बाबूजी धीरे चलना: गीता दत्त ने जब इस गीत को गाया तो बूढ़े जवान हो गए | गीत गंगा
नैयर साहब का ही रिद्म है, ढांचा है, कल्पना है और ऑर्केस्ट्रा की आंतरिक बुनावट है, जिस पर गीता दत्त कमाल करती हैं
गीता दत्त ने जब इस गीत को गाया तो बूढ़े जवान हो गए
गीत की खूबी यह है कि वह अचानक और झटके से शुरू होता है
इसमें अकॉर्डियन का उपयोग प्राधान्य के साथ किया गया है
यह अक्सर सुनाई पड़ते रहने वाला देश के सबसे मशहूर फिल्मी गीतों में से एक है। इससे बच्चा-बच्चा वाकिफ है। इसकी जनव्यापी लोकप्रियता का श्रेय किसे दें? नैयर साहब को? गीता दत्त को? गुरु दत्त को। मेरी ओर से जवाब है, धुन को। इसलिए नैयर साहब को। नैयर साहब का ही रिद्म है, ढांचा है, कल्पना है और ऑर्केस्ट्रा की आंतरिक बुनावट है, जिस पर गीता दत्त कमाल करती हैं। यह गीत यद्यपि गीता की नशीली, ठस्सेदार और चुलबुली गायिकी के कारण मशहूर और लोकप्रिय हुआ। इसके जादू के पीछे असल आधार नैयर साहब के कंसेप्शन और कल्पना का है। सन् 53 के साल, जब नैयर साहब फिल्म 'आर-पार' के गानों के लिए धुन खोज रहे थे, एक कैंची धुन त्रियाम के भीतर आ गई और एक इतिहास रच गया।
गीत की खूबी यह है कि वह अचानक और झटके से शुरू होता है। 'बाबूजी धीरे चलना' इस पंक्ति के पहले कोई संगीत नहीं है। यह प्रयोग पहली बार हुआ था और इसे गुरु दत्त ने सुझाया था। यह प्रयोग आप 'सी.आई.डी.' के 'आंखों ही आंखों में इशारा हो गया...' में भी देखते हैं। इस गीत की दूसरी खूबी यह है कि यह ठसकदार रिदम के भीतर चलता है और ढोलक का सुहाना प्रयोग करता है।
आप पूछ सकते हैं- लय और ताल में क्या फर्क है। इसे यूं समझ लीजिए कि नदी बह रही है, यह लय है और चट्टानों से ऊपर-नीचे बहती है, यह ताल है। लय सुनकर मन गुनगुना पड़ता है। ताल सुनकर हाथ-पैर हरकत में आ जाते हैं। 'बाबूजी धीरे चलना' नैयर का शायद सबसे ज्यादा ताल प्रधान गीत है।
इस गीत की तीसरी खूबी यह है कि इसमें अकॉर्डियन का उपयोग प्राधान्य के साथ किया गया है और उसकी अठखेलियां सुनते ही बनती है। उस समय जो 'क्लब-संगीत' की विधा विकसित हुई थी और शंकर-जयकिशन की लोकप्रियता अकॉर्डियन से शुरू हुई थी, नैयर ने इस गीत की धुन क्लब-संगीत पर ढाली और खुलकर अकॉर्डियन का दोहन किया। आगे का इतिहास यह है कि गीता दत्त ने इस धुन और ऑर्केस्ट्रा के साथ अपनी सर्दीली तड़पाती हुई मादक के साथ, जब इस गीत को गाया तो बूढ़े जवान हो गए। जवानों ने जीभ पर गुलाब के कांटे चुभो लिए।
मजरूह साहब की कलम देखिए-
बाबूजी धीरे चलना(ढोलक की ताल, गौर करें)
प्यार में ज़रा संभलना (अकॉर्डियन का मनमोहक पीसअ और बड़े नाज से गीता का)
हांऽऽऽ/ बड़े धोखे हैं/ बड़े धोखे हैं इस राह में!
(इसके बाद पूरा ऑर्केस्ट्रा झटके से एक क्षण के लिए रुक जाता है और इस कर्णप्रिय 'गेप' के साथ लाइन फिर उठान लेती है।)
बाबूजी धीरे चलना...
(आगे ऑर्केस्ट्रा तेज होता है, अकॉर्डियन मेलडी फुफकारता है और नैयर की मशहूर ढोलक गड़गड़ाती हुई नायिका को अंतरा सौंप देती है। आप सुनते हैं।)
क्यों हो खोए हुए सर झुकाए, जैसे जाते हो सब कुछ लुटाए,
ये तो बाबूजी पहला कदम है, नजर आते हैं अपने पराए
(क्षणांश का स्थगन। और ढोलक की ताल के ऐन साथ गीत का खास ढंग से 'हांऽऽऽ' बोलकर तीनों लोक लूट जाना।
'हांऽऽऽ, बड़े धोखे हैं/ बड़े धोखे हैं इस राह में!
(लगता है किसी ने हमें फूलों से उठाकर फूलों पर फेंक दिया।)
ये मोहब्बत है ओ भोले भाले, कर ना दिल को गमों के हवाले,
काम उल्फत का नाज़ुक बहुत है, आके होठों पे टूटेंगे प्याले
हांऽऽऽ, बड़े धोखे हैं...
(और देखिए, इन चलते-फिरते सड़किया गीतों में भी तब के शायर, तब के संगीतकार, तब के निर्माता कैसे सार्वभौमिक सूत्र वाक्य पिरो जाते थे। सस्ते सिनेमा की यह गंभीर गीत)
हो गई है किसी से जो अनबन, थाम ले दूसरा कोई दामन,
ज़िंदगानी की राहें अजब हैं, हो अकेला है तो लाखों हैं दुश्मन,
(और मुखड़े पर लौटता हुआ यह सदा जवां, सदा इठलाता गीत खत्म हो जाता है।)
अब न गीता हैं, न गुरु दत्त हैं, न नैयर का साम्राज्य है। ब्लैक एंड व्हाइट का वो जमाना चला गया। समंदर के किनारे के वे प्यारे दृश्य चले गए, जिनमें चमकती रेत पर रात के गाने होते थे। उस दौर को, जब आप कभी वापस नहीं बुला सकते। मुंह में राख का स्वाद बना रहेगा और चीजों के बीच से रस के तागे के निकल जाने का दंश सालता रहेगा। पर इस माया को सिनेमा ने रचा था, तो इस माया को खुद सिनेमा तोड़ भी देता है। यूं कि फिर से कानों में गुजरा दौर लौट आता है (रेडियो से, टेप रिकॉर्डर से)- 'बाबूजी धीरे चलना।' और लगता है कलाओं की दुनिया में कब्रस्तान नहीं होते।
(अजातशत्रु द्वारा लिखित पुस्तक 'गीत गंगा खण्ड 1' से साभार, प्रकाशक: लाभचन्द प्रकाशन)