रविवार, 22 दिसंबर 2024
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Written By Author रामसिंह शेखावत

अपने गुरु का हत्यारा अकबर 'महान'

अपने गुरु का हत्यारा अकबर 'महान' | History of akbar
हिन्दुस्तानी परंपरा में गुरु को ईश्वर के समकक्ष माना गया है। बैरम खां न सिर्फ अकबर का संरक्षक था, बल्कि उसका गुरु भी था और उसने मुगल साम्राज्य को भारत में फैलाने में अहम भूमिका निभाई थी। मगर उसका हश्र क्या हुआ? 'हत्यारा महान बन गया' की दूसरी कड़ी में जानते हैं किस तरह अकबर ने बैरम खां को मरवा दिया....
 
कर्मनासा और गंगा के संगम पर दोनों नदियों के बीच चौसा में हुमायूं मुगल छावनी डाले पड़ा था। सामने थी शेरशाह सूरी की फौजें। आमने-सामने पड़े कई महीने बीत गए, लेकिन युद्ध की पहली किसी ओर से नहीं हुई थी। संख्‍या में मुगल फौजें अधिक थीं। इधर शेरशाह सूरी बरसात का इंतजार कर रहा था।
 
24 जून से बारिश प्रारंभ हो गई। 25 जून तक दोनों नदियां उफान पर थीं और मुगल सुरक्षित स्थानों की ओर सरकने लगे थे। इसी दिन शेरशाह ने अपनी फौजों को युद्ध के लिए सज्जित किया, लेकिन मुगलों ने देखा शेरशाह दक्षिण की ओर सेना सहित रवाना हो गया है। सुनने में आया कि महारथ चेरों नामक किसी वनवासी हिन्दू राजा पर हमला करने जा रहा है।
 
तीन माह से युद्ध के तनाव से ग्रस्त मुगल सेना ने संतोष की सांस ली व चैन की नींद सो गए। लेकिन आधी रात के बाद शेरशाह ने पलटकर मुगल छावनी पर तीन ओर से धावा बोल दिया। दो ओर से घुड़सवारों ने साथ उसका पुत्र जलाल खां व सेनापति खवास खां मुगल लश्कर पर हमला बोल रहे थे और मध्य भाग में स्वयं शेरशाह सूरी अपनी गजसेना और पैदलों के साथ मुगलों को रौंदता बढ़ रहा था। 
 
हल्ला सुन हुमायूं जाग पड़ा और बिना जिरह बख्तर पहने घोड़े की नंगी पीठ पर सवार हो युद्धस्थल की ओर बढ़ गया। देखा तो मुगलों में भगदड़ मची हुई थी। घोड़ों पर काठी कसने का और कवच बांधने का भी समय नहीं था। जान बचाने का एक ही मार्ग था, हाथ में तलवार ले बिना कपड़े पहने भाग चलो। हुमायूं के रोके सैनिक नहीं रुके। तब वह अपने खेमे की ओर बढ़ा, जहां उसकी बेगमें थीं, लेकिन खेमे के चारों ओर अफगान सैनिक छा गए थे।

 
अब हुमायूं भी जान बचाने नदी की ओर भागा। उस ओर से भी पैदल आ गए थे। हुमायूं के अंगरक्षकों ने तलवारें चलाते मार्ग बनाना शुरू किया और एक-एक कर स्वयं भी गिरते चले गए। इन्हीं में था सोलह साल का युवक बैरम खां, जो अपने बरछे और तलवार के जौहर दिखाता हुमायूं के घोड़े के आगे-आगे चल रहा था। जैसे-तैसे हुमायूं नदी किनारे पहुंचा।
इस तरह बैरम खां ने बचाई हुमायूं और अकबर की जान... पढ़ें अगले पेज पर....

बैरम खां निजाम नामक भिश्ती को पकड़ लाया, जो खेमे में पानी भरने का कार्य करता था। उसने मशक में हवा भरी और हुमायूं के साथ उफनती नदी में कूद पड़ा। पूरी नदी को जैसे-तैसे पार कर हुमायूं उस पार रेत कर निढाल गिर गया तो वहां भी चार-पांच अफगान मौत बने उसके सिर पर सवार थे, लेकिन छाया की तरह तैरते हुए पीछे आ रहे बैरम खां ने अफगानों को ललकारा और उन्हें भगा हुमायूं को बचा लिया। 
 
अब हुमायूं, बैरम खां और भिश्ती निजाम के साथ आगरे की ओर बढ़ चला। मार्ग में मुगल सैनिक मिलते गए, कारवां बढ़ता गया। आगरा पहुंच हुमायूं ने पुन: फौजें एकत्र कीं। 
 
लेकिन, पूर्व में कन्नौज तक का पूरा इलाका भारतीय अफगानों के हाथ में था। चौसा की विजय के बाद शेरशाह ने स्वयं को हिन्द का बादशाह घोषित कर दिया। चौसा की लड़ाई में हुमायूं का सेनापति मुहम्मद मिर्जा मारा गया और दो रानियां व एक लड़की नदी में डूब मरी। हुमायूं की पटरानी बेगा बेगम व अन्य हरम की औरतें शेरशाह ने कैद कर ली थीं जिन्हें बाद में ससम्मान भारतीय परंपरा के अनुसार आगरा भेज दिया गया। 
 
आठ माह बाद फरवरी में हुमायूं पुन: शेरशाह से भिड़ने चल पड़ा। कन्नौज के पास भोजपुर में मुगल खेमे गड़ गए। पुन: हुमायूं ने गलती दोहराई और बरसात आने तक बिना लड़े पड़ा रहा। परिणाम वही हुआ पराजय। यहां से भी युवक बैरम खां हुमायूं को जीवि‍त निकाल ले गया। 
 
पूरे दो वर्ष हुमायूं भागता फिरा। एक-एक कर उसके साथी उसे छोड़ते गए। जब हुमायूं सिंध के राजा राणा वीरसाल प्रसाद के यहां उमरकोट में शरणागत हुआ, तब उसके साथ उसकी पत्नी और मात्र 7 घुड़सवारों के साथ बैरम खां था। इसी किले में 15 अक्टूबर 1542 को ‍अकबर का जन्म हुआ। राणा प्रसाद द्वारा दी गई 7,000 सैनिकों की मदद से बैरम खां थट्टा और भक्कर के जिलों की विजय को निकला। यहां राणा वीरसाल के राजपूतों से मुगलों का झगड़ा हो गया। स्वामीभक्त बैरम खां ने यहां भी हुमायूं और उसके नवजात शिशु की जान बचाई। 
 
यथार्थ में स्वामीभक्ति, निष्ठा, ईमानदारी, त्याग, समर्पण, नि:स्वार्थ सेवा आदि मानवीय गुणों का समावेश मुगल इतिहास में किसी में देखने को मिलता है तो वह है शिया मुसलमान बैरम खां।
 
अकबर का संरक्षक : अकबर के लिए काला अक्षर भैंस बराबर था। वह कभी अक्षर ज्ञान प्राप्त नहीं कर सका। तंग आकर हुमायूं ने उसे बैरम खां के सुपुर्द किया। हुमायूं जब काबुल से पुन: भारत विजय के लिए लौटा, उस समय बैरम खां कंधार में था। उससे रहा नहीं गया। वह एक छोटी सैनिक टुकड़ी के साथ सिंध नदी पार करते ही अपने मालिक से जा मिला। हुमायूं बैरम खां की योग्यता और महत्व को जानता था। इसलिए 12 वर्षीय अकबर जब हुमायूं का उत्तराधिकारी और पंजाब का गवर्नर बनाया गया, तब उसके संरक्षक का दायित्व बैरम खां को सौंप दिया। 
 
बैरम खां भी जब सिर पटककर हार गया और अकबर का मन पढ़ने-लिखने में नहीं लगा, तब उसने अकबर को घुड़सवारी, शस्त्र विद्या और व्यूह रचना सिखानी प्रारंभ की। इन सैनिक कार्यों को अकबर मन लगाकर सीख गया और प्रसिद्ध युद्ध विशारद बन गया।
बैरम खां ने छिपाई थी हुमायूं की मौत की खबर, ताकि... पढ़ें अगले पेज पर....

हुमायूं की मौत : 24 जनवरी 1556 को शेर मंडल के पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरकर हुमायूं घायल हो गया और 27 जनवरी को उसका देहांत हो गया। उसकी मृत्यु का समाचार बैरम खां ने 18 दिनों तक छिपाए रखा और बाद में 14 फरवरी 1556 को पंजाब के कालानौर कस्बे में बैरम खां ने अकबर को औपचारिक रूप से बादशाह घोषित कर दिया। 
 
हुमायूं का एक प्रसिद्ध सेनापति शाह अबुल माली जान-बूझकर राज्यारोहण समारोह में शामिल नहीं हुआ। इस अपराध में बैरम खां ने उसे कैद कर लिया। 
 
राज्यारोहण के समय अकबर मात्र पंजाब के आधे भाग का स्वामी था। पानीपत की विजय के पश्चात बैरम खां की तलवार ने दिल्ली, आगरा, ग्वालियर, कालिंजर, जौनपुर, सम्भल, लखनऊ और मालवा को नतमस्तक कर दिया। सन 1560 तक बैरम खां के प्रयासों से अकबर यथार्थ में भारत सम्राट बन चुका था। 
 
एहसान फरामोश : अपनी स्वामीभक्ति, निष्ठा और ईमानदारी का क्या फल मिला बैरम खां को? जीवनभर हुमायूं की और 18 वर्ष तक अकबर की सेवा की। अपनी जान जोखिम में डाल दोनों बाप-बेटों को शत्रुओं से बचाता रहा। स्वयं पानीपत के भीषण युद्ध में कूद पड़ा किंतु अकबर को युद्धस्थल से पांच मील दूर रखा। संकट में ढाल बन जाता था बैरम खां अकबर व हुमायूं की। जिनसे भी अकबर को खतरे की आशंका होती, बैरम खां उन्हें समाप्त कर देता। 
 
इन एहसानों का बदला दिया अकबर ने उसे अपने संरक्षक और मुगल साम्राज्य के दीवान पद से हटाकर। सन 1560 में बैरम खां के लिए आदेश आया कि वे अपना सब कुछ छोड़ मक्का की तीर्थयात्रा करें व अपना शेष जीवन मक्का में बिताए। अकबर ने बैरम खां पर राजद्रोह के झूठे आरोप लगाए।
अकबर की निगाह बैरम खां की सुंदर पत्नी पर थी... पढ़ें अगले पेज पर...

यथार्थ में अकबर की निगाह बैरम खां की सुंदर पत्नी पर थी, वह उसे प्राप्त करना चाहता था। बैरम खां को मित्रों ने सलाह दी कि सेना आपके साथ है। आप अकस्मात आक्रमण कर अकबर को कैद कर लें, लेकिन इस स्वामीभक्त ने अपनी सेवा को कलंकित नहीं रखा। अपने गुरु होने के भाव का इस्तेमाल नहीं किया और अपनी राजमुद्रा, महल, धन-संपत्ति अकबर के चरणों में समर्पित कर साधारण वस्त्र पहन मक्का की तीर्थयात्रा को रवाना हो गया।
 
अपमान पर अपमान : दुष्ट अकबर को इससे भी संतोष नहीं हुआ। वह तो बैरम खां को मर्मांतक पीड़ा देकर मारना चाहता था ताकि उसकी सुंदर पत्नी को प्राप्त कर सके। अत: उसने पीर मोहम्मद शिरवानी नामक बैरम खां के भूतपूर्व सैनिक को, जिसे बैरम खां ने नौकरी से निकाल दिया था, खान की उपाधि देकर दरबार में उच्च पद पर रख लिया। पीर मोहम्मद को सेना की एक टुकड़ी लेकर बैरम खां के पीछे लगा दिया। उसे कहा गया कि वह बैरम खां को कहीं भी एक रात से अधिक न रुकने दे और मक्का के लिए खदेड़ता रहे।
 
अकबर का संरक्षक, गुरु और भारत का दीवान एक अदने से नौकर के आदेश का पालन करे कि जल्दी करो, अपना बोरिया-बिस्तर समेटो और आगे बढ़ो। बैरम खां इस अपमान को सह नहीं सका और जो मुट्ठीभर सैनिक उसके साथ थे उन्हें ले विशाल शाही सेना पर टूट पड़ा। परिणाम तो निश्चित था। पराजित बैरम खां बंदी बनाकर अकबर के सामने लाया गया। रोते हुए इस महावीर ने कहा, शहंशाह। मेरा इतना अपमान तो न करो। चाहो तो मुझे कत्ल कर दो।
 
हत्या का षड्यंत्र : संसार को दिखाने के लिए अकबर ने पीर मोहम्मद शिरवानी को पीछा करने से रोक लिया और बैरम खां को पुन: मक्का की राह दिखाई। अब अकबर को कहने का बहाना मिल चुका था देखा! बैरम खां ने शाही सेना से युद्ध किया, विद्रोह किया। 
 
बयाना, अजमेर होता हुआ बैरम खां गुजरात की प्राचीन हिन्दू राजधानी अनहिलवाड़ा पट्टन पहुंचा। साथ में थी उसकी पत्नी, चार वर्ष का बेटा अब्दुल रहीम और 8-10 सेवक। अभी उसका कारवां रुका ही था। झील के किनारे सुंदर बगीचे में उसका खेमा गाड़ा जा रहा था। बैरम खां और उसकी पत्नी झील की शोभा निहार रहे थे, तभी कई कोसों से पीछा करते चले आ रहे 30-40 अफगानों ने अपने नेता मुबारक खां के नेतृत्व में उस पर हमला कर दिया। अकेला असहाय बैरम खां किस-किस से लड़ता? क्षणमात्र में सब कुछ समाप्त हो गया, अपने सेवकों के साथ विशाल मुगल साम्राज्य का पुनर्निर्माता राजधानी से दूर मारा गया।
 
शत्रु ने उसका शिविर लूट लिया, लेकिन आश्चर्य कि उसकी सुंदर पत्नी व लड़के को खरोंच तक नहीं आई। मुगल दीवान की लाश झील के किनारे लावारिस पड़ी रही। उसकी पत्नी और बच्चा पहले अहमदाबाद बाद में अकबर की वासना पूर्ति के लिए दिल्ली पहुंचा दिए गए।
 
आक्रमणकारियों के चले जाने के बाद आसपास खड़े हत्याकांड देख रहे कुछ फकीरों और हिन्दू किसानों ने दया कर समस्त मरे हुओं की क्षत-विक्षत लाशों को दफनाया। यह घटना सबसे बड़ा प्रमाण थी कि उसकी हत्या अकबर ने करवाई थी। अकबर उसकी सुंदर पत्नी को भोगना चाहता था, जो उसे मिल गई। प्रकट में तो अकबर बैरम खां से उसकी पत्नी नहीं मांग सकता था। क्या कहते लोग कि अपने गुरु की पत्नी मांग ली। तब उसने षड्यंत्र रचा। मुबारक खां अफगान को जान-बूझकर इस कार्य के लिए उकसाया। मुबारक खां का पिता मच्‍छीवाड़ा के युद्ध में मुगल सेना के हाथों मारा गया था, जिसका संचालन बैरम खां कर रहा था।
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