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Last Modified: मंगलवार, 7 सितम्बर 2021 (01:16 IST)

तालिबान शासन में स्त्रियों की चुनौतियों का क्या हल?

तालिबान शासन में स्त्रियों की चुनौतियों का क्या हल? - women under the Taliban regime in Afghanistan?
-नवीन जैन
चूंकि संबंधित खबरों को तस्दीक करती तस्वीरें भी अंतरराष्ट्रीय फलक पर नुमायां हो रही हैं, इसलिए फिलहाल तो मानकर चलना ही पड़ेगा कि तालिबान वहां की महिलाओं के लिए कोई भी रिस्क उठाने को तत्पर है। एक अंतरराष्ट्रीय न्यूज  एजेंसी द्वारा जारी की गई इन तस्वीरों में बताया जा रहा है कि अफगानिस्तान की महिलाएं काबुल की सड़कों पर प्रदर्शन कर रही हैं, जो शांतिपूर्ण है, लेकिन ये सभी महिलाएं अपने हक़ों की मांग बुलंद कर रही हैं। 
 
इनके हाथों में तख्तियां हैं, जिन पर लिखा गया है कि हमें एक मजबूत कैबिनेट में जगह दी जाए, और हम पुरुषों के समान दर्ज़ा हासिल करने की हैसियत रखते हैं। मोटे तौर पर इन स्त्रियों की मांगों में दम नज़र आता है, कारण कि शायद जल्दबाज़ी में दुनिया तक यह पुष्ट सूचना नहीं पहुंच पाई कि कबीलाई संस्कृति में पली-बढ़ी इस वर्ग ने शिक्षा के फील्ड में रेखांकित की जा सकने वाली उपस्थिति दर्ज़ की है, जो 24 फ़ीसद बताई जाती है। पुरुषों के हक़ में यह आंकड़ा 51 प्रतिशत के आसपास ठहरता है।
 
इन आंकड़ों के परिप्रेक्षय में कहा जा सकता है कि तालिबान की महिलाएं न सिर्फ़ पढ़ी हुई हैं, बल्कि अगली पीढ़ियों को पढ़ाते रहना भी चाहिए, ताकि अभी जो कुपोषण जैसी समस्याओं को तो वहां निज़ात मिले। दुनिया के किसी भी इतिहास को पढ़ लीजिए। स्पष्ट हो जाएगा, बिना पढ़े-लिखे कोई विकास संभव नहीं है। इसमें स्त्रियों को भी समान दर्जा दिया जाना अनिवार्य होता है। फ्रांस में तो चूंकि 99 प्रतिशत वेल क्वलिफाइड समाज है, इसलिए गृह मंत्री के पहले शिक्षा मंत्री की पूछ होती है। केरल में 1952 के तत्काल बाद ही शिक्षा को ऐसा आंदोलन बनाया गया कि 99 प्रतिशत शिक्षा के कारण पूरी दुनिया का नर्सिंग का काम यहीं की नर्सेस ने सम्हाल रखा है।
 
सही है कि फ़रवरी 19 सन 1989 को रूसी सेना भी अफगानिस्तान में ही अपने टीमटाम छोड़कर भाग खड़ी हुई थी, अर्थात यह दूसरा जगत चौधरी भी फिस्सडी निकला। यह तर्क सही भी है और ग़लत भी। ग़लत इसलिए लगता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने तो टका-सा जवाब दे दिया कि हमने तो अफगानिस्तान में अपना काम बीस सालों में कर दिया। अब वे जाने उनका काम। हमें क्या पड़ी है। इस प्रकरण से अमेरिका की जो जगहंसाई हुई है, उसकी नज़ीर अतीत में भी शायद ही मिल पाए।
 
अब बात करें रूस की। रवानगी से पहले इस देश ने अफगानिस्तान में बकायदा लोकतांत्रिक सरकार गठित करवा दी थी। इसी सरकार के राष्ट्रपति स्व. मोहम्मद नजीबुल्लाह चुने गए थे। जिनकी तालिबान ने हत्या कर दी थी। मोहम्मद नजीबुल्लाह की बदौलत ने अफगानिस्तान की स्त्रियों ने डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर, बैंक कर्मी के पदों पर पहुंचकर बताया। एक महिला तो काबुल की मेयर जरीफा गफारी भी बनीं, दो सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस और 200 से अधिक अन्य जज बनीं। 
 
गहरे अफसोस की बात यह है कि इन न्यायाधीशों ने जिन खतरनाक लगभग 2300 लड़ाकों को जेलों में डाल दिया था, उन्हें तालिबान ने अब छुट्टा छोड़ दिया है। अब ये कब क्या कर बैठें अभी से क्या कहें। हो सकता है भारत को चिढ़ाने के लिए 15 अगस्त को तालिबान की स्वतंत्रता की घोषण की गई हो। यह एक तरह की सस्ती मसखरी भी हो सकती है, जो बेपढ़े-लिखे लोग, तो करते ही रहते हैं। इसलिए इसे अन्यथा न लेने में ही बेहतरी, लेकिन इस तारीख के बाद पूरे अफगानिस्तान में जो जश्न मनाया गया, वह ज़रूर आगामी एक और खतरे का सायरन हो सकता है।
 
सनद रहे कि उन्हीं दिनों अफगानिस्तान में मुहर्रम मनाया जा रहा था। इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? यह पूरे मुस्लिम समाज का धार्मिक आस्था का विषय है और भारत में मुस्लिम समुदाय के अलावा कुछ प्रगतिशील हिंदू तबके भी इसे मनाते हैं। अफसोस की बात यह हुई कि अफगानिस्तान में हज़रत हुसैन की याद में लहरा रहे परचम की जगह इस्लामी कलमा  'ला इलाहा इल्लल्लाह' लिखे परचम लगा दिए गए, जो आम तौर पर आतंकवादी संगठन आईएसआईएस के लड़ाके सामूहिक हत्या करके लगाते रहे हैं।
 
वैसे, तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने भरोसा दिलाया है कि हम तालिबान को उन्नति की ओर ले जाना चाहते हैं, इसलिए लड़कियों और युवतियों को प्रत्येक फील्ड में अवसर देंगे। इसके उलट अन्य प्रभावशाली तालिबानी नेताओं ने शरीया कानून को ही तवज्जो दी है, जो सदियों पुराना है, जिसमें और तो सब ठीक लड़कियों के साइकल चलाने, खेलने-कूदने, सिनेमा, संगीत, नाटक आदि के शौक रखने पर भी बंदिश है। आज तो कई कथित मुल्ला मौलवियों को लड़कियों का परफ्यूम लगाना तक नागवार गुजरने लगा है।
 
जब से तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जे की एक एक करके शुरुआत की, तभी से संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतेरस वहां की बर्बादी पर बार-बार अपनी चिंता से दुनिया को अवगत कराते रहे हैं। वर्तमान हालात में उनके भी हाथ यूं भी बंधे हुए हैं। तालिबान अपने को नया देश बनाने या फ़िर से बर्बाद कर देने के अतिसंवेदनशील मोड़ पर खड़ा है। 
 
यदि मराठी की एक लब्ध प्रतिष्ठित साप्ताहिक में अफगानिस्तान के बारे में दी गई जानकारियों पर भरोसा करें तो तबीयत अवाक रह जाती हैं। इस पत्रिका के ताजा अंक में कहा गया है कि 1873 से शाम ए नाहार नामक अखबार शेर अली खान ने प्रारम्भ किया था। 1906 में दूसरे अखबार सिराज उल के नाम से अखबार प्रारंभ हुआ। उक्त मराठी पत्रिका की माने तो इस दौर में भी वहां से एक हज़ार अखबार निकलते हैं।
 
आश्चर्य की बात यह बताई गई है कि इस मुस्लिम देश में वर्ष का नया दिन नवरोज को मनाया जाता है, जो मूलतः पारसी धर्म का नए साल का पहला दिन माना जाता है। कहा गया है कि अफगानितान में सन 642 में इस्लाम धर्म ने पहली दस्तक दी। उसके पहले तो बौद्ध और जोराष्ट्रीयन वहां बसते थे।कुछ यहूदी भी थे ।इन सभी ने इस्लाम धर्म को स्वीकार के लिया लेकिन  एक जेरोसियन परिवार तो काबुल में आज भी परंपरागत लब्ध प्रतिष्ठित गलीचों के व्यवसाय में रत हैं। 
 
आश्चर्य की बात यह है कि तालिबान के पहले 90 फ़ीसद अफगानी लोगों के हाथों में मोबाइल आ गए थे, लेकिन स्मार्टफोन अभी भी स्टेटस सिंबल है। उक्त पत्रिका कहती है कि तालिबान के हालिया क़ब्ज़े के पहले अफगानिस्तान में कुल 203 टीवी चैनल और 284 रेडियो स्टेशन थे। 1996 में तालिबान ने इन अफगानी सूचना तंत्रों पर सात पहरे बैठा दिए। अब सबसे खतरनाक सूचना यह भी है कि इस कुल 34 प्रांतों के कुनबे में डेढ़ लाख कोविड 19 के पॉजिटिव है। सभी बातों को दरगुजर रखकर आशा की जानी चाहिए कि तालिबान स्त्रियों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करेगा। तालिबान में स्त्रियों की चुनौतियों का क्या हल?
-नवीन जैन
चूंकि संबंधित खबरों को तस्दीक करती तस्वीरें भी अंतरराष्ट्रीय फलक पर नुमायां हो रही हैं, इसलिए फिलहाल तो मानकर चलना ही पड़ेगा कि तालिबान वहां की महिलाओं के लिए कोई भी रिस्क उठाने को तत्पर है। एक अंतरराष्ट्रीय न्यूज  एजेंसी द्वारा जारी की गई इन तस्वीरों में बताया जा रहा है कि अफगानिस्तान की महिलाएं काबुल की सड़कों पर प्रदर्शन कर रही हैं, जो शांतिपूर्ण है, लेकिन ये सभी महिलाएं अपने हक़ों की मांग बुलंद कर रही हैं। 
 
इनके हाथों में तख्तियां हैं, जिन पर लिखा गया है कि हमें एक मजबूत कैबिनेट में जगह दी जाए, और हम पुरुषों के समान दर्ज़ा हासिल करने की हैसियत रखते हैं। मोटे तौर पर इन स्त्रियों की मांगों में दम नज़र आता है, कारण कि शायद जल्दबाज़ी में दुनिया तक यह पुष्ट सूचना नहीं पहुंच पाई कि कबीलाई संस्कृति में पली-बढ़ी इस वर्ग ने शिक्षा के फील्ड में रेखांकित की जा सकने वाली उपस्थिति दर्ज़ की है, जो 24 फ़ीसद बताई जाती है। पुरुषों के हक़ में यह आंकड़ा 51 प्रतिशत के आसपास ठहरता है।
 
इन आंकड़ों के परिप्रेक्षय में कहा जा सकता है कि तालिबान की महिलाएं न सिर्फ़ पढ़ी हुई हैं, बल्कि अगली पीढ़ियों को पढ़ाते रहना भी चाहिए, ताकि अभी जो कुपोषण जैसी समस्याओं को तो वहां निज़ात मिले। दुनिया के किसी भी इतिहास को पढ़ लीजिए। स्पष्ट हो जाएगा, बिना पढ़े-लिखे कोई विकास संभव नहीं है। इसमें स्त्रियों को भी समान दर्जा दिया जाना अनिवार्य होता है। फ्रांस में तो चूंकि 99 प्रतिशत वेल क्वलिफाइड समाज है, इसलिए गृह मंत्री के पहले शिक्षा मंत्री की पूछ होती है। केरल में 1952 के तत्काल बाद ही शिक्षा को ऐसा आंदोलन बनाया गया कि 99 प्रतिशत शिक्षा के कारण पूरी दुनिया का नर्सिंग का काम यहीं की नर्सेस ने सम्हाल रखा है।
 
सही है कि फ़रवरी 19 सन 1989 को रूसी सेना भी अफगानिस्तान में ही अपने टीमटाम छोड़कर भाग खड़ी हुई थी, अर्थात यह दूसरा जगत चौधरी भी फिस्सडी निकला। यह तर्क सही भी है और ग़लत भी। ग़लत इसलिए लगता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने तो टका-सा जवाब दे दिया कि हमने तो अफगानिस्तान में अपना काम बीस सालों में कर दिया। अब वे जाने उनका काम। हमें क्या पड़ी है। इस प्रकरण से अमेरिका की जो जगहंसाई हुई है, उसकी नज़ीर अतीत में भी शायद ही मिल पाए।
 
अब बात करें रूस की। रवानगी से पहले इस देश ने अफगानिस्तान में बकायदा लोकतांत्रिक सरकार गठित करवा दी थी। इसी सरकार के राष्ट्रपति स्व. मोहम्मद नजीबुल्लाह चुने गए थे। जिनकी तालिबान ने हत्या कर दी थी। मोहम्मद नजीबुल्लाह की बदौलत ने अफगानिस्तान की स्त्रियों ने डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर, बैंक कर्मी के पदों पर पहुंचकर बताया। एक महिला तो काबुल की मेयर जरीफा गफारी भी बनीं, दो सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस और 200 से अधिक अन्य जज बनीं। 
 
गहरे अफसोस की बात यह है कि इन न्यायाधीशों ने जिन खतरनाक लगभग 2300 लड़ाकों को जेलों में डाल दिया था, उन्हें तालिबान ने अब छुट्टा छोड़ दिया है। अब ये कब क्या कर बैठें अभी से क्या कहें। हो सकता है भारत को चिढ़ाने के लिए 15 अगस्त को तालिबान की स्वतंत्रता की घोषण की गई हो। यह एक तरह की सस्ती मसखरी भी हो सकती है, जो बेपढ़े-लिखे लोग, तो करते ही रहते हैं। इसलिए इसे अन्यथा न लेने में ही बेहतरी, लेकिन इस तारीख के बाद पूरे अफगानिस्तान में जो जश्न मनाया गया, वह ज़रूर आगामी एक और खतरे का सायरन हो सकता है।
 
सनद रहे कि उन्हीं दिनों अफगानिस्तान में मुहर्रम मनाया जा रहा था। इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? यह पूरे मुस्लिम समाज का धार्मिक आस्था का विषय है और भारत में मुस्लिम समुदाय के अलावा कुछ प्रगतिशील हिंदू तबके भी इसे मनाते हैं। अफसोस की बात यह हुई कि अफगानिस्तान में हज़रत हुसैन की याद में लहरा रहे परचम की जगह इस्लामी कलमा  'ला इलाहा इल्लल्लाह' लिखे परचम लगा दिए गए, जो आम तौर पर आतंकवादी संगठन आईएसआईएस के लड़ाके सामूहिक हत्या करके लगाते रहे हैं।
 
वैसे, तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने भरोसा दिलाया है कि हम तालिबान को उन्नति की ओर ले जाना चाहते हैं, इसलिए लड़कियों और युवतियों को प्रत्येक फील्ड में अवसर देंगे। इसके उलट अन्य प्रभावशाली तालिबानी नेताओं ने शरीया कानून को ही तवज्जो दी है, जो सदियों पुराना है, जिसमें और तो सब ठीक लड़कियों के साइकल चलाने, खेलने-कूदने, सिनेमा, संगीत, नाटक आदि के शौक रखने पर भी बंदिश है। आज तो कई कथित मुल्ला मौलवियों को लड़कियों का परफ्यूम लगाना तक नागवार गुजरने लगा है।
जब से तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जे की एक एक करके शुरुआत की, तभी से संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतेरस वहां की बर्बादी पर बार-बार अपनी चिंता से दुनिया को अवगत कराते रहे हैं। वर्तमान हालात में उनके भी हाथ यूं भी बंधे हुए हैं। तालिबान अपने को नया देश बनाने या फ़िर से बर्बाद कर देने के अतिसंवेदनशील मोड़ पर खड़ा है। 
 
यदि मराठी की एक लब्ध प्रतिष्ठित साप्ताहिक में अफगानिस्तान के बारे में दी गई जानकारियों पर भरोसा करें तो तबीयत अवाक रह जाती हैं। इस पत्रिका के ताजा अंक में कहा गया है कि 1873 से शाम ए नाहार नामक अखबार शेर अली खान ने प्रारम्भ किया था। 1906 में दूसरे अखबार सिराज उल के नाम से अखबार प्रारंभ हुआ। उक्त मराठी पत्रिका की माने तो इस दौर में भी वहां से एक हज़ार अखबार निकलते हैं।
 
आश्चर्य की बात यह बताई गई है कि इस मुस्लिम देश में वर्ष का नया दिन नवरोज को मनाया जाता है, जो मूलतः पारसी धर्म का नए साल का पहला दिन माना जाता है। कहा गया है कि अफगानितान में सन 642 में इस्लाम धर्म ने पहली दस्तक दी। उसके पहले तो बौद्ध और जोराष्ट्रीयन वहां बसते थे।कुछ यहूदी भी थे ।इन सभी ने इस्लाम धर्म को स्वीकार के लिया लेकिन  एक जेरोसियन परिवार तो काबुल में आज भी परंपरागत लब्ध प्रतिष्ठित गलीचों के व्यवसाय में रत हैं। 
 
आश्चर्य की बात यह है कि तालिबान के पहले 90 फ़ीसद अफगानी लोगों के हाथों में मोबाइल आ गए थे, लेकिन स्मार्टफोन अभी भी स्टेटस सिंबल है। उक्त पत्रिका कहती है कि तालिबान के हालिया क़ब्ज़े के पहले अफगानिस्तान में कुल 203 टीवी चैनल और 284 रेडियो स्टेशन थे। 1996 में तालिबान ने इन अफगानी सूचना तंत्रों पर सात पहरे बैठा दिए। अब सबसे खतरनाक सूचना यह भी है कि इस कुल 34 प्रांतों के कुनबे में डेढ़ लाख कोविड 19 के पॉजिटिव है। सभी बातों को दरगुजर रखकर आशा की जानी चाहिए कि तालिबान स्त्रियों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करेगा। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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