(लेखिका रश्मि भारद्वाज के चर्चित उपन्यास वह साल बयालीस था की विनोद विश्वकर्मा द्वारा समीक्षा)
सुप्रसिद्ध कवयित्री, स्त्री विमर्शकार लेखिका और विचारक रश्मि भारद्वाज का पहला उपन्यास 'वह साल बयालीस था' इस वर्ष प्रकाशित हुआ है, जो अपने विषय और कथ्य की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। समाज में स्त्री का स्वरूप कैसा हो? इस विषय पर अनेक बार विचार किया जाता रहा है। वास्तव में मुद्दा यह है कि स्त्री के साथ जो प्रेम किया जाता है, अथवा स्त्री और पुरुष के बीच का जो प्रेम संबंध है, वह शारीरिक और आत्मा पर आधारित, प्रेम की कसौटी पर किस तरह से खरा उतरे क्योंकि स्त्री की स्वतंत्रता भी वास्तव में इन्हीं केंद्रों से होकर गुजरती है।
क्योंकि उसके प्रेम और उसके शरीर को केंद्र में रख कर के ही उसकी पवित्रता और अ-पवित्रता निर्धारित की जाती थी, इसलिए अब इस केंद्र पर नए दृष्टि से विचार करना उचित होगा।
यह उपन्यास इसी विषय को लेकर हमारे सामने प्रस्तुत हुआ है और अपनी नई वैचारिक दृष्टि और दार्शनिक बोध हमारे सामने प्रस्तुत करता है, जिसमें स्त्री की स्वतंत्रता, उसकी प्रेम करने की इच्छा, पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है।
यह उपन्यास आदर्श प्रेम का यूटोपिया है। जिसमें बीसवीं शताब्दी के मध्य प्रेम की शुरुआत है, और 21वीं शताब्दी में प्रेम का क्या स्वरूप क्या है? और क्या हो? इस विषय पर व्यापकता और गहराई से विचार किया गया है।
भारतीय और वैश्विक स्त्री के व्यक्तित्व का समय के इतिहास में क्या योगदान है? स्त्री का समाज में क्या स्थान है? यह उपन्यास इसकी खोज की एक व्यापक यात्रा है।
क्या प्रेम में संपूर्ण का समर्पण आवश्यक है? या प्रेम करते हुए स्त्री को 'अपने आप' को थोड़ा सा बचाए रखना चाहिए, अपने लिए? क्योंकि अक्सर यह देखा गया है कि स्त्री तो पूरी तरह से अपने आप को समर्पित कर देती है, लेकिन पुरुष पूरी तरह से स्त्री के प्रति समर्पण नहीं कर पाता है।
भारतीय और वैश्विक समाज में जिस तरह से स्त्री को सामाजिक, नैतिक और धार्मिक मानदंडों के केंद्र में बांधा गया है, उससे आज तक वह मुक्त नहीं हो पाई है। यह समाज स्त्री को तो चाहता है, लेकिन उसे पूरी तरह से प्रेम करने की स्वतंत्रता, जीवन जीने की स्वतंत्रता, नहीं देना चाहता है। इसीलिए इस उपन्यास की नायिका अनाहिता शर्मा जिसका अपने जीवन के प्रति सर्जक दृष्टिकोण है, वह अपने आप को प्रेम करने के बाद भी सुरक्षित रूप से बचाए रखना चाहती है।
यथा- "अना प्रेम कर सकती है, प्रेम में अपना 'आत्म' समर्पित नहीं कर सकती। थोड़ा 'मैं' वह हमेशा बचा कर रख ही लेती है।"
अनाहिता उत्कृष्ट चित्रकार है। व्यापक पढ़ी-लिखी, सौंदर्यवान लड़की है। वह न केवल अपने शारीरिक सौंदर्य के प्रति सचेत है, बल्कि वह अपने आत्मिक सौंदर्य को भी बचा कर रखना चाहती है।
चित्रकार होने के कारण वह कुछ वर्ष न्यूयॉर्क में रह कर आई है। यानी उसने पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति को भी करीब से देखा है। वहां पर स्त्री मुक्ति और स्त्री स्वतंत्रता के संदर्भ का भी आकलन किया है। यही कारण है कि उसे भारतीय और वैश्विक परिदृश्य में स्त्री की छवि की गहरी पहचान है। और इस पहचान को वह अपने व्यक्तिगत जीवन में अपनाएं रखना चाहती है। वह अत्याधुनिक है, यह कहें कि वह उत्तर आधुनिक है। और पितृसत्ता एवं मनुवादी स्त्री की विचारधारा से बिल्कुल अलग है। यह रश्मि भारद्वाज का अपना- 'स्त्री जीवन दर्शन है'
अनाहिता का चरित्र अन- आहत है। वह अपने नाम के अनुसार ही अपनी आत्मा पर बड़ी चोटों को सहजता से सह जाती है। लेकिन अपने 'आत्म' को बचाए रखती है।
उसका चरित्र इस बात का उदाहरण भी है कि यदि किसी स्त्री का किसी पुरुष के साथ प्रेम हो गया है और वह प्रेम शारीरिक संबंध तक भी पहुंच गया है, तो क्या अब उस स्त्री को उसी के साथ अपनी पूरी जिंदगी बने रहना चाहिए? क्योंकि प्रेम मरणशील है, प्रेम में अमरता तभी तक है, जब तक एक दूसरे के बीच संबंध की पवित्रता बनी रहे, यदि यह खत्म हो जाती है, तो परिस्थितियां बदल जाती हैं, और इसमें घुटन के अलावा कुछ भी नहीं रह जाता।
यह अनाहिता जानती है। वह अमल से अलग होकर, दूसरे पुरुष से प्रेम कर, अपनी जिंदगी को पुनः शुरू करती है।
इसी उपन्यास में एक दूसरी प्रेम कहानी है- 'रूप और रूद्र' की। रूप अनाहिता की दादी है। जो उस समय पैदा हुई थी जब हमारा देश आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था और एक संघर्षशील युवक रूद्र से वह प्रेम करती थी- 'वह साल बयालीस था'।
रूप और रूद्र का प्रेम शारीरिक और रूहानी दोनों है। उन्नीस सौ बयालीस में भी रूप इतना तेज युवक है कि वह अपने गांव में स्त्रियों की शिक्षा, लोगों का सांप्रदायिक सद्भाव और राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करता है। उसके पिता स्वयं आजादी की लड़ाई लड़ते हुए अपने आप को बलिदान दे चुके हैं। अब वह अकेला है। आजादी की लड़ाई लड़ते हुए एक बार जब वह अपने उन साथियों को छुड़ाने के लिए जाता है। जो क्रांति के माध्यम से देश को स्वतंत्र कराना चाहते हैं। तब वह पकड़ लिया जाता। और फिर बाद में उसका क्या होता है?
रूप और रूद्र मिल पाते हैं कि नहीं? यही बात हमें पूरे उपन्यास में बांधे रखती है, और अंत तक ले जाती है।
रूप- रूद्र में कोई अंतर नहीं। दोनों एक दूसरे की परछाई हैं। दोनों का एक दूसरे के बिना रह पाना मुश्किल है, लेकिन व्यक्तिगत प्रेम से बढ़कर राष्ट्रप्रेम है। इसलिए वह परिस्थितिवश अलग हो जाते हैं।
समाज में अपने प्रेम के लिए एक स्त्री को इंतजार करने तक का अधिकार भी नहीं है, रूद्र के प्रेम में पड़ी हुई रूप का यही हाल होता है। उसका विवाह रामेश्वर से हो जाता है। रामेश्वर एक उच्च चरित्र वाला व्यक्ति है। उसके चरित्र का निर्माण स्वयं लेखिका के जीवन दर्शन से हुआ है। यही कारण है कि वह मनुवादी सामाजिक संहिता, पितृसत्तात्मक जड़ता, से मुक्त है। और वह कोशिश करता है रूप और रूद्र का मिलन हो जाए।
प्रेम कितना महत्वपूर्ण है, और हम जिससे प्रेम करते हैं, उससे अलग हो जाने के बाद प्रेम में शरीर की कितनी आवश्यकता है? क्या प्रेम शरीर से होता है? या प्रेम आत्मा से होता है? इस प्रश्न का उत्तर खोजने की कोशिश इस उपन्यास में की गई है। और जो हल मिलता है- वह रूद्र का चरित्र है। वह बहुत उत्कृष्ट है, और ऊदात्य है। जिसमें जीवन की नई संस्कृति, और उसकी नई स्थापना का दर्शन है।
रूद्र जहां आत्मिक प्रेम का शिखर है, वही अनाहिता स्त्री स्वतंत्रता और मांसल प्रेम का केंद्र बिंदु है। दोनों का दर्शन ही मिलकर मानव जीवन को परिपूर्ण बनाने में सहायक होते हैं। इन दोनों के बिना जीवन के उत्कृष्ट चरण की कल्पना नहीं की जा सकती। अर्थात सच्चाई यह है कि आत्मा से अलग शरीर का, और शरीर से अलग आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है, हमें दोनों की आवश्यकता है। क्योंकि दोनों के साथ चलकर और दोनों को साथ मिलकर नैतिक और स्वतंत्र समाज की निर्मिति होती है।
उपन्यास का जो सबसे सशक्त और महत्वपूर्ण पक्ष है, वह है इसकी भाषा। पात्रों का चयन और प्रस्तुतीकरण। उपन्यास को पढ़ते हुए भाषा की चित्रात्मकता के कारण घटनाएं हमारे सामने घटती प्रतीत होती हैं इसलिए हम पहले अनुच्छेद से दूसरे अनुच्छेद तक पहुंचने के लिए एकदम बंध जाते हैं, और एक बैठकी में ही यह उपन्यास पढ़ना चाहते हैं।
उपन्यास की पठनीयता के कारण यह उपन्यास बेजोड़ है क्योंकि समकालीन उपन्यासों में पठनीयता एक बहुत बड़ा संकट है।
भाषा की काव्यात्मकता, सहजता और सरलता, वाक्यों का सुंदर चयन और पात्रों के संवादों का सशक्तिकरण ही है कि हमें इसके पात्र ठीक उसी तरह से याद हो जाते हैं, जैसे अज्ञेय के उपन्यास- 'शेखर एक जीवनी' के- 'शशि- शेखर', उसी तरह रश्मि भारद्वाज के इस उपन्यास के पात्र- अनाहिता, अमल, रूप, रूद्र, सिद्धार्थ, एग्नेस हमारे आसपास विचरण करने लगते हैं। यह लगने लगता है कि यह हमारे साथी ही हैं।
'स्त्री पैदा नहीं होती, स्त्री गढ़ी जाती है।' लड़की के पैदा होने के बाद उसकी कंडीशनिंग हम शुरू करते हैं। प्रत्येक समाज उसे अपने हिसाब से बनाने की कोशिश करता है। अपने सौंदर्यशास्त्र में ढालने की कोशिश करता है। यानी कि उसे क्या खाना है? क्या पहनना है? और किस उम्र में किसके साथ रहना है? यह निश्चित किया जाता है। और यही कंडीशनिंग है।
यदि पुरुष और स्त्री को इस कंडीशनिंग में देखा जाए तो हर बार यह दिखाया जाता है कि पुरुष बड़ा है, और स्त्री छोटी है। जबकि इस उपन्यास में बिल्कुल अलग है। समाज कैसा होना चाहिए? और उसमें स्त्री स्वतंत्र होनी चाहिए। इसकी वकालत करता हुआ यह उपन्यास अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराता है।
यह इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है, जिसमें स्त्री स्वतंत्र होकर खुले आसमान में उड़ सकती है। इसलिए अनाहिता का प्रेम करने के बाद भी पूर्ण समर्पण न करना मुझे अच्छा लगता है। क्योंकि यह बनी बनाई स्त्री की उस छवि को तोड़ता है, जिसमें स्त्री के लिए केवल बंधन ही बंधन निर्धारित कर दिए गए हैं। शरीर की पवित्रता और अपवित्रता को केंद्रित करके उसके जीवन को नष्ट कर दिया गया है। इसीलिए अनाहिता का चरित्र वर्तमान उत्तर आधुनिक जीवन के प्रति आस्था जगाता है, और पारंपरिक जड़ मानसिकता को तोड़ने में हमारी मदद करता है।
वर्तमान मशीनी युग में यह प्रश्न बार-बार उठता है कि क्या स्त्री को वर्तमान समय में वस्तु से व्यक्ति की यात्रा तय कर लेनी देनी चाहिए, या स्त्री वस्तु से बदलकर व्यक्ति में निर्मित हो गई है। यह उपन्यास इसकी एक यात्रा है। जिसमें स्त्री को व्यक्ति बनाने की व्यापक कोशिश की गई है।
इसको व्यापक रूप से समझने के लिए उपन्यास में आई कुछ बातों की ओर ध्यान देना होगा। यथा- "हर किसी को बस अधिकार चाहिए होता है, प्रेम या साथ नहीं... यह विवाह आदि बस एक सुविधाजनक वैधानिक छलावा है, जहां प्रेम और अधिकार के नाम पर 'स्व' की बलि मांगी जाती है।" आखिर कब तक हम स्त्री के 'स्व' का दमन करते रहेंगे? स्त्री का स्वाभिमान बचाए रखना, वर्तमान जीवन का अगला कदम होना चाहिए।
प्रेम कैसा हो? इसकी इस उपन्यास में रश्मि भारद्वाज ने बहुत उत्कृष्ट वैचारिक सर्जना की है। यथा- "मुझे रंगों का समर्पण नहीं चाहिए होता। मैं बस उन्हें हौले से छूती हूं,चाहती हूं वह मेरे प्रेम का स्पर्श समझ लें। मुझसे भी ठीक वैसे ही प्रेम करें, उतनी ही शिद्दत से, उतनी ही आतुरता से जैसे मैं करती हूं। इतना कि हमारे बीच फिर कोई नहीं रह जाए।"
अनाहिता एक चित्रकार है। और वह रंगों से प्रेम करती है। प्रेम करते हुए वह रंगों पर अपना अधिकार नहीं जमाना चाहती, बल्कि इस तरह से प्रस्तुत होती है कि रंग उसके हो जाते हैं। 'वह साल बयालीस था' रश्मि भारद्वाज का यह उपन्यास इसी की ओर एक कदम है। जो व्यक्ति के रूप में स्त्री को स्थापित करने तथा उसे स्वतंत्रता प्रदान करने की बात करता है, और यह तभी संभव है, जब प्रेम के बीच कोई न हो, असमानता का भावना या किसी भी तरह का विभेद का विचार।
इस उपन्यास की एक विशेष बात जो मुझे अच्छी लगती है - वह है 'मृत्युबोध'। या मृत्यु की छाया, या मृत्युगंध, मृत्यु यहां भय के रूप में नहीं है, मृत्यु यहां व्यापक प्रकृति के रूप में उपस्थित है। जो एक तरह से सुगंध भी है और प्रेम का आवाहन भी करती है। और मानव जीवन की सच्चाई यही है कि जन्म और मृत्यु के बीच का जो क्षेत्र है, वह प्रेम का क्षेत्र होना चाहिए। और इस प्रेम की यात्रा से जब हम मृत्यु तक पहुंचते हैं, तो वह उत्सव बन जाती है। और फिर जीवन उत्सव बन जाता है। रूद्र के चरित्र के माध्यम से, रूप के चरित्र के माध्यम से, हम इसको साकार होता हुआ पाते हैं।
यह उपन्यास अपने कथ्य में दिल्ली, न्यूयॉर्क, बिहार, लंदन की यात्रा करते हुए एक व्यापक दृष्टिकोण हमारे सामने रखता है। आज जबकि हम अपने देश की स्वतंत्रता की धज्जियां उड़ाने में भी संकोच नहीं करते। ऐसे समय में उन क्रांतिकारियों के प्रति जिन्होंने हमें एक स्वतंत्र राष्ट्र दिया, अपने बलिदान से, उनके प्रति कृतज्ञता का बोध भी यह उपन्यास हमे कराता है।
रूद्र जैसा क्रांतिकारी इसका जीता जागता उदाहरण है। लेखिका ने उसे सृजित किया है। और वह हमारे मन को राष्ट्र के उस दौर की ओर ले गई हैं, जिस दौर में हमारा राष्ट्र गुलामी की पीड़ा से पीड़ित था। आज हमें इस बात पर भी विचार करना है कि जो आजादी हमें बहुत संघर्ष से मिली थी, आज इतने वर्षों बाद हम उसे सांप्रदायिकता, असहिष्णुता और धार्मिक कट्टरता के आगोश मैं देते चले जा रहे हैं। आखिर क्यों? यह प्रश्न भी इस उपन्यास की बहुत बड़ी सच्चाई है।
'वह साल बयालीस था' अपनी रचनात्मकता, विचारधारा और दर्शन के स्तर पर एक महत्वपूर्ण उपन्यास है। जो रश्मि भारद्वाज की कलम की प्रति हमें आशान्वित कर देता है। उन्हें बहुत-बहुत बधाई।
पुस्तक: वह साल बयालीस था (उपन्यास)
लेखिका: रश्मि भारद्वाज
प्रकाशन: सेतू प्रकाशन, नोएडा, यूपी
कीमत: 249 रुपए
समीक्षक: विनोद विश्वकर्मा, कवि एवं उपन्यासकार, एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी