क्या बताऊँ किस तरह जीता है दोस्त
ग़ज़ल
हाल अपने घर का कुछ ऎसा है दोस्तछत है नीची और सर ऊँचा है दोस्त नफ़रतों की बारिशें चारों तरफ़ प्रेम की बूँदों का वो प्यासा है दोस्त अब कहाँ पानी मेरी आँखों में हैजो निकलता है लहू होता है दोस्त दर-बदर तू तो भटकता ही रहाएक दर के सामने ठहरा है दोस्तअब तो पानी के भी ऊँचे दाम हैं रक्त मानव का बहुत सस्ता है दोस्त रोना आतंकवाद का रोते हैं सब कोई सच्ची बात कब कहता है दोस्तमुझको अपने ग़म से ही फ़ुरसत नहीं क्या बताऊँ किस तरह जीता है दोस्तदिन में जो हँस-हँस के मिलता है 'अज़ीज़'रात में उठ-उठ के वो रोता है दोस्त।