि लैंसेट' के नए आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में भुखमरी की समस्या खत्म करने की कोशिशों को काफी कामयाबी मिली है। इसके साथ ही एक अलग तरह के कुपोषण में विस्फोटक रूप से वृद्धि भी हो रही है। मोटापा एक महामारी के रूप में दुनिया को अपनी जद में लेता दिख रहा है। मेडिकल जर्नल 'दि लैंसेट' की एक हालिया रिपोर्ट इसी ओर इशारा कर रही है।
 
जर्नल के ताजा संस्करण में प्रकाशित एक नए विश्लेषण के अनुसार, साल 1990 के बाद से वैश्विक स्तर पर बच्चों में मोटापे की दर 4 गुना और वयस्कों में दो गुना तक बढ़ी है।
 
दुनिया में करीब 1 अरब लोग यानी वैश्विक जनसंख्या में प्रत्येक 8वां व्यक्ति मोटापे की चपेट में है। उनका बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) 30 से ऊपर है। बीएमआई, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का ऐसा पैमाना है जिसमें, 'लंबाई और वजन के अनुपात में वयस्कों में अधिक वजन और मोटापे का आकलन किया जाता है।' किसी व्यक्ति के किलोग्राम वजन को मीटर में उसकी लंबाई से विभाजित करके इसकी गणना जाती है।
 
डब्ल्यूएचओ के पोषण एवं खाद्य सुरक्षा विभाग के निदेशक फ्रांसेस्को ब्रैंका ने कहा कि इससे पहले संगठन का अनुमान था कि वैश्विक स्तर पर एक अरब लोग साल 2030 तक मोटापे की चपेट में आ सकते हैं, लेकिन यह स्तर तो 8 साल पहले 2022 में ही पहुंच गया। लैंसेट के नए अध्ययन के सह-लेखक और इंपीरियल कॉलेज लंदन के पब्लिक हेल्थ विभाग के प्रोफेसर माजिद एज्जाती ने कहा कि वह मोटापे की इतनी तेजी से बढ़ती दर से 'हैरान' रह गए।
 
आमतौर पर लोग सोचते हैं कि मोटापे की समस्या अमीर देशों में ज्यादा है, लेकिन ताजा अध्ययन अलग रुझान देता है। नए आंकड़े बताते हैं कि जहां तमाम अमीर देशों में मोटापा एक चरम या स्थिर बिंदु के करीब पहुंच गया है, वहीं कई निम्न एवं मध्यम देशों में यह कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है। मिस्र, इराक, लीबिया और दक्षिण अफ्रीका में जहां मोटापा तेजी से अपने पैर पसार रहा है, वहीं सीरिया, तुर्की और मेक्सिको भी बहुत पीछे नहीं हैं।
 
माजिद एज्जाती बताते हैं, 'पारंपरिक रूप से औद्योगीकरण वाले या अमीर देशों में अमेरिका को छोड़कर कोई अन्य देश मोटापे से सर्वाधिक प्रभावित देशों की सूची में नहीं है। इसमें मुख्य रूप से निम्न से लेकर मध्यम आय वाले देशों की ही भारी तादाद है।'
 
भुखमरी का घटता प्रकोप
 
नए आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि दुनिया भर में भुखमरी को घटाने के मोर्चे पर कुछ सफलता मिली है। भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या घट रही है। बीते 30 सालों के दौरान तय मानक से कम वजन वाले वयस्कों की संख्या घटकर आधी रह गई है। 18 वर्ष की आयु तक की लड़कियों में जहां इसका आंकड़ा 20 प्रतिशत तक, तो लड़कों में एक तिहाई तक घटा है।
 
अध्ययन के अनुसार इस रुझान के बावजूद कुछ देशों की स्थिति में सुधार देखने को नहीं मिला। इथियोपिया और युगांडा ऐसे देशों के उदाहरण हैं, जहां बमुश्किल ही यह स्थिति बदली है। दूसरी ओर भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान जैसे देशों में कम वजन वाले वयस्कों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई है।
 
पाकिस्तान में कुपोषण ने एक दूसरा मोर्चो खोल लिया है। यहां 1990 के बाद से जहां कम वजन वाले वयस्कों की संख्या 27 प्रतिशत से घटकर सात फीसद रह गई है, लेकिन इसी दौरान मोटापे के शिकार युवाओं का आंकड़ा तीन प्रतिशत से बढ़कर 24 फीसद हो गया है। मोटापे की यह दर किसी यूरोपीय संघ के देश से भी अधिक है। कई सब-सहारा अफ्रीकी देशों में, विशेषकर महिलाओं में इसी प्रकार का रुझान देखा गया। यहां कम वजन वाले वयस्कों की संख्या घटी, तो उस अनुपात में मोटापे की जद में आए वयस्कों का दायरा भी कहीं अधिक बढ़ा।
 
निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों में क्यों बढ़ रहा मोटापा?
 
ब्रैंका का कहना है कि कुछ कारणों के चलते मोटापा अमीर देशों के बजाय निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों में ज्यादा रफ्तार से बढ़ रहा है। वह इसके लिए खाद्य उत्पादन के कायाकल्प के साथ ही 'कुपोषण-सुपोषण सह-अस्तित्व' के अलावा सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियों के अभाव को जिम्मेदार मानते हैं।
 
हम इनमें से प्रत्येक पहलू के प्रभाव को इस प्रकार आंकते हैं: 
 
पहला, पिछले 30 वर्षों में मिस्र और मेक्सिको जैसे देशों में व्यापक स्तर पर औद्योगिकीकरण हुआ है। बैंक्रा ने बताया कि उनके खाद्य तंत्र का, विशेषकर शहरी मोर्चे पर भारी कायपलट हुआ है। वह कहते हैं, 'प्रसंस्कृत खाद्य और पेय पदार्थों के उपभोग में तेजी आई है। उनकी बिक्री की जगहें बढ़ी हैं और खाद्य उपभोग में यह परिवर्तन बेहतरी की ओर उन्मुख नहीं है।'
 
दूसरा, कुपोषण-सुपोषण सह-अस्तित्व के समीकरण के संबंध में ब्रैंका बताते हैं कि जो बच्चे जन्म के समय कमजोर होते हैं और बचपन में उन्हें पर्याप्त भोजन नहीं मिलता, उनके वयस्क होने पर वजन बढ़ने की आशंका अधिक होती है। सब-सहारा देशों में आए परिवर्तन को समझने में यह पहलू उपयोगी हो सकता है।
 
तीसरा कारण उन सरकारी नीतियों में निहित है, जिसमें स्वास्थ्य विभाग स्वस्थ खाद्य विकल्पों तक लोगों की पहुंच सुनिश्चित कराने में नाकाम रहते हैं। ब्रैंका के अनुसार अमीर देशों के मुकाबले तमाम निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों में उच्च वसा, चीनी और नमक वाले खाद्य उत्पादों की मार्केटिंग से जुड़े दबाव से निपटने के लिए या तो नीतियां होती नहीं और होती भी हैं तो बहुत कम। ब्रैंका का यह कहना है कि इस कहानी का यही सार है कि जहां अतीत में हम मोटापे को अमीरों की समस्या मानते थे, वह अब पूरे संसार की समस्या बन गई है।
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