मंगलवार, 19 नवंबर 2024
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राजस्थान के व्यापारिक घराने जो इंदौर आ बसे

राजस्थान के व्यापारिक घराने जो इंदौर आ बसे - Business houses of Rajasthan that settled in Indore
मालवा का प्रमुख व्यापारिक नगर होने का गौरव इंदौर को पिछली एक शताब्दी से प्राप्त है। यहां के व्यापार, विशेषकर अफीम के व्यापार ने अंतरराष्‍ट्रीय व्यापारिक जगत में ख्याति पाई थी। मालवा की संपन्नता ने राजस्थान के अनेक धनिक व्यापारियों को अपनी ओर आकर्षित किया और वे अपने-अपने कारोबार सहित इंदौर आ बसे। इसमें कोई संदेह नहीं कि मालवा ने उन्हें मालामाल कर दिया।
 
ऐसे घरानों की श्रृंखला में सर्वप्रथम नाम सेठ हुकुमचंदजी के परिवार का आता है। उनके दादाजी श्री मानकचंदजी इंदौर में 'मानकचंद मंगीराम' नामक फर्म के नाम से व्यापार करते थे, जो संपूर्ण मालवा में प्रसिद्ध थी। इस फर्म की प्रसिद्धि व व्यापारिक प्रगति से प्रभावित होकर महाराजा शिवाजीराव होलकर ने फर्म को 'अधकरी' का परवाना दिया था। जिसके कारण इस फर्म को आयात-निर्यात पर लगने वाले कर में 'आधा कर' माफ कर दिया था। इस फर्म को सम्मान प्रदान करने हेतु 1890 में 'ग्यारह पंच' नामक संस्था की सदस्यता प्रदान की गई, जो एक दुर्लभ सम्मान था।
 
मानकचंदजी के 3 पुत्रों सर्वश्री स्वरूपचंदजी, औंकारजी व तिलोकचंदजी ने पिता के बाद संयुक्त रूप से कारोबार संभाला। मालवा व इंदौर में 1857 के स्वाधीनता आंदोलन के कारण हुई उथल-पुथल जब शांत हो गई तो तीनों भाइयों ने 1858 से अफीम व्यापार प्रारंभ किया, जो 1907 ई. तक संयुक्त रूप से चलता रहा। इस अवधि में उन्होंने काफी धन अर्जित किया।
 
इनके कारोबार को उनके पुत्रों ने आगे बढ़ाया। सेठ स्वरूपचंदजी के पुत्र सेठ हुकुमचंदजी, औंकारजी के पुत्र कस्तूरचंदजी तथा तिलोकचंदजी के पुत्र कल्याणमलजी ने उत्तराधिकार में व्यापार ग्रहण किया।
 
हिन्दी और इंग्लिश का सामान्य ज्ञान अर्जित कर लेने के बाद 15 वर्ष की आयु में ही हुकुमचंदजी ने अपने पिता की फर्म का कारोबार अपने हाथ में लेकर स्वयं को व्यापारिक गतिविधियों में लगा दिया था। इंदौर, उज्जैन, बंबई और कलकत्ता में उनकी फर्म 'स्वरूपचंद हुकुमचंद' की शाखाओं ने बड़ी तेजी से प्रगति की और धीरे-धीरे कपास व चांदी के व्यापार क्षेत्र में उन्होंने अपनी धाक जमा दी।

यह एक कहावत बन गई थी हुकुमचंदजी प्रति रात निद्रा में जाने के पूर्व करोड़ों के घाटे में होते हैं या उन्हें करोड़ों का लाभ मिलता है। हुकुमचंदजी ने नगर में अनेक भव्य इमारतों का निर्माण करवाया, जिनमें घंटाघर, रंगमहल, जवेरी बाग (नसिया) तथा जैन संस्कृत महाविद्यालय आदि उल्लेखनीय हैं। हुकुमचंद मिल में हजारों श्रमिकों को रोजगार मिला था।
 
1910 ई. के बाद चीन के साथ अफीम व्यापार का एकाधिकार हुकुमचंदजी को मिल गया था जिससे फर्म ने भारी लाभ अर्जित किया।
 
इनकी पत्नी श्रीमती कंचनबाई भी समाजसेवा, विशेषकर महिला शिक्षा के लिए बहुत रुचि रखती थीं। सेठजी व उनकी पत्नी दोनों ही अत्यंत सरल व धार्मिक प्रवृत्ति के थे। हुकुमचंदजी दिगंबर जैन समाज की अनेक संस्थाओं के पदाधिकारी रहे और उन्होंने काफी दान भी दिया। जिसके कारण उन्हें 'दानवीर' संबोधित किया जाता था। समाज के दीन-दु:खियों की सहायता के लिए व अन्य संस्थाओं में कल्याणकारी गतिविधियों के लिए उन्होंने लगभग 19 लाख रु. व्यय किए थे।
 
उनके व्यापारिक कौशल के सभी कायल थे। चाहे होलकर महाराजा हों या अंग्रेज अधिकारी। उनकी विलक्षण प्रतिभा को ब्रिटिश सरकार ने भी सम्मानित करते हुए उन्हें 1915 ई. में 'रायबहादुर' व 1918 में 'नाइट हुड' का खिताब अता किया था।
 
होलकर महाराजा ने भी 1920 ई. उन्हें 'राज्य भूषण' की पदवी से गौरवान्वित किया और उन्हें 'सरदार' का सम्मान देने के साथ-साथ हुकुमचंदजी को हाथी की सवारी हौदे पर बैठकर करने की अनुमति प्रदान की थी। वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ व्यापारी थे, जिन्होंने इंदौर नगर की संपन्नता में भी बड़ा योगदान दिया।

यह एक कहावत बन गई थी हुकुमचंदजी प्रति रात निद्रा में जाने के पूर्व करोड़ों के घाटे में होते हैं या उन्हें करोड़ों का लाभ मिलता है।
 
जब होलकर स्टेट में रेलवे प्रारंभ करने की बात चली तो अंग्रेजों को होलकर राज्य द्वारा 1 करोड़ रु. का ऋण देना तय हुआ, जो बहुत लंबी अवधि के लिए कम ब्याज पर दिया जाना था। इतनी बड़ी धनराशि देने के लिए भी रामप्रतापजी को ही राज्य ने माध्यम बनाया।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि होलकर राज्य द्वारा किए जाने वाले हर बड़े लेन-देन में सेठजी की सलाह अवश्य ली जाती थी। उनके निवास पर महराजा तुकोजीराव (द्वितीय) व उनके पुत्र शिवाजीराव होलकर ने कई मर्तबा आतिथ्य स्वीकारा।
 
सेठ रामप्रतापजी
राजस्थान के जयपुर राज्य के अंतर्गत पड़ने वाले फतेहपुर के निवासी सेठ रामप्रतापजी ने इंदौर की व्यापारिक ख्याति सुनकर अपना भाग्य आजमाने का निश्चय किया और वे महाराजा हरिराव होलकर के शासनकाल में (1844 ई.) में इंदौर आ गए। इंदौर में उन्होंने सर्राफ का व्यवसाय प्रारंभ किया। उनकी ईमानदारी और‍ निष्ठा ने उन्हें शीघ्र ही नगर का प्रतिष्ठित सर्राफ बना दिया था।
 
नागरिकों के मध्य व्याप्त ख्‍याति, शीघ्र ही महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) तक पहुंची। महाराजा ने इस व्यापारिक परिवार को न केवल प्रोत्साहन व संरक्षण ही दिया, अपितु राजपरिवार के लिए खरीदे जाने वाले मूल्यवान आभूषणों व स्वर्ण निर्मित वस्तुओं का क्रय सेठ रामप्रसादजी के परामर्श व अनुमोदन पर ही किया जाने लगा। राजपरिवार का विश्वास सेठजी ने पूरी तरह अर्जित कर लिया था
 
इंदौर उन दिनों अफीम का विश्वप्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र बन चुका था। अफीम व्यापार ने सेठ रामप्रताप को भी आकर्षित किया। उन्होंने इस व्यापार में भी काफी धन कमाया।
 
1862 ई. में महाराजा ने एक आदेश प्रसारित किया, जिसके अनुसार साहूकारों को ऋण देने या उनसे पैसा वसूलने का कार्य राजकीय हुंडी विभाग द्वारा सेठ रामप्रताप के मार्फत किया जाने लगा। सेठजी ने राज्य द्वारा प्रदत्त इस दायित्व का बखूबी निर्वाह किया और राजकीय कोष को लगभग 25 लाख रु. का लाभ करवाया। यहां यह तथ्‍य उल्लेखनीय है कि इस कार्य के बदले सेठ रामप्रतापजी ने राज्य से किसी प्रकार का वेतन या पारिश्रमिक नहीं लिया।
 
सेठ रामप्रतापजी व उनके पुत्र श्री हरविलास को राज्य की ओर से विशेष सम्मान प्राप्त था। उन्हें नगर की प्रमुख व्यापारिक संस्था 'ग्यारह पंच' का सदस्य मनोनीत किया गया था। इंदौर नगर की व्यापारिक प्रगति में इस परिवार का उल्लेखनीय योगदान रहा है।
 
शिवजीराम सालिगराम
जोधपुर राज्य के डीडवाना नामक स्थान से यह परिवार 1825-26 ई. में इंदौर आया और मालवा की समृद्धि ने इस परिवार को यहीं स्थायित्व प्रदान कर दिया। शिवजीराम सालिगराम नाम से कार्यरत इस फर्म ने पहले बैंकिंग व्यवसाय प्रारंभ किया था तत्पश्चात अन्य व्यापारियों की भांति इस प्रतिष्ठान ने भी अफीम व्यापार को अपना लिया। व्यापारिक गतिविधियां बढ़ाने के लिए इस फर्म ने बंबई, सीहोर और सुनेल में अपनी शाखाएं स्थापित कीं।
 
इस परिवार ने जयकृष्ण को गोद लिया जिन्होंने परिवार की परंपराओं को आगे बढ़ाया। नगर में स्थापित स्टेट कपड़ा मिल का व्यवस्थापन जब गड़बड़ाने लगा और इस औद्योगिक इकाई से राज्य को आर्थिक क्षति होने लगी तो महाराजा ने स्टेट मिल को ठेके पर देने का निर्णय लिया।

नगर की व्यापारोत्तेजक कंपनी ने इस मिल के संचालन का ठेका लिया। इस कंपनी के शेयरों में आधे शेयर जयकृष्णजी ने खरीद लिए थे। वे स्टेट मिल के व्यवस्थापक बने व मिल को सफलतापूर्वक चलाया। जयकृष्णजी को 'ग्यारह पंच' का सदस्य महाराजा द्वारा मनोनीत किया गया था और साथ ही मानसेवी न्यायाधीश भी बनाया गया था।
 
इस परिवार ने जहां व्यापार के क्षेत्र में काफी धन अर्जित किया, वहीं अर्जित धन को लोक कल्याणकारी कार्यों में खर्च कर एक अनुकरणीय उदाहरण भी प्रस्तुत किया। इस परिवार द्वारा उज्जैन का प्रसिद्ध नरसिंह मंदिर बनवाया गया था। ओंकारेश्वर में 50 वर्षों से भी अधिक समय तक अन्नछत्र संचालित किया जाता रहा। वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार व भारतीय संस्कृति के विस्तार हेतु इंदौर के बियाबानी क्षेत्र में एक संस्कृत पाठशाला संचालित की जाती थी और छत्रीबाग में निर्धनों के लिए एक 'अन्नछत्र चलाया जाता था।
 
ऋषिकेश, आगरा और इस परिवार के मूल स्थान डीडवाना में भी इस परिवार द्वारा कल्याणकारी कार्यों पर पर्याप्त धन खर्च किया गया। मोरटक्का की धर्मशाला को भी सेठ जयकृष्ण ने 7000 रु. की लागत से दुरुस्त करवाया था। नि:संदेह इस परिवार ने इंदौर नगर के अन्य संपन्न व्यापारियों के लिए लोक कल्याण के क्षेत्र में कार्य करने की एक नजीर कायम की।
 
बिनोदीराम बालचंदजी
सेठ बिनोदीराम अपने परिवार के साथ 1824 ई. में इंदौर आकर बसे। वह समय होलकर राज्य में संक्रमण काल का था। इंदौर नई राजधानी बना था और यहां अंग्रेजों द्वारा रेसीडेंसी की स्थापना की जा रही थी। व्यपार की भावी संभावनाएं ही इस परिवार को जोधपुर राज्य के नागौर क्षेत्र में स्थित झालरापाटन से इंदौर खींच लाई थी।
 
राजस्थान से अन्य व्यापारी परिवारों की भांति ही इस परिवार ने भी अफीम व्यापार प्रारंभ किया, जिसमें इन्हें बहुत अधिक लाभ हुआ। धीरे-धीरे यह व्यापार ही इनकी समृद्धि का आधार बना। व्यवसाय के विस्तार के साथ ही इस फर्म के मुनीम डूंगरसीदास व बिनोदीराम के बहनोई ने बंबई में एक शाखा प्रारंभ की।
 
1844 ई. में जन्मे बिनोदीराम के पुत्र बालचंदजी ने भी परिवार के व्यापार को काफी विस्तार दिया। इस परिवार को महाराजा तुकोजीराव होलकर (द्वितीय) ने पर्याप्त सम्मान दिया। विशेष अवसरों पर महाराजा ने बिनोदीरामजी, उनके पुत्र बालचंदजी व इस परिवार की महिलाओं व मुनीम को भी उपहार प्रदान कर सम्मानित किया था।
 
महाराजा तुकोजीराव अपने राज्य में व्यापार-व्यवसाय की वृद्धि हेतु सदैव प्रयासरत रहते थे। उनकी गहरी रुचि आर्थिक मामलों में थी। व्यापार प्रोत्साहन हेतु ही महाराजा ने इंदौर के कुछ अग्रणी व्यापारिक घरानों को 'अधकरी' व 'पावकरी' प्राप्त थी, जिसके अंतर्गत इस फर्म को राज्य द्वारा निर्धारित चुंगीकर पर आधी छूट प्रदान की गई थी।
 
इस परिवार में सेठ दीपचंदजी का 1881 ई. में जब विवाह तय हुआ तो महाराजा ने अपनी ओर से एक हाथी और 15 अश्वारोही झालरापाटन भिजवाए। यह काफिला बूंदी तक दीपचंदजी की बारात में भी गया था।
 
इस फर्म ने आगे चलकर कपास व्यवसाय प्रारंभ किया और निमाड़ से बड़ी मात्रा में कपास क्रय किया। धीरे-धीरे वे निमाड़ में सबसे बड़े व्यापारी बन गए। उज्जैन की बिनोद मिल के संचालन में इस परिवार का बड़ा योगदान रहा।
 
इस फर्म के मुनीम लूणकरणजी बहुत ही योग्य, बुद्धिमान व ईमानदार व्यक्ति थे जिन्होंने बहुत निष्ठापूर्वक फर्म के कार्यों को आगे बढ़ाया। इस फर्म की 20 दुकानें, 5 जीनिंग फैक्टरी व 2 जीनिंग-प्रेसिंग फैक्टरी थीं।
 
इस परिवार ने इंदौर में रहकर जो यश, कीर्ति व दौलत अर्जित की थी, उसी का परिणाम था कि इस परिवार को राजस्‍थान के झालावाड़ दरबार ने सम्मानित किया था। परिवार के चारों भाइयों को दरबार में सम्मानसूचक संबोधनों से पुकारा जाता था। सेठ माणिकचंदजी व लालचंदजी को अपने नाम के साथ 'जी' शब्द जोड़ने की अनुमति दरबार ने प्रदान की थी।
 
सेठ दीपचंदजी का 1917 ई. में देहावसान हो गया था। उनके पुत्र भंवरलाल ने पिता के कार्यों को आगे बढ़ाया। इसी परिवार के सेठ माणिकचंदजी को ग्वालियर के सिंधिया राजपरिवार द्वारा 'ताजिर-उलमुल्क' की उपाधि से सम्मानित किया गया और उन्हें ग्वालियर राज्य के आर्थिक विकास बोर्ड का सदस्य मनोनीत किया गया। इंदौर नगर के आर्थिक विकास व व्यापार विस्तार में इस परिवार का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

यह एक संयोग ही था कि सेठ दीपचंद के विवाह के एक वर्ष की अवधि में ही, 1882 ई. में इस परिवार पर भीषण आर्थिक संकट आया, फर्म के भंडार में लगभग 4000 चेस्ट अफीम थी। अचानक अफीम के दाम बहुत नीचे गिर गए। संकट के उन दिनों में जहां अवसरवादियों ने इस परिवार को आर्थिक आघात पहुंचाने के प्रयास किए, वहीं महाराजा का अविस्मरणीय योगदान इस फर्म को मिला।

महाराजा ने इस फर्म को आश्वासन दिया कि फर्म को जितने भी धन की आवश्यकता होगी, राज्य द्वारा उसका भुगतान किया जाएगा। उधर 1899 ई. में बालचंदजी का देहावसान हो गया, जो इस फर्म के लिए अपूरणीय क्षति थी।
 
तिलोकचंद कल्याणमल
रायबहादुर कल्याणमलजी का परिवार भी मूलत: राजस्थान से आकर इंदौर में बसा था। रिश्ते में वे सर सेठ हुकुमचंदजी के चचेरे भाई थे। आपके परिवार ने इंदौर नगर में न केवल व्यापारिक कारोबार बढ़ाया, अपितु कल्याणमल मिल की स्थापना करके हजारों श्रमिकों के लिए रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराए थे।

महाराजा तुकोजीराव ने स्वयं उपस्थित होकर इस कपड़ा मिल का शुभारंभ किया था और इसकी सफलता के लिए अपनी शुभकामनाएं दी थीं। इंदौर नगर में शिक्षा के विस्तार की ओर ध्यान देने वाला यह पहला परिवार था, जिसने तिलोकचंद जैन हाईस्कूल की स्‍थापना की। निर्धनों व जरूरतमंदों की सहायता करना उनकी दैनिक दिनचर्या का अंग बन गया था।

बखतराम बच्छराज
राजस्थान के जोधपुर राज्य के अनेक व्यापार इंदौर आ बसे थे या इंदौर के व्यापारियों के साथ उनका लेन-देन होता था। मालवा की समृद्धि व विशेषकर अफीम व्यापार उनके आकर्षण का केंद्र था। राजस्थान के अन्य व्यापारिक घरानों की तरह इस फर्म के संस्थापक भी नागौर से आकर 1825-30 के मध्य इंदौर में स्थापित हुए।

इस संस्‍थान की एक शाखा श्रीकृष्ण गोपीनाथ के नाम से उज्जैन में भी संचालित होती रही। इस फर्म ने प्रमुख रूप से अफीम और कपास का व्यवसाय किया, जो मालवा व निमाड़ के प्रमुख कृषि उत्पाद थे। इस फर्म के सेठ मांगीलालजी को इंदौर की प्रतिष्ठित संस्था 'ग्यारह पंच' का सदस्य मनोनीत किया गया था और होलकर दरबार में उन्हें ससम्मान कुर्सी प्रदान की जाती थी।
 
इस फर्म को जो सम्मान मिला, वह इसलिए नहीं था कि फर्म ने अपने कारोबार के माध्यम से काफी धन-संपत्ति अर्जित की थी, अपितु इसलिए कि इस फर्म ने बड़ी उदारतापूर्वक कल्याणकारी व धार्मिक कार्यों पर काफी धन व्यय किया था। इस फर्म के मालिक द्वारा इंदौर, उज्जैन व सूरत में राधा-कृष्ण मंदिरों का निर्माण करवाया गया था। श्री पुष्करराज में सत्यनारायण मंदिर भी इन्हीं के द्वारा बनवाया गया था। इंदौर व ऋषिकेश में उनके द्वारा अन्नछत्र चलाए जाते थे।
 
बलदेवदास गोरखराम
बलदेवदास गोरखराम फर्म के संस्थापक भी राजस्थान के जयपुर राज्य में स्थित लक्ष्मणगढ़ के निवासी थे, जो व्यापार-व्यवसाय के उद्देश्य से 1866 ई. में इंदौर आ बसे थे। सेठ गोरखराम ने इस फर्म की स्थापना यहां की थी।
 
इस फर्म के जव्हारमलजी से महाराजा तुकोजीराव (द्वितीय) बहुत प्रसन्न थे और इस फर्म की उन्नति के लिए उनका आशीष प्राप्त था। महांराजा शिवाजीराव ने सेठ जव्हारमल को इंदौर की सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्‍था 'ग्यारह पंच' का सदस्य मनोनीत किया था।

अफीम व्यापार से संबंधित यदि कोई भी विवाद राज्य सरकार के समक्ष उपस्थित होता था तो महाराजा तुकोजीराव, इस फर्म के सेठ जव्हारमल का अभिमत अवश्य लिया करते थे। इस फर्म ने अफीम व्यापार के क्षेत्र में अच्छी ख्याति अर्जित की थी। फर्म ने बंबई, धूलिया और भोपाल में अपनी शाखाएं कायम की थीं।
 
उक्त 7 व्यापारिक घरानों के विवरणों को प्रतीकस्वरूप ग्रहण कर लिया जाए तो हम पाते हैं कि लगभग सभी वणिक थे, जो राजस्थान से नवस्थापित होलकर राजधानी इंदौर की ओर व्यापार की लालसा से आकर्षित हुए थे और इंदौर आ बसे थे। इन व्यापारिक घरानों ने यद्यपि राजस्थान के अपने मूल निवास स्थानों के साथ जीवंत संपर्क बनाए रखे थे किंतु इंदौर को ही उन्होंने अपनी कर्मस्थली बनाया और यहीं स्थाई रूप से बस गए।
 
प्राय: सभी ने तत्कालीन अफीम व्यापार को अपनाया, जिसके कारण व्यापारियों को तो भारी लाभ हुआ ही, इंदौर अफीम व्यापार का विश्व का प्रमुख केंद्र बन गया। इन व्यापारिक घरानों ने नगर से बाहर भी बंबई, उज्जैन व भोपाल में अपनी व्यापारिक शाखाएं स्थापित कीं,‍ जिसके फलस्वरूप अंतरनगरीय व्यापार को बढ़ावा मिला।
 
इन व्यापारियों ने अर्जित धन को औद्योगिक इकाइयां स्थापित करने में लगाया, जिससे रोजगार के अवसर उपजे। नगर की समृद्धि में इजाफा करने के साथ-साथ इन धनाढ्य व्यापारियों ने अनेक लोक कल्याणकारी ग‍तिविधियों को चलाया, जिनके लिए इंदौर नगर सदैव उपकृत रहेगा।