यूं तो पूरी दुनिया में इंडियन आर्मी की मिसाल दी जाती है, लेकिन इसमें भी अलग-अलग रेजिमेंट्स का अपना महत्व है। जिसमें सबसे ज्यादा गोरखा रेजिमेंट का जिक्र होता है। यह एक ऐसी रेजिमेंट है, जिससे न सिर्फ दुश्मन की सेना बल्कि भारतीय सेना की दूसरी रेजिमेंट्स में गोरखा की बहादुरी की मिसालें दी जातीं हैं। आज से नहीं, बल्कि द्वितीय विश्व युद्ध के वक्त से गोरखा की बहादुरी और उनकी रणनीति से दुनियाभर की सेनाएं खौफ खाती हैं। द्वितीय विश्व युद्ध में जिस तरह से जर्मन सेना पर गोरखा रेजिमेंट ने कहर बरपाया था, उसे देखकर खुद हिटलर दंग रह गया था, उसने कहा था, गोरखा रेजिमेंट दुनिया की सबसे बहादुर रेजिमेंट है।
गोरखा रेजिमेंट के बारे में युद्ध के मैदान से लेकर आम जिंदगी में बहादुरी के किस्से सुनने को मिल जाएंगे। गोरखा अपने आसपास हो रहे अत्याचार और अपराधों को भी सहन नहीं करते। सिविलियन लाइफ में भी वे दुश्मनों से भिड़ जाते हैं। युद्ध में ये रेजिमेंट बेहद चालाक, होशियार और खतरनाक मानी जाती है, एक बार इनसे दुश्मन सेना का पाला पड़ जाए तो फिर सिर्फ उनका शव ही वापस जाता है। ये पूरी तरह से दुश्मनों को नेस्तानबूत कर देती है। कुचल देती है। ये अपने देश और सेना के लिए बेहद ईमानदार और बहादुर माने जाते हैं। आइए जानते हैं गोरखा रेजिमेंट के बारे में।
कब हुआ था गठन: गोरखा रेजिमेंट का गठन 24 अप्रैल 1915 में हुआ था। इस रेजिमेंट का शानदार इतिहास है और यह भारत ही नहीं बल्कि दुनिया की सबसे बहादुर रेजिमेंट में से एक मानी जाती है।
दरअसल, गोरखा समुदाय के लोग हिमालय की पहाड़ियों, खासकर नेपाल और उसके आसपास के इलाकों में रहते हैं। लेकिन इन्हें आमतौर पर नेपाली ही माना जाता है। ये लोग बहुत ही बहादुर होते हैं। इनकी बहादुरी के किस्से इतिहास में मिलते हैं और पूरे गर्व के साथ सुनाए जाते हैं। भारत में कई जगह गोरखाओं को उनके निडर चरित्र को देखते हुए बहादुर कहकर भी बुलाया जाता है।
भारतीय सेना के भूतपूर्व चीफ ऑफ स्टाफ जनरल सैम मानेकशॉ तो कहते थे कि यदि कोई कहता है-
मुझे मौत से डर नहीं लगता, वह या तो झूठ बोल रहा है या गोरखा है।
इनके बारे में कहा जाता है, गोरखा मरता नहीं, मारता है।
गोरखा रेजिमेंट के गठन की कहानी भी बहुत दिलचस्प है। साल 1815 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी का युद्ध नेपाल राजशाही से हुआ था, तब नेपाल को हार मिली थी, लेकिन नेपाल के गोरखा सैनिक बहादुरी से लड़े थे। बताया जाता है कि अंग्रेजों से लड़ाई के दौरान गोरखाओं की बहादुरी से सर डेविड ऑक्टरलोनी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने गोरखाओं के लिए अलग रेजिमेंट बना डाला।
अंग्रेजों से युद्ध के बाद 24 अप्रैल 1815 को रेजिमेंट की नींव पड़ी। बाद में जब 1816 में अंग्रेजों और नेपाल राजशाही के बीच सुगौली संधि हुई तो तय हुआ कि ईस्ट इंडिया कंपनी में एक गोरखा रेजिमेंट बनाई जाएगी, जिसमें गोरखा सैनिक होंगे। तब से लेकर अब तक गोरखा भारतीय फौजों का अनिवार्य हिस्सा हैं।
ब्रिटिश सेना में भी गोरखा रेजिमेंट
गोरखा रेजिमेंट ने शुरू से ही अपनी बहादुरी का परचम लहराया और अंग्रेजों के अहम युद्ध में उन्हें जीत भी दिलाई। इसमें गोरखा-सिक्ख युद्ध, एंग्लो-सिक्ख युद्ध और अफगान युद्धों के साथ 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दमन में भी शामिल हुए थे। इस रेजिमेंट का कुछ हिस्सा बाद में ब्रिटेन की सेना में भी शामिल हुआ। अब भी ब्रिटिश सेना में गोरखा रेजिमेंट एक अहम अंग है।
1947 में जब भारत आजाद हो रहा था तब भारत, नेपाल और ब्रिटेन के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ, जिसके तहत छह गोरखा रेजिमेंट भारतीय सेना में स्थानांतरित कर दी गईं। बाद में एक सातवीं रेजीमेंट और बनाई गईं।
कहां-कहां है गोरखा रेजिमेंट?
भारत में कई शहरों में गोरखा रेजिमेंट के सेंटर हैं। इसमें वाराणसी, लखनऊ, हिमाचल प्रदेश में सुबातु, शिलांग के ट्रेनिंग सेंटर मशहूर हैं। गोरखपुर में गोरखा रेजिमेंट की भर्ती का बड़ा केंद्र है। लेकिन भारत, नेपाल और ब्रिटेन के अलावा ब्रूनेई और सिंगापुर में भी गोरखा रेजिमेंट किसी न किसी रूप में हैं।
जिसकी तारीफ हिटलर भी करता था, ऐसी है गोरखा रेजिमेंट की बहादुरी और खतरनाक रणनीति, दुश्मनों को कर देती है नेस्तानबूत
गोरखा रेजिमेंट्स की बहादुरी के 10 किस्से
गोरखा रेजिमेंट्स की शुरुआत 24 अप्रैल, 1815 को हुई थी। 1814-16 के ऐंग्लो नेपाल युद्ध में गोरखाओं की बहादुरी और युद्ध कौशल से अंग्रेज इतने प्रभावित हुए कि उनको ब्रिटिश इंडियन आर्मी में शामिल कर लिया। फील्ड मानेकशॉ से लेकर पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सिंह का संबंध गोरखा रेजिमेंट से था।
खुखरी गोरखा की पहचान
गोरखा की पहचान 'खुखरी' है जो एक तरह का धारदार खंजर होता है। युद्ध के दौरान गोरखा दुश्मन का सिर काटने के लिए इस खुकरी का इस्तेमाल करते हैं। गोरखा सिपाही जब भी दुश्मन पर हमले के लिए आगे बढ़ते हैं तो उनकी जुबान पर यह नारा होता है- 'जय महाकाली, आयो गोरखाली'
अकेला नहीं छोड़ते गोरखा
गोरखा अपने जवानों को मुसीबत में फंसा छोड़कर आगे नहीं बढ़ते हैं। 2008 में अफगानिस्तान में गोरखा पर जब घात लगाकर हमला किया गया तो एक सिपाही युवराज राय बुरी तरह से घायल हो गया। दुश्मन गोलीबारी कर रहा था। उस दौरान भी कैप्टन गजेंद्र आंगदेम्बे और राइफलमेन धान गुरुंग एवं मंजू गुरुंग ने युवराज को अकेले नहीं छोड़ा। वे भारी गोलीबारी के बीच युवराज को ओपन ग्राउंड में लाए जो वहां से करीब 325 फीट की दूरी पर था।
जापान से लड़ाई
1945 में लछमन गुरुंग एक खंदक में तैनात थे। वहां 200 जापानी सैनिकों ने हमला कर दिया। एक ग्रेनेड उसके हाथ में फंट गया जिससे उनकी अंगुलियां उड़ गईं और चेहरा एवं शरीर बुरी तरह से घायल हो गया। इसके बावजूद भी गुरुंग ने बायें हाथ से राइफल चलाकर दुश्मन का सामना किया और दुश्मन के 31 सैनिकों को मार गिराया। गुरुंग ने जापानी सैनिकों को आगे बढ़ने नहीं दिया। बाद में गुरुंग को विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया।
दीपप्रसाद पुन
2010 में अफगानस्तान में सर्जेंट दीप प्रसाद पुन ने अकेले 30 तालिबानी लड़ाकों का सामना किया। तालिबानी लड़ाके ग्रेनेड्स और एक-47 से लेकर आए थे। फिर पुन ने एक घंटे से भी कम समय में उन सभी को मार गिराया। पुन की बहादुरी के लिए ब्रिटिश मिलिट्री का दूसरा सर्वोच्च पुरस्कार गैलंट्री क्रॉस दिया गया।
भानुभक्त गुरुंग
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बर्मा में जापानी सेना के खिलाफ लड़ रहे भानुभक्त गुरुंग ने अकेले दुश्मन के एक बंकर पर कब्जा कर लिया। इस बहादुरी भरे कारनामे के लिए उनको विक्ट्रोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया
अगनसिंग राय
1944 में अगनसिंग राय ने बर्मा अभियान के दौरान दुश्मन के मशीन गन और दो ऐंटी टैंक 37 एमएम गन का सामना किया। बुरी तरह घायल होने के बाद भी राय और उनके जवानों ने दुश्मन के सभी सैनिकों को मार गिराया। राय को बाद में विक्टोरिया क्रॉस मिला।
गंजू लामा
बर्मा में दूसरे विश्व युद्ध के दौरान गंजू लामा ने जिस साहस का प्रदर्शन किया वह बेमिसाल था। उनके सिर के ऊपर से गोलियां गुजर रही थीं लेकिन बुरी तरह घायल होने के बावजूद उन्होंने जापानी टैंकों का सामना किया। उन्होंने सभी टैंकों को तबाह कर दिया और दुश्मन के सैनिकों को मार गिराया। लामा को स्ट्रेचर पर हॉस्पिटल पर ले जाया गया और विक्ट्रोरिया क्रॉस से सम्मानित किए गए।
गाजे घाले
1943 में बर्मा फ्रंट पर जापान के खिलाफ अन्य युद्ध में सार्जेंट गाजे घाले को उस स्थान पर कब्जा करने के लिए कहा गया जिस पर कब्जा करने में गोरखा सैनिक पहले नाकाम हो गए थे। भारी गोलीबारी के बीच बुरी तरह घायल होने के बाद उन्होंने दुश्मनों से हाथों-हाथ लड़ाई की। उनको भी बाद में विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया।
विष्णु श्रेष्ठा
साल 2011 में 35 साल के सेवानिवृत्त गोरखा विष्णु श्रेष्ठा भारत में एक ट्रेन का सफर कर रहे थे। बीच रास्ते में 40 लुटेरों ने ट्रेन रुकवाई और यात्रियों का सामान छीनने लगे। विष्णु अपनी खुकरी लेकर अकेले लुटेरों से भिड़ पड़े जिन लोगों के पास चाकू, पिस्तौल और तलवार जैसे खतरनाक हथियार थे। श्रेष्ठा ने तीन लुटेरों को मार गिराया और अन्य आठ को घायल कर दिया। इससे लुटेरे डर गए और वहां से भाग खड़े हुए। इस दौरान विष्णु ने एक लड़की को भी बचाया जिसका लुटेरे रेप करने जा रहे थे।
गोरखा वीर मनोज कुमार पांडेय
गोरखा राइफल्स के लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडेय गोरखा रेजिमेंट्स के एक मात्र परम वीर चक्र विजेता थे। कारगिल युद्ध में उनकी उल्लेखनीय भूमिका के लिए मरणोपरांत उनको परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया।