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पहली बार सन् 1973 में हुई कानून की परीक्षा

पहली बार सन् 1973 में हुई कानून की परीक्षा - first law examination was held in 1973
न्यायाधीश के पद पर समाज के प्रतिष्ठित, शिक्षित व विवेकशील व्यक्तियों को नियुक्तियां दे दी जाती थीं। वे कानून का अध्ययन किए हुए व्यक्ति नहीं होते थे। नतीजा यह होता था कि वे मुकदमों का निर्णय अपने विवेक से या लिखित कानूनों की अपनी इच्छानुसार व्याख्या कर दे दिया करते थे। इंदौर नगर में जिला न्यायालय तथा सदर न्यायालय भी इसके अपवाद न थे।
 
न्याय प्राप्ति में यह एक बड़ा अवरोध था। होलकर राज्य के इंदौर स्थित केंद्रीय न्यायालय ने इस तथ्य का गहराई से अध्ययन किया और महाराजा को परामर्श दिया कि राज्य में कानून की परीक्षा आयोजित की जाना चाहिए। तद्‌नुसार 1873 में इंदौर में पहली अभिभाषक परीक्षा आयोजित की गई। इस परीक्षा का उद्देश्य कानून ज्ञाता सफल छात्रों को राजकीय न्याय विभाग में पद प्रदान करना था। 1877-78 से इस प्रकार की परीक्षाओं का नियमित आयोजन होने लगा।
 
1878 में होलकर दरबार द्वारा एक आदेश प्रसारित किया गया, जिसमें निर्देशित किया गया था कि राज्य के किसी भी न्यायालय में ऐसे व्यक्ति को न्यायाधीश का पद नहीं दिया जाएगा जिसने निर्धारित कानून परीक्षा उत्तीर्ण न की हो।
 
इस नियम को बनाने के पीछे राज्य का उद्देश्य न्यायालयों के स्तर को उन्नात व न्याय विभाग को अधिक सक्षम बनाना था, लेकिन यह निर्णय समय से पूर्व लिया गया था क्योंकि उस समय तक भी निर्धारित कानून की परीक्षा उत्तीर्ण किए हुए लोगों का अभाव ही था। उसका दुष्परिणाम यह हुआ कि निर्धारित योग्यता वाले उम्मीदवारों के नहीं मिलने के कारण न्यायाधीशों के पद खाली पड़े रहे। कई न्यायालय बंद करने पड़े। इससे न्याय-प्रक्रिया विलम्बित हुई और अन्य न्यायालयों पर कार्यभार बढ़ गया।
 
इंदौर के केंद्रीय न्यायालय का कार्यभार कम करने के लिए 1877 में एक लघु-विवाद न्यायालय कायम किया गया था। योग्य न्यायाधीश की अनुपलब्धता के कारण 2 वर्षों तक यह न्यायालय भी बंद पड़ा रहा। 2 वर्ष बाद इस न्यायालय को ही समाप्त कर दिया गया। 1883 में जब योग्य न्यायाधीश की नियुक्ति की जा सकी तो इस न्यायालय को इंदौर में पुनः स्थापित किया गया।
 
इंदौर में 1873 से विधि परीक्षा आयोजित की जानी प्रारंभ हो चुकी थी। इस परीक्षा को उत्तीर्ण करने वाले विद्यार्थी न्यायधीश का पद पा जाते थे या वे अपनी स्वतंत्र वकालत करते थे।
 
1901 ई. से अभिभाषकों के पंजीयन हेतु भी एक परीक्षा का आयोजन प्रारंभ हुआ। यह परीक्षा होलकर राज्य के इंदौर स्थित सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आयोजित की जाती थी। यह उल्लेखनीय है कि उस समय तक इंदौर के सर्वोच्च न्यायालय में अनेक ख्यातनाम बेरिस्टरों तथा भारतीय विश्वविद्यालयों के विधि स्नातकों ने अभिभाषकों का कार्य प्रारंभ कर दिया था।
 
प्रमुख मुकदमों के निर्णय जो केंद्रीय न्यायालय या 'ज्युडिशियल कमेटी' द्वारा दिए जाते थे, काफी महत्वपूर्ण होते थे। ऐसे निर्णयों का प्रकाशन 1915 से इंदौर से किया जाने लगा। प्रति वर्ष ऐसे निर्णय प्रकाशित होते थे जिन्हें 'लॉ रिपोट्‌र्स' कहा जाता था। इन निर्णयों के प्रकाशन से अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीशों एवं अभिभाषकों को काफी लाभ हुआ। भविष्य में उठने वाले समान विवादों के लिए इन प्रकाशित निर्णयों को संदर्भ के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा।
 
अवैतनिक न्यायाधीशों की खंडपीठ
 
राजकीय सेवा से सेवानिवृत्त योग्य व ईमानदार व्यक्तियों, विधिविशेषज्ञों तथा समाज में सम्मानित व्यक्तियों की सेवाएं न्यायालयीन कार्य हेतु प्राप्त करने के विचार से महाराजा तुकोजीराव (तृतीय) ने अपनी कौंसिल से विचार-विमर्श किया। विचारोपरांत होलकर दरबार के आदेश क्रमांक 136 अप्रैल 29, 1914 द्वारा इंदौर नगर के लिए अवैतनिक न्यायाधीशों की एक खंडपीठ स्थापित करने की घोषणा की गई।
 
महाराजा ने स्वयं नगर के श्रेष्ठ विधि वेत्ताओं, सेवानिवृत्त अधिकारियों व सम्मानित नागरिकों में से चुनकर इस खंडपीठ के 9 न्यायाधीशों की नियुक्तियां की थीं। प्रारंभ में इनका कार्यकाल 6 माह रखा गया था किंतु बाद में बढ़ाकर एक वर्ष कर दिया गया। 1914 में ही इस प्रकार के न्यायालयों के कार्य संचालन के लिए नियम बनाए गए तथा उनका प्रकाशन करवाया गया ताकि न्यायालयों की कार्य-सीमा एवं न्यायाधीशों को प्रदत्त अधिकारों का सुस्पष्ट विभाजन हो सके।
 
उक्त खंडपीठ के 9 न्यायाधीशों में से कोरम पूरा करने के लिए कम से कम 3 न्यायाधीशों की उपस्थिति आवश्यक थी। यह व्यवस्था 1923 तक चलती रही। 1923 के बाद कोरम पूरा करने के लिए न्यायाधीशों की संख्या 3 से घटाकर 2 कर दी गई। इस खंडपीठ को तृतीय श्रेणी न्यायाधीशअधिकार प्राप्त थे। जिनमें दीवानी मामलों में 1000 से 2000 रु. तक के विवाद सुनने के अधिकार थे। फौजदारी मामलों में एक माह की सजा तथा 75 रु. तक अर्थदंड करने के अधिकार शामिल थे।
 
केंद्रीय न्यायालय के निर्देशन पर इंदौर जिला न्यायाधीश द्वारा जो छोटे-छोटे मुकदमे इस खंडपीठ के पास भेजे जाते थे, केवल उन्हीं की सुनवाई इस खंडपीठ द्वारा की जाती थी। इस प्रकार की अवैतनिक न्याय व्यवस्था में प्रारंभ में तो न्यायाधीशों ने बड़े उत्साह से भाग लिया किंतु कुछ माह बाद ही उनका सारा उत्साह समाप्त हो गया और वे शासन से मुक्ति की प्रार्थना करने लगे।
 
महाराजा तुकोजीराव इस लोकोपकारी संस्था को, समाज के योग्य वर्ग की सेवा से वंचित नहीं होने देना चाहते थे। उन्होंने अवैतनिक न्यायाधीशों को होने वाली असुविधाओं को समाप्त कर, इस संस्था को पुनः नव-जीवन दिया। उनकी रुचि के कारण, यह व्यवस्था उनके प्रशासनकाल में सुचारू रूप से इंदौर नगर में चलती रही। नगर के बुद्धिजीवियों ने निःस्वार्थ भाव से कार्य करके एक मिसाल कायम की थी।
 
इंदौर न्यायालय के दो महत्वपूर्ण निर्णय
 
महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) का शासनकाल होलकर इतिहास का सर्वश्रेष्ठप्रशासनिक काल था। न्यायपालिका को उनकी ओर से पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। यह तथ्य इन दो घटनाओं से स्वयं सिद्ध हो जाएगा।
 
बात उस समय की है, जब शासकीय अधिकारियों का सर्वत्र बोलबाला था। एक बार सर नौबत साहब के पागा कोषालय से 5000 रु. से भी अधिक गुम हो गए। सर नौबत साहब को शंका थी कि उनके लिपिक वामनराव ने उन पैसों का दुरुपयोग किया है। मंत्री महोदय को उन्होंने अपने विश्वास में लेकर वामनराव को गिरफ्तार करवा दिया। वामनराव को तत्कालीन इंदौर जिला न्यायाधीश श्री बर्वे की न्यायालय में पेश किया गया। होलकर राज्य के इतिहास में पहली बार किसी शासकीय कर्मचारी पर मुकदमा चलाया जा रहा था, इसलिए सभी की रुचि इस मुकदमे में थी। श्री बर्वे ने वामनराव के बयान लिए और पाया कि वह दोषी नहीं है। सर नौबत साहब किसी भी तरह वामनराव को दंडित करवाना चाहते थे। अतः उन्होंने प्रधानमंत्री से कहकर श्री बर्वे पर प्रभाव डलवाने का प्रयास किया। न्यायाधीश श्री बर्वे ने प्रधानमंत्री की भी बात नहीं मानी और वामनराव को दोषमुक्त घोषित कर दिया।
 
दूसरी घटना महाराजा के मित्र सूरजमल मोदी से संबंधित है। मोदी के विरुद्ध शाजापुर के एक व्यापारी ने 12,000 रु. का एक दीवानी मुकदमा दायर किया था। मोदी का राजमहल में व अधिकारियों पर काफी प्रभाव था अतः उनका मुकदमा कई वर्षों तक चिटनीस दफ्तर में अनिर्णीत पड़ा रहा। इंदौर जिला न्यायाधीश श्री बर्वे ने मुकदमे की गहराई से तहकीकात की और मोदी को आदेश दिया कि वह शाजापुर के व्यापारी के 12,000 रु. लौटा दे। निर्धारित समयावधि में उसने उक्त राशि नहीं लौटाई क्योंकि उसे इस बात का गुमान था कि वह एक प्रभावशाली व्यक्ति है इसलिए उसके विरुद्ध कुछ नहीं होने वाला है। उधर न्यायाधीश श्री बर्वे ने निर्धारित अवधि के बाद मोदी को गिरफ्तार करने का वारंट जारी कर दिया। न्यायाधीश महोदय के आदेश पर मोदी को राजमहल से गिरफ्तार करने हेतु कर्मचारी भेजे गए। किसी प्रकार, गिरफ्तारी आदेश की सूचना मोदी को मिल गई और वह महल के बाहर ही नहीं आया। दूसरे दिन उसकी गिरफ्तारी के लिए कर्मचारी पुनः जा पहुंचे। यह सारा मामला जब महाराजा को पता चला तो उन्होंने अपनी ओर से 12,000 रु. उसी दिन न्यायालय में जमा कराए। धन राशि जमा हो जाने पर ही मोदी बच सका। इस आदेश पर अपनी अप्रसन्नाता व्यक्त करने के स्थान पर महाराजा नेन्यायालय की प्रशंसा की और उसके आदेश का तत्काल पालन भी किया।
 
गोल टोपी वाली 'अलीगोल' पुलिस
 
प्रारंभ में इंदौर नगर में पुलिस सेवा के लिए सिपाहियों को अलग से भर्ती नहीं किया जाता था। पुलिस का कार्य सैनिकों से लिया जाता था। पुलिस विभाग का प्रशासनिक नियंत्रण न्याय विभाग के पास था।
 
इंदौर नगर को पुलिस व्यवस्था के अंतर्गत कई उपखंडों में विभाजित कर दिया गया था। प्रत्येक उपखंड का प्रभारी एक थानेदार होता था। नगर के सभी थानेदारों पर शहर फौजदार का नियंत्रण होता था और वे शहर फौजदार के निर्देशानुसार कार्य करते थे। होलकर राज्य की पैदल सेना का उन दिनों कुछ उपयोग नहीं हो रहा था। युद्ध और आक्रमणों का युग समाप्त सा हो गया था, अतः यह तय किया गया कि पैदल सैनिकों को सक्रिय बनाए रखने के लिए उनसे पुलिस का कार्य लिया जाए। दो कंपनी के 500 सिपाहियों को इस कार्य में जुटाया गया। इन कंपनियों के सिपाही कुछ गोलाई वाली टोपी लगाते थे इसलिए इसका नाम 'अलीगोल पुलिस' पड़ गया। स्थानीय लोगों द्वारा उस आरक्षी केंद्र को 15-20 वर्षों पूर्व तक 'अलीगोल कोतवाली' के नाम से ही पुकारा जाता था। उक्त सिपाहियोंको आवश्यकतानुसार विभिन्ना आरक्षी केंद्रों पर विभाजित कर तैनात कर दिया जाता था।
 
रात्रि गश्त के लिए होलकर सेना के रिसाले के सवारों का उपयोग घुड़सवार पुलिस के रूप में किया जाता था। वे अपने घोड़ों पर सवार होकर नगर के भीतर व नगर से बाहर 5-7 मील तक जाकर सड़कों पर गश्त देते थे। उनके अतिरिक्त जब कभी आपातकालीन स्थिति निर्मित होती थी तो होलकर सेना के सिख सवारों की विशिष्ट कंपनी को गश्त के काम में लगा दिया जाता था, जिनकी संख्या 100 थी।
 
अक्टूबर 1872 में सर टी. माधवराव, होलकर दरबार के प्रधानमंत्री के रूप में इंदौर आए। वे ब्रिटिश प्रशासनिक व्यवस्था का अच्छा अनुभव रखते थे। उन्होंने आते ही पुलिस प्रशासन के पुनर्गठन की एक योजना तैयार की जिसे महाराजा ने स्वीकार लिया। योजना के अधीन पुलिस कार्यों के लिए सिपाहियों, सवारों और अधिकांश अधिकारियों की सेवाएं सैन्य विभाग से प्राप्त कर ली गई। उनकी सेवाएं दरबार न्याय विभाग को सौंप दी गई। माधवराव के प्रयासों से सेना तथा पुलिस का स्पष्ट विभाजन हो गया।
 
कर्नल ठाकुर प्रसाद को इस पुनर्गठन के बाद इंदौर का प्रथम पुलिस निरीक्षक बनाया गया। वे सैनिक अधिकारीथे, अतः नगर पुलिस में सेना का सख्त अनुशासन लागू किया गया। पुलिस अधिकारियों को निर्देश दिए गए थे कि वे अपने कार्यों के पालन में उन कानूनों को आधार मान सकते हैं जो ब्रिटिश भारत में प्रभावशील व प्रचलित हैं। इस प्रकार इंदौर राज्य व इंदौर शहर में 1875 तक पुलिस व्यवस्था का स्वरूप काफी कुछ ब्रिटिश प्रांतों की व्यवस्था के समान हो गया था।
 
पुलिस में भर्ती के लिए लोग तैयार नहीं थे
 
प्रारंभ में इंदौर नगर की पुलिस व्यवस्था सेना के हाथों में थी, जिसकी दो कंपनियां नगर में यह कार्य करती थी। सैनिकों को पुलिस कानून-कायदों का पर्याप्त ज्ञान न था। उनसे दोहरे कर्तव्यों का निर्वाह करवाया जाता था। इस व्यवस्था को 6 अक्टूबर 1886 से समाप्त कर दिया गया और सेना की उन दो कंपनियों के 500 सैनिकों को पुलिस विभाग में स्थानांतरित किया गया।
 
उस समय इंदौर नगर की अनुमानित जनसंख्या 75,401 थी। इस जनसंख्या के लिए 864 सिपाही इंदौर नगर में रखे गए थे, जिन पर राज्य द्वारा 52,250 रु. वार्षिक व्यय किया जाता था। ये आंकड़े बतलाते हैं कि नगर की आबादी के अनुपात में प्रति 87 व्यक्तियों पर एक पुलिस सिपाही नियुक्त किया गया था।
 
पुलिस प्रशासन में महत्वपूर्ण परिवर्तन 1904 से प्रारंभ हुए। उसी वर्ष की 12 अप्रैल को श्री सी.एम. सेग्रिम ने इंदौर पहुंचकर होलकर राज्य के पुलिस महानिरीक्षक का पदभार ग्रहण किया था। वे भारत सरकार के योग्यतम पुलिस अधिकारियों में से एक थे, जिनकी सेवाएं इंदौर राज्य के लिए भारत सरकार से प्राप्त की गई थीं। उनके द्वारा पुलिस प्रशासन को उन्नात बनाने के लिए कई योजनाएं मूर्तरूप ले सकीं।
 
इंदौर पहुंचते ही श्री सेग्रिम को जिस समस्या का सामना करना पड़ा वह सिपाहियों की भारी कमी संबंधी थी। 1904-05 में सिपाही और कम हो गए क्योंकि इंदौर नगर व उसके आसपास 1903 से ही महामारी फैलने लगी थी जिसमें बहुत से सिपाही कालग्रसित हो गए थे। बड़ी संख्या में सिपाही नौकरियां छोड़कर चले गए थे। सिपाहियों का विशेष भर्ती अभियान चलाया गया किंतु कोई सिपाही के पद पर भर्ती होने को तैयार ही न था। एक तो महामारी का भय था ही और दूसरे सिपाहियों को बहुत कम वेतन दिया जाता था। वर्ष 1903 तक सिपाही का वेतन मान 5-8 रु. था, जिसे उसी वर्ष बढ़ाकर 8-11 रु. कर दिया गया, किंतु तब भी सिपाही को कुल 7 रु. वेतन ही प्रारंभ में मिलता था।
 
वर्ष 1905 में ही मारवाड़ में भीषणअकाल पड़ा जिसके परिणाम स्वरूप सैकड़ों लोग वहां से होलकर राज्य में चले आए। उनमें से बहुत से लोगों को होलकर पुलिस सेवा में भर्ती कर लिया गया व उन्हें प्रशिक्षित भी किया गया। लेकिन जैसे ही मारवाड़ में सूखे की स्थिति समाप्त हुई बहुत से लोग त्याग-पत्र देकर व अधिकांश लोग चुपचाप मारवाड़ चले गए। राज्य का प्रशिक्षण व्यर्थ गया और उनके विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की जा सकी।
 
पुलिस विभाग में सेवारत सभी कर्मचारियों के लिए 'संयुक्त प्रांत' के समान सेवा-पुस्तिकाएं बनाई गईं जिनमें उनकी सेवा अवधि, सेवा कार्य व उनसे संबंधित पूरी जानकारी होती थी।
 
इंदौर नगर को पुलिस व्यवस्था हेतु 1907 में पुनः विभाजित किया गया। उसी वर्ष सभी पुलिस चौकियों को टेलीफोन से जोड़ दिया गया। इस संचार माध्यम के आ जाने पर पुलिस की दक्षता काफी बढ़ गई। सभी सिपाहियों को नगर की प्रमुख कोतवाली पर तैनात कर दिया गया। जब भी संकटकालीन स्थिति निर्मित होती या उनकी आवश्यकता होती तो उन्हें प्रमुख आरक्षी केंद्र से नगर के अन्य भागों में भेजा जाता था।
 
दिसंबर 1910 से पुलिस अधिकारियों के पदों में भी परिवर्तन किया गया। प्रथम श्रेणी जिला पुलिस निरीक्षक कोजिला अधीक्षक, द्वितीय श्रेणी पुलिस निरीक्षक को उप-जिला अधीक्षक, क्षेत्रीय उप-निरीक्षक को जिला निरीक्षक तथा पुलिस चौकी के अधिकारी उप-निरीक्षक को क्षेत्रीय उप-निरीक्षक कहा जाने लगा।
 
27 अप्रैल 1912 को पुलिस महानिरीक्षक का पदभार श्री सेग्रिम ने श्री टी.एच. मारोनी को सौंप दिया। उनके 8 वर्षीय कार्यकाल में इंदौर नगर की पुलिस व्यवस्था में महत्वपूर्ण प्रशासनिक सुधार हुए, जिससे पुलिस अधिक सक्षम व प्रभावशाली तरीके से अपने दायित्वों का निर्वाह कर पाई।
 
इंदौर नगर की आबादी बढ़ रही थी और नगर का क्षेत्र विस्तार भी होता जा रहा था। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए 1922 में पुनः नगर की सुरक्षा व्यवस्था में परिवर्तन किए गए। नगर पुलिस को जिला पुलिस के नियंत्रण से पृथक कर उसे इंदौर नगर पुलिस आयुक्त के प्रशासनिक नियंत्रण में दे दिया गया। साथ ही विशेष पुलिस दल और घुड़सवार दल को भी पुलिस आयुक्त के अधीन कर दिया। उन दोनों दस्तों से इंदौर नगर व उसके आसपास के क्षेत्र में रात्रिकालीन गश्त का काम लिया जाने लगा।
 
नगर की सड़कों पर 1922 तक यातायात पुलिस की मौजूदगी नहीं थी। उस वर्ष सिपाहियों को नगर यातायात का प्रशिक्षण देकर चौराहों पर तैनात किया गया।
 
भारत सरकार से श्री टेलर की सेवाएं पुलिस महानिरीक्षक के पद हेतु प्राप्त की गईं। उन्होंने 18 अप्रैल 1926 से इंदौर में अपना पदभार ग्रहण किया। संयुक्त प्रांत के श्री केशवरावप्रसाद को 27 नवंबर 1926 से इंदौर सहायक पुलिस महानिरीक्षक के पद पर नियुक्त किया गया।
 
घोड़ों की बग्घी पर चलता था फायर ब्रिगेड
 
इंदौर नगर का पुराना फायर ब्रिगेड गोपालराव भैया की हवेली के पास स्थापित किया गया था। घोड़ों की बग्घी पर स्टीम इंजन लगाया गया था। नगर पालिका की भैंसा गाड़ियों से आग बुझाने के लिए पानी भेजा जाता था। इस इंजन की गति धीमी थी और उससे भी खराब हालत थी पानी पहुंचाने की। नगर पालिका इसकी ठीक व्यवस्था नहीं कर पा रही थी।
 
पुलिस कमिश्नर के रूप में जब श्री सी.एम. सेग्रिम की नियुक्ति इंदौर में हुई तो उन्होंने पुलिस विभाग के अधीन एक आधुनिक फायर ब्रिगेड स्थापित करने की योजना को मूर्तरूप दिया। 1909 ई. में इंदौर में अग्निशमन पुलिस दल की स्थापना की गई।
 
एक उप-निरीक्षक, 2 हेड कांस्टेबल तथा 30 सिपाहियों को राज्य की ओर से अग्निशमन का विशेष प्रशिक्षण पाने के लिए बंबई भेजा गया। इसी बीच इस विभाग को 500 गैलन क्षमता वालाएक, 200 गैलन क्षमता वाले 4 व 100 गैलन की क्षमता वाले वाष्पचलित इंजन दिए गए। इंजन व आवश्यक सामग्री नवंबर में इंदौर पहुंची और दिसंबर में बंबई भेजा गया दल प्रशिक्षण लेकर लौट आया। उसी माह से इस दल ने अपना नियमित कार्य प्रारंभ कर दिया।
 
अग्निशामक पुलिस के उप-निरीक्षक को ही 1912 से अधीक्षक कहा जाने लगा। उस पद पर उस समय पारसी सज्जन श्री होरमासजी बैरामजी पदासीन थे। उस वर्ष नगर में 23 अग्नि घटनाएं हुई थीं, किंतु सभी पर इस दल ने नियंत्रण पा लिया।
 
1922 में पुलिस कमिश्नर श्री सेग्रिम के परामर्श पर फायर ब्रिगेड को पुनः नगर पालिका के नियंत्रण में दे दिया गया। लेकिन नगर पालिका द्वारा इस विभाग का संतोषजनक संचालन नहीं किया जा सका। 1 मई 1924 को यह विभाग पूर्ववत राजकीय पुलिस विभाग को लौटा दिया गया। उसी वर्ष इस विभाग को अधिक सक्रिय व सक्षम बनाने के लिए एक योजना बनाई गई जिसमें कर्मचारियों की वेतन वृद्धि व अधिक क्षमता वाले साधन खरीदे जाने के व्यवस्था थी। यह योजना राज्य द्वारा स्वीकृत कर ली गई और 1 अक्टूबर 1925 से उसे लागू किया गया। कर्मचारियों का वेतन बढ़ा दिया गया और 2 अग्निशमन मोटरें इंजन सहित खरीदी गईं। 1926 से इसविभाग की सेवाओं को सेवानिवृत्ति के योग्य घोषित करके कर्मचारियों को प्रोत्साहन दिया गया।
 
इंदौर नगर के भीषण अग्निकांडों में संभवतः पहला भीषण अग्निकांड 15 मई 1925 के दिन नगर के मध्य स्थित मारोठिया बाजार में हुआ था। गर्मी के दिन थे। देखते ही देखते इस घनी बस्ती के 14 भवन जल कर नष्ट हो गए, जिनमें अनुमानतः 1,90,940 रु. की क्षति हुई। सौभाग्यवश, उस समय तक फायर ब्रिगेड को नवीन मोटरें मिल चुकी थीं, जिनकी सहायता से इस घनी बस्ती को बचाया जा सका, जहां संपन्ना व्यापारी समुदाय निवास करता था। इस अग्निकांड में होलकर सेना की टुकड़ियों ने भी अभूतपूर्व साहस के साथ आग पर नियंत्रण पाने में महत्वपूर्ण सहयोग दिया था।
 
उस समय तक रेसीडेंसी क्षेत्र में अग्नि दुर्घटनाओं से बचाने के लिए कोई अग्निशामक संस्था नहीं थी। ब्रिटिश रेजीडेंट ने होलकर महाराजा से याचना की कि इंदौर फायर ब्रिगेड की सेवाएं रेसीडेंसी क्षेत्र को भी उपलब्ध कराई जाएं। महाराजा ने यह अनुरोध स्वीकार कर रेसीडेंसी क्षेत्र को भी 1925 से निःशुल्क अग्निशमन सेवाएं प्रदान कर दीं। बाद में इंदौर फायर ब्रिगेड का कार्यालय मोतीतबेला के पास स्थानांतरित हो गया।
 
फणसे के बाड़े में थी इंदौर की जेल
 
इंदौर नगर मे कोई जेल नहीं थी। राजा भाऊ फणसे के बाड़े के निचले हिस्से का जेल के रूप में उपयोग किया जाता था। अपराधियों को इस बाड़े में रखा जाता था। उन्हें कई बार मारा-पीटा जाता और यातनाएं दी जाती थीं। रात-दिन उनके चीखने-चिल्लाने या कराहने की आवाजें आया करती थीं, जिससे आसपास के नागरिकों को अनचाही परेशानियों का सामना करना होता था। कैदियों के शरीर पर बहुत भारी जंजीरें लाद दी जाती थीं, जिनसे उनका चलना-फिरना भी दूभर था।
 
इंदौर शहर का कोतवाल ही बंदीगृह के अधीक्षक का भी कार्य करता था। कई बार ऐसे व्यक्तियों को भी जिन पर न्यायालय में मुकदमे चलते थे, इसी जेल में बंद कर दिया जाता था। पुलिस की मनमानी रोकने के लिए न्याय विभाग के सदस्य को इस जेल का अध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद से ही साधारण अपराध वाले कैदियों को भारी जंजीरों से जकड़ा जाना बंद करवा दिया गया। कैदियों को उनकी दैनिक खुराक के लिए नकद पैसे दिए जाते थे, जिससे वे भोजन सामग्री प्राप्त कर अपना भोजन स्वयं बनाते थे।
 
महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) ने इन परंपराओं को बंद किया और कैदियों को शहर से बाहर रखने हेतु 1877 में एक लाख रु. की लागत से नई जेल का निर्माण करवाया। राजा भाऊ के बाड़े से सभी कैदियों को नई जेल में स्थानांतरित करवा दिया गया। इन कैदियों को भोजन राज्य की ओर से दिया जाने लगा। इनके स्वास्थ्य की देखभाल के लिए एक चिकित्सक की नियुक्ति की गई। लगभग 650 कैदियों को रखने की यहां व्यवस्था थी।
 
राज्य का उद्देश्य अपराधी को कर्मठ नागरिक बनाना
 
उस समय मानवाधिकार रक्षा जैसी तो कोई संस्था न थी और न ही कोई राजा पर अन्यथा सुधार के लिए दबाव डाल सकता था, फिर भी संवेदनशील होलकर नरेश ने जेल को यातनागृह की अपेक्षा सुधार केंद्र बनाने का प्रशंसनीय प्रयास प्रारंभ किया। कैदियों को बढ़ई का काम करने व कपड़ा तथा दरी बुनने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। धीरे-धीरे इस जेल में श्रेष्ठ किस्म की कलात्मक दरियां बनने लगीं। कैदी जेल से निकलकर, सीखे गए हुनर के आधार पर अपना व्यवसाय स्वयं करने लगे। राज्य का उद्देश्य अपराधी को कर्मठ नागरिक बनाना था, जिसमें सफलता मिली।