- संस्मरण कविता
यह केवल एक पर्वत नहीं,
यह वह थल है जहां पृथ्वी ने सांसें लेना सीखा
जहां नदियों ने मंत्र रचाए,
और वनों ने जप किए
सांझ की मंद बयार में।
यहां पत्थरों पर लिखा है ध्यान,
यहां वृक्षों की छाल पर उकेरी गई हैं
अभिनव प्रार्थनाएं।
यहां हवा में गूंजती है एक मौन पुकार
मल्लिकार्जुन…
शब्द समाप्त हो जाते हैं,
पर नाम चलता है
नाम नहीं, वह स्पंदन है
जिसमें शिव और शक्ति दोनों बसते हैं।
श्री शैल पर
वह शिव हैं,
जो संन्यासी भी हैं,
और पति भी।
वह शक्ति हैं,
जो विरह में भी पूर्ण हैं
और मिलन में भी मौन।
यहां पर्वत झुकता है
जैसे किसी ध्यानस्थ ऋषि की रीढ़,
और ऊपर
नीले नभ में एक अगोचर शिवलिंग
हर दृष्टि को अपने भीतर खींच लेता है।
श्रद्धालु आते हैं
सड़क पर, जंगलों से, जलमार्ग से,
कुछ पैरों में छाले लिए,
कुछ आंखों में आंसुओं का जल लिए
वे नहीं जानते
क्या मांगना है,
वे केवल अर्पण करने आते हैं
स्वयं को।
यहां शक्ति शिव की प्रतीक्षा नहीं करती,
और न शिव उसे खोजते हैं।
वे दोनों एक ही नाद में घुले हैं,
एक ही दीप में जलते हैं,
एक ही श्वास में लयबद्ध।
जब संध्या होती है,
श्री शैल पर्वत पर
सूरज एकदम नहीं ढलता
वह रुकता है,
ठहरता है,
मानो शिव के नेत्रों की ज्वाला में
अपना तेज समर्पित करता हो।
यहां रात्रि का अंधकार भी
चमकता है।
चंद्रमा नहीं होता,
फिर भी ज्यों कोई चंदन की गंध
मन को छू जाती है।
मल्लिकार्जुन
शब्द नहीं,
यह एक सन्नाटा है
जिसमें शिव का औघड़पन
और पार्वती की प्रतीक्षा
मिलते हैं एक आलोक में।
यहां दर्शन से पहले
अदर्शन होता है।
तपस्वी नहीं बनते लोग
बल्कि टूटते हैं,
और उस टूटन में
उनका ईश्वर आकार लेता है।
श्री शैल पर कोई आरती नहीं होती
जो ध्वनि से आरंभ हो
वहां
धड़कनों में बजती है घंटियां,
श्वासों में उठते हैं श्लोक,
और आंखों में जलती हैं दीपशिखाएं।
मल्लिकार्जुन वह क्षण है
जहां सब थमता है
और सब चलता भी है।
यह प्रस्थान नहीं,
यह संयोग है।
यह केवल तीर्थ नहीं
यह आत्मा की छाया है,
जिसमें विराजे शिव
हमें हमारे ही भीतर ले जाते हैं—
शांत,
शून्य,
परिपूर्ण।
(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)