वर्ष 1958 में हिन्दी सिनेमा में एक महत्वपूर्ण घटना घटी। अनभ्रयात की तरह एक नया संगीतकार प्रकट हुआ और उसने फिल्म संगीत के एक नए युग का सूत्रपात किया। आते ही उसने स्थापित कर दिया कि शंकर-जयकिशन की जोड़ी से वह थोड़ा ही कम है। मगर कहीं-कहीं मौलिक भी है। और आगे यह सही साबित हुआ। संगीत का यह नया सितारा कल्याणजी थे, जो अपने संगीतकार पिता के साथ जोड़ी बनाकर आए थे। रातमरात यह जोड़ी कल्याणजी-वीरजी शाह के नाम से मशहूर हो गई।
उस साल उनके संगीत की दो फिल्में रिलीज हुईं- 'सम्राट चंद्रगुप्त' और 'पोस्ट बॉक्स 999।' दोनों फिल्मों के गानों ने धूम मचा दी। 'सम्राट चंद्रगुप्त' की मूसलधार मेलडी को तो शंकर-जयकिशन भी मान गए। इसी जोड़ी ने यह मशहूर हेमंत-लता डुएट दिया, जो फिल्म 'पोस्ट बॉक्स 999' का है। इस गीत को पी.एल. संतोषी ने लिखा था, जो गुजरे जमाने के नामचीन गीतकार थे। परदे पर यह गीत सुनील दत्त और शकीला पर आया था।
प्रश्न है कि यह गीत इतना पॉपुलर क्यों हुआ और आज भी चाव से क्यों सुना जाता है? देखा जाए तो इसकी धुन ऐसी विशेष नहीं है कि हमें हैरान कर दे, मिठास से सराबोर कर दे! असल में इस गीत की जान रात का सन्नाटा है, जो यह गीत बुनता है। दूसरे, यह गीत एक किस्म के वैराट्य और गहराई का अहसास कराता है और आम गीत की फ्रेम के बाहर जाता है। तीसरे, इस गीत की कविता हम सबके जज्बात को समेटती है। हमने भले ही प्रेम न किया हो, पर हम सब प्रेमी हैं। हम सब रात की तनहाई, वियोग, संबंध विच्छेद और प्रेम के टूट जाने के दर्द को जानते हैं। सो यह व्याकुल गीत हमें अपने में समो लेता है और इसे हम भी समो लेते हैं।
गीत की लोकप्रियता का एक कारण यह भी है कि इसे हेमंत और लता मंगेशकर की जोड़ी ने गाया है। इस जोड़ी के तमाम गीत एक किस्म की स्वच्छता, सुशीलता और शालीनता का अहसास कराते हैं और किसी सुसंस्कृत, कोमल और भद्र प्रेमी युगल की तस्वीर मन में उभारते हैं। मगर ये सब ज्ञेय और ज्ञात कारण है। साहित्य, कला, संगीत में एक तीसरी चीज भी होती है- अक्सर गुप्त और प्रच्छन्न- जो गिनती के नहीं, अनुभूति के दायरे में आती है। वह चीज है, टोटल इफेक्ट या जनरल इम्प्रेशन, जो कृति-विशेष से उपजता है!
इस गीत की लोकप्रियता का गूढ़ कारण यह है कि इसमें एक किस्म का अतीन्द्रिय स्पर्श है। सादगी की गौरवपूर्ण भव्यता है। गीत में भराव और फैलाव भी अच्छा-खासा है। हेमंत की गुरु-गंभीर, रहस्यमय, परामानवी आवाज के कारण ऐसा लगता है कि इस गीत को इंसान के अलावा पहाड़, घाटियाँ, दूरियाँ और दुनिया की तमाम रातें मिलकर गा रही हैं और कुदरत का जर्रा-जर्रा विरह की वेदना में डूब गया है। ढलती रात, मुरझाई चाँदनी, निढाल पेड़, सिलगते पहाड़ों और घाटियों में दर्द की तरह जमे हुए धुएँ की कल्पना के बगैर आप इस गीत को नहीं सुन सकते। हेमंत और लता ने इस गीत को सघन और विराट बना दिया है! पढ़िए, शब्द रचना-
हेमंत : ओऽऽ नींद न मुझको आएऽऽ, दिल मेरा घबराए/ चुपके-चुपके कोई आके, सोया प्यार जगाए लता : ओऽऽ नींद न मुझको आए, ...सोया प्यार जगाए दोनों : ओऽऽऽ, नींद न मुझको आए (आगे अंतरा) हेमंत : सोया हुआ संसार है, सोया हुआ संसार (संगीत के बाद, पुनः यही लाइन) मैं जागूँ यहाँ, तू जागे वहाँ, एक दिल में दर्द दबाए लता : ओऽऽ नींद न मुझको आए ...सोया प्यार जगाए! दोनों : ओऽऽऽ नींद न मुझको आए! (आगे अंतरा) लता : एक बीच में दीवार है, एक बीच में दीवार (संगीत और पुनः यही लाइन) मैं तड़पूँ यहाँ, तू तड़पे वहाँ हाय, चैन जिया नहीं पाए दोनों : ओ नींद न मुझको आए ....सोया प्यार जगाए! ओ नींद न मुझको आए!
(साउंड ट्रैक पर तीसरा अंतरा भी है- 'मैं हूँ यहाँ बेकरार, और तू है वहाँ बेकरार' (हेमंत) मगर रिकॉर्ड में अक्सर दो ही अंतरे होते हैं! खैर)
वास्तव में रात की तन्हाई और विरह-वेदना का यह बेहद संवेदनशील गीत है। अपनी विराटता और गायन आर्केस्ट्रेशन के आंतरिक वैभव के कारण यह गीत एक युगल जोड़ी से उठकर सार्वभौमिक हो गया है। आँख मूँदकर इसे सुनिए। ऐसा महसूस होगा, जैसे इसे दो इंसान नहीं, समूचा लोकाल गा रहा है और तराइयाँ गूँज के द्वारा इसे लौटा रही हैं। इस इफेक्ट को देने में और रात की तन्हाई को गाढ़ा करने में के.वी. शाह की वायलिनों का भी बहुत हाथ है। इसे आप एक मुकम्मल गीत कह सकते हैं, जैसे एस.डी. बर्मन का 'ये रात ये चाँदनी फिर कहाँ' (हेमंत/जाल) एक मुकम्मल गीत रहा है।