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सर्वहारा के कवि गजानन माधव मुक्तिबोध

सर्वहारा के कवि गजानन माधव मुक्तिबोध - writer muktibodh hindi literature, poet gajanan madhav muktibodh
टूटी साइकिल, सीट का उखड़ा कवर, पैडल नहीं, केवल उसका ढांचा, साइकिल पर फटे पांयचों वाली पतलून पहने, ‘न्यू एज’ की प्रतियां ग्राहकों तक पहुंचाने वाले तथा कच्चे मकान, अभावग्रस्त मोहल्ले, पानी के लिए चौराहे पर बने सार्वजनिक नलके की लाइन में लगने वाले जबलपुर के हाईस्कूल के टीचर।

ये मुक्तिबोध थे, ‘तार सप्तक’ के पहले जाज्वल्यमान कवि। न केवल कवि, इतिहासकार, निबंधकार, कहानीकार... बल्कि ऊबड़खाबड़ जीवन जीने वाले ऊबड़खाबड़ रचनाकार। उनकी कविताएं रोंगटे खड़े कर देती हैं। जितना उन्होंने लिखा, उससे अधिक उनके बारे में दूसरे लेखकों द्वारा लिखा गया है।

गजानन माधव मुक्तिबोध अपनी कविता ‘हर चीज़ जब अपनी’ में कहते हैं – ‘उनके साथ मेरी पटरी बैठती है, हां उन्हीं के साथ/ मेरी यह बिजली भरी ठठरी लेटती है’, ऐसे ही मुक्तिबोध के साथ हमारी पटरी बैठती है इसलिए जितनी बार उन्हें पढ़ा जाए, उतनी बार उनके लिखे के नए अर्थ खुलते हैं। वे कहते हैं ‘याद रखो कभी अकेले में मुक्ति न मिलती, यदि वह है तो सबके साथ ही है’।

यह सर्वहारा का कवि है। मुक्तिबोध की कविताएं किसी एक युग की कविताएं भर नहीं हैं, बल्कि हर युग की भीतरी कसमसाहट और उद्वेलन की कविताएं हैं। वर्गचेतना से भरी उनकी कविताएं हर देश के बेबस की कविताएं हैं। जैसे ये पंक्तियां- ‘लंदन का मज़दूर, फ्रांसीसी गुरिल्ला, युवजन, घूर-घूर वाशिंगटन देखता था’।

उनकी कविता ‘भूल ग़लती’ में वे लिखते हैं, ‘भूल मेरी अपनी कमज़ोरियों के स्याह ज़िरहबख़्तर पहन’... और एक अन्य कविता में वे कहते हैं ‘इस सल्तनत में हर आदमी/ उचककर चढ़ जाना चाहता है/ धक्का देते हुए बढ़ जाना चाहता है/ हर एक को अपनी- अपनी पड़ी है/ चढ़ने की सीढ़ियां सिर पर चढ़ी हुई हैं’। उनकी कविताएं हर व्यक्ति की कविता है इसलिए हर व्यक्ति उनकी कविताओं से जुड़कर पूछ बैठता है ‘पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है’? राजनीतिक सजगता उनकी विशेषता है।

मुक्तिबोध को पढ़ते हुए हर बार लगता है ‘अभिव्यक्ति के ख़तरे’ उठाने ही होंगे। उनकी कहानियां पाठक को भीतर तक हिलाकर रख देती हैं। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ तथा ‘पक्षी और दीमक’ भ्रष्टाचार पर लिखी कहानियां हैं। ‘विपात्र’ नामक लंबी कहानी हो या ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ या ‘भूत का उपचार’-  जैसी हर कहानी हमें अपने ही गिरेबान में झांकने पर मजबूर करती है। ‘समझौता’ कहानी सर्कस कंपनी को ज़रिया बनाकर ‘कराह सुन कैसे चाबुक का ग़ुस्सा तेज़ हो जाता’ बता जाती है। मध्यमवर्गीय मानसिकता ‘जंक्शन’, ‘भूत का उपचार’ और ‘दाखिल दफ़्तर सांझ’ कहानियों में है। ‘प्रश्न’ कहानी में नैतिकता और अनैतिकता के बीच का संघर्ष है। जनसाधारण का विवशताग्रस्त जीवन ‘काठ का सपना’ में है।

मुक्तिबोध के जीवन काल में भारत की आज़ादी, आज़ादी के बाद का स्वप्न-भंग, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पूंजीवादी ताकतों का मज़बूत होना और द्वितीय विश्वयुद्ध जैसी कई ऐतिहासिक घटनाएं हुईं, जो मुक्तिबोध की राजनीतिक टिप्पणियों में झलकती हैं। ‘क्लॉड ईथरली’ कहानी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का दस्तावेज़ है। आर्थिक विघटन का संत्रास ‘उपसंहार’ कहानी में है।

आत्म संघर्ष की तीव्रता में मुक्तिबोध कहते हैं ‘कवि भाषा का निर्माण करता है, जो कवि भाषा का निर्माण करता है, विकास करता है, वह निस्संदेह महान होता है’। उन पर दस्तायेव्स्की, फ्लैबेयर, गोर्की, इमर्सन का प्रभाव दिखता है। उनकी कविताओं में आत्मभर्त्सना, तनाव और द्वंद्व हैं। ‘तार सप्तक’ में अज्ञेय कहते हैं कि ‘मुक्तिबोध बात सीधी न कहकर सूचित करते हैं’।

‘तार सप्तकीय’ वक्तव्य में मुक्तिबोध लिखते हैं ‘मेरी ये कविताएं अपने पथ ढूंढ़ने वाले बेचैन मन की अभिव्यक्ति हैं’। ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ में मनोविज्ञान, तर्कशास्त्र, दर्शन सब नज़र आता है। डायरी के ‘तीसरा क्षण’ शीर्षक लेख में कला के तीन क्षण द्वारा फैंटसी की अवधारणा पर विचार है। ‘दूर तारा’ कविता में छायावाद नहीं, बल्कि शक्ति है। वे छायावाद के बाद की नई कविता के कवि हैं। उनकी ‘अंधेरे में’ नामक कविता बहुत लंबी है, उसमें जैसे आज़ादी के बाद के दो दशकों का इतिहास हो।

अशोक वाजपेयी लिखते हैं ‘एक तरह से मुक्तिबोध की सारी कीर्ति, मरणोत्तर कीर्ति है। उनके जीते जी उनकी कोई भी एकल किताब प्रकाशित नहीं हुई।

हिन्दी में मुक्तिबोध अनोखा आश्चर्य है। इस आश्चर्य का उपनाम कैसे पड़ा यह भी विस्मित करता है। खिलजी शासनकाल में ऋग्वेदी कुलकर्णी ब्राह्मणों के किसी पूर्वज ने ‘मुग्धबोध’ या ‘मुक्तबोध’ नाम से कोई आध्यात्मिक ग्रंथ लिखा। कालांतर में उसी पर उनके वंश का नाम चल पड़ा। अंग्रेज़ी शासन काल में गजानन के परदादा वासुदेव महाराष्ट्र के जलगांव से नौकरी छोड़कर मध्यप्रदेश के तत्कालीन ग्वालियर राज्य के श्योपुर आ गए। गोपालराव, जो कोतवाल थे, के इकलौते पुत्र माधवराव मुक्तिबोध थे। पिता के लगातार तबादलों से मुक्तिबोध की पढ़ाई बाधित होती रही। १९३० में वे मिडिल परीक्षा में फ़ेल हो गए थे। परीक्षा में फ़ेल होना मुक्तिबोध के जीवन की सबसे बड़ी घटना बनी। दूसरी बड़ी घटना उनकी पुस्तक ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’ पर लगा प्रतिबंध था, जिसने उन्हें तोड़ दिया था।

हरिशंकर परसाई ने लिखा है- “जैसे ज़िंदगी में मुक्तिबोध ने किसी से लाभ के लिए समझौता नहीं किया, वैसे मृत्यु से भी कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे। वे गहरे अंतर्द्वंद्व और तीव्र सामाजिक अनुभूति के कवि थे। उन्हें और तरह के क्लेश भी थे। भयंकर तनाव में वे जीते थे। पर फिर भी बेहद उदार, बेहद भावुक आदमी थे। उनके स्वभाव के कुछ विचित्र विरोधाभास थे। पैसे की तंगी में जीनेवाला यह आदमी पैसे को लात भी मारता था…”

मुक्तिबोध को लकवा मार गया था, लेकिन उसके पहले उन्हें ‘परसिक्यूशन मेनिया’ सा हो गया था। उन्हें हवा में तलवारें दिखाई देतीं, रात को सपने में मोटी-मोटी छिपकलियां अपने ऊपर गिरती दिखतीं, वे पसीने-पसीने हो जाते। यदि कोई आदमी उनके पीछे आ रहा होता तो उन्हें लगता कि वह सीआईडी का आदमी है और जासूसी के इरादे से उनका पीछा कर रहा है। अंत के दिनों में उन्हें दिल्ली के भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, एम्स में भर्ती कराया गया। दो-तीन महीने वे अचेत ही थे, उन्हें ट्यूबरकूलर मेनेंजाइटिस हो गया था। केवल ४७ वर्ष की अवस्था में गजानन माधव मुक्तिबोध इस दुनिया से कूच कर गए।
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