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वनाधिकार वनवासियों का हक

वनाधिकार वनवासियों का हक। forest rights - forest rights
-सुरेश भाई
 
वनों के बीच निवास करने वाले समुदायों के पास पीढ़ियों से अपनी आजीविका चलाने के लिए खेती, मकान, गौशाला और चरागाह हैं। इन्होंने मवेशियों को पालने और पेयजल के लिए तालाब भी बनाए हैं। बाद में अंग्रेजों के बने वन कानून ने इन वनवासियों की भूमि को वनभूमि के रूप में पेश करके इन्हें अतिक्रमणकारी करार दिया। इसके कारण वर्षों तक इनकी आजीविका से छेड़छाड़ होती रही है। कई तरह के अन्याय और शोषण के कारण इन्हें एक जंगल से दूसरे जंगल में शरण लेनी पड़ी है।

 
आजादी के बाद इस तरह जीवन जीने वाले वनवासियों की पहचान करने में वर्षों गुजर गए थे। जब देश में कई स्थानों पर सामाजिक संगठनों ने संकट में पड़े इन वन समुदायों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया, तो इसके उपरांत अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006 बना है। वनाधिकार कानून के नाम से पहचान वाला यह कानून सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद राज्यों में अभी तक पूरी तरह से नहीं पहुंच सका है। जम्मू-कश्मीर को छोड़कर देश के सभी राज्यों की सरकारें इस वनाधिकार में अनुसूचित जनजाति तथा अन्य परंपरागत वनवासियों की अवधारणा को जमीन पर नहीं उतार पाई है।

 
हिमालयी राज्यों में जहां 40-65 प्रतिशत वनभूमि है, वहां भी वन निवासी की परिभाषा झमेले में पड़ी है। उत्तराखंड में वनभूमि का आंकड़ा 65 फीसदी है जिस पर बड़ी संख्या में लोगों की पुश्तैनी खेती, जंगल, निवास आदि हैं। लेकिन वन विभाग की नजर में यहां शून्य वन निवासी है, जबकि यहां की तहसीलों में हजारों वनवासियों ने वनाधिकार के अनुसार व्यक्तिगत और सामूहिक दावे फॉर्म जमा कर रखे हैं।
 
हिमाचल में 5,692 निजी दावे वर्ष 2008-09 में जमा किए गए थे। इसमें से 346 दावेदारों को ही केवल 0.354 एकड़ भूमि पर अधिकार पत्र मिले हैं। वर्ष 2015 के मध्य तक ओडिशा में कुल 5,98,179 निजी और 7,688 सामूहिक दावे पेश किए गए थे जिसमें से 3,44,541 निजी और 2,910 सामूहिक दावे स्वीकृत हुए हैं। केवल 5,46,330 एकड़ भूमि पर लोगों को मालिकाना अधिकार दिए गए हैं। मध्यप्रदेश में भी वर्ष 2014 के अंत तक 4,30,000 दावों में से 1,80,000 दावों को ही स्वीकृति मिली थी। राजस्थान व छत्तीसगढ़ में भी वनवासियों को मालिकाना हक प्राप्त करने के लिए भारी जद्दोजहद करनी पड़ रही है।

 
इस वनाधिकार में लिखा गया है कि वनभूमि में जहां लोग 13 दिसंबर 2005 से पहले 3 पीढ़ियों से निवास कर रहे हो, उन्हें दावा फॉर्म के साथ इसका प्रमाण भी प्रस्तुत करना चाहिए। इसके अनुसार लोगों को 2 तरह के अधिकार दिए जा सकते हैं। पहला, व्यक्तिगत और दूसरा, सामूहिक। व्यक्तिगत अधिकार के लिए वन निवासी अपनी पुश्तैनी भूमि, मकान, खेतीयोग्य जमीन के लिए दावा फॉर्म भर सकता है। वनग्राम और ग्रामसभा उस जंगल पर अधिकार के लिए सामूहिक दावा कर सकती है, जहां से वे चारा पत्ती, जलावन, हक-हकुक की इमारती लकड़ी लेते हैं। उसमें उन गौण वन उत्पादों पर भी सामूहिक दावा किया जा सकता है जिसका लोग पारंपरिक रूप से संग्रहण कर बेच सकते हैं।

 
वन नीति 1988 में वन निगम को ही इस तरह के वनोत्पादों पर सीधा अधिकार है लेकिन वनाधिकार-2006 में इसको बेचने के अधिकार भी लोगों को दिए गए हैं। वनाधिकार में घुमक्कड़ी पशुचारक समुदाय को पारंपरिक मौसमी संसाधनों जैसे मछली पकड़ने, पशुपालन आदि हक वैधानिक रूप में दिए गए हैं। वन और वनभूमि पर उनके गृह आवास में रहने का उन्हें पूर्णत: अधिकार दिया गया है। इस अधिनियम में कहा गया है कि यदि राज्य सरकार द्वारा पूर्व में किसी कंपनी, प्राधिकरण या पट्टों पर दी गई वनभूमि को भी उनके नाम से हटाकर वापस वनवासियों को लौटाई जा सकती है।

 
इस तरह के परिवर्तन के अधिकार वन ग्रामों, पुराने आवासों, असर्वेक्षित ग्रामों में चाहे वे लेखबद्ध हो या न हो, को वन प्रबंधन व पुनर्जीवित करने का अधिकार भी दिया गया है। इसके अलावा जैवविविधता के संरक्षण हेतु पारंपरिक ज्ञान का अधिकार भी समुदाय को दिया गया है। लेकिन ऐसे सामुदायिक अधिकार पर प्रतिबंध है, जो वन्यजीवों को मारने या उसके अंगों को बेचने का उपयोग करता हो। इसकी खास बात यह भी है कि विद्यालय, हॉस्पिटल, आंगनवाड़ी, दुकानें, विद्युत एवं संचार लाइनें, लघु जलाशय, टंकियां, पाइप लाइनें, तालाब, लघु सिंचाई नहरें, व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र, वैकल्पिक ऊर्जा, सड़कें, सामुदायिक केंद्र हेतु 1 हैक्टेयर से कम भूमि का हस्तांतरण केवल ग्रामसभा की सिफारिश से ही किया जा सकता है। इसके लिए गांव से लेकर राज्य तक समितियां बनाई जानी हैं।

 
वनाधिकार कानून में एक महत्वपूर्ण शर्त है कि राज्य को बिना किसी विलंब के कठिन स्थितियों से भी ऊपर उठकर लागू करना चाहिए जिसका पालन नहीं हो रहा है जबकि पंचायती राज, समाज कल्याण, राजस्व, वन विभाग को मिलकर काम करने की जिम्मेदारी दी गई है। नेशनल पार्कों और अभयारण्यों के बीच बसे हुए गांव का पुनर्वास भी इस अधिनियम के अंतर्गत किया जा सकता है। देश में अपनी जमीन से बेदखल हुए लाखों वनवासियों को इसके अंतर्गत जमीन पर मालिकाना हक दिया जा सकता है। लेकिन स्थिति यह है कि वनभूमि का इस्तेमाल विकासकर्ताओं के हित में हो रहा है। वनवासी अपने पारंपरिक निवास वनाधिकार के बाद भी छोड़ने को मजबूर हैं। (सप्रेस)

 
(सुरेश भाई उत्तराखंड में चिपको, रक्षा सूत्र आंदोलन एवं नदी बचाओ अभियान से जुड़े हैं। सम्प्रति वे उत्तराखंड सर्वोदय मंडल के अध्यक्ष हैं।)
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