करीब सात- आठ साल पहले निर्मल वर्मा को पढ़ा था, उनकी पांचों नॉवेल, सारे निबंध, डायरी, यात्रा वृतांत और उनके अनुवाद.
(खुशी है एकमात्र लेखक हैं, जिसे मैंने आलमोस्ट पूरा पढ़ा है)
उन्हें पढ़ने के बाद लंबे समय तक उनका इम्प्रेशन बना रहा, जब मैं लिखने लगा तो उनके लेखन की खरोंचे मेरे वाक्यों में उभरने लगीं, मुझे नहीं पता चला वे कब मेरी पंक्तियों में जगह बनाने लगे, जब कुछ शुभचिंतकों ने मुझे इस बारे में बताया तो मैंने उस वक्त उनके सामने अपना विस्मय प्रकट किया. लेकिन मन ही मन तो अच्छा लगा.
एक आउटसाइडर के लिए जिसका साहित्य से दूर तक कोई नाता नहीं, उसने उनकी कुछ किताबें पढ़ीं और लोग कह रहे हैं कि उनकी छाप नज़र आने लगी है. यह तो अच्छा है, हम कुछ प्रतिशत ही अपने प्रिय लेखक की तरह लिख लें.
कुछ ने कहा कि तुमने क्यों पढ़ लिया निर्मल जी को? वे ऑब्सेशन हैं, छूटते नहीं, पीछा नहीं छोड़ते.
हालांकि मुझे अब भी पता नहीं, और तब भी पता नहीं था कि शुभचिंतकों का यह कहना तारीफ़ थी, या आलोचना. ज़ाहिर है, मैं कुछ दिनों बाद समझ गया कि अपने लेखक से मुक्त होना होगा. यह मुक्ति थोड़ी दुखदाई थी, लेकिन ज़रूरी थी.
यह सच है निर्मल से मुक्ति मुश्किल है, वे घेरे रहते हैं. लेकिन किसी भी तरह की मुक्ति नामुमकीन नहीं.
दुनिया में कोई भी सत्य आखिरी सत्य नहीं है. सत्य के पीछे दूसरे सत्य की एक और परत होती है, मन के भीतर एक और मन. दुनिया में जगह-जगह बिखरे सत्य के बहुत सारे टुकड़ों में से हम अपनी सहूलियत के लिए अपने-अपने सत्य के टुकड़े चुन लेते हैं. -- और उसे अपना सत्य मान लेते हैं. इस तरह आदमी बहुत सारे सत्य का एक झूठा कबाड़ है.
फिर किसी दिन वो सत्य भी साथ छोड़ देता है, जिसे हमने अपना माना था. खुद निर्मल वर्मा भी सत्य को लेकर किसी नतीजे पर नहीं पहुंचते.
जिंदगी के तमाम तत्वों पर लिखते रहने के बाद भी वे जिंदगी के बारे में कोई फैसला नहीं सुनाते.
अपनी एक नॉवेल को खत्म करने के लिए उसकी सबसे आखिरी पंक्ति में वे एक शब्द Void लिखकर छोड़ देते हैं. एक अंतहीन खालीपन. क्या शून्य भी कोई फैसला है?
सत्य की तरह ही लोग और प्रिय लेखक भी साथ छोड़ देते हैं, उनका साथ नजर आना साथ होना नहीं होता.
यह सच है, एक हद के बाद कुछ जगहों पर आपका प्रिय लेखक गुम हो जाता है. आपको वाक्यों और पंक्तियों के बीच अकेला छोड़ देता है, निर्मल भी यही करते हैं, वे लंबे वक्त तक साथ रहते हैं फिर गुम हो जाते हैं.
लिखने की तमाम यातनाओं और उलझनों के बीच महसूस होता है कि वे तुम्हें खींचकर एक सिरे तक ले आएं हैं/ तुम वो सिरा पकड़कर अपने शब्दों, और पंक्तियों को भोगने लगते हो, अचानक याद आता है कि तुम्हें यहां तक खींचकर कोई लाया था/ पीछे मुड़कर देखने पर कोई नहीं होता, वे जा चुके होते हैं.
लोग भी इसी तरह जाते हैं, लेखक भी.
कहीं गंध रह जाती है, कहीं खरोंचें, कहीं छूटे हुए फुटमार्क.
उनके जाने के बाद हम उनके शब्दों, वाक्यों और आदतों को तह कर के रख लेते हैं, अपनी डिक्शनरी और जेहन में रख लेते हैं- कभी-कभी उन्हें दोहराते हैं.
पता नहीं, अब भी निर्मल के दाग मेरे लिखे में नज़र आते हैं या नहीं, यह कोई सुधिजन ही बता सकता है. सात सालों से उनकी किताबों को हाथ नहीं लगाया. मैं उनसे नजरें चुराकर दूसरी किताबें उठा लेता हूं, इतने साल बाद अब फिर से उन्हें दोबारा पढ़ने की सोच रहा हूं. यह सोचकर कि अगर निर्मल वर्मा कोई नशा है तो फिर से पढ़ने से शायद उतारा हो जाए.