चीन के सर्वोच्च सत्ताधारी शी जिनपिंग (Xi Jinping) अपने आपको बड़ा 'स्मार्ट' समझते हैं। उन्होंने मान लिया है कि उनका देश अमेरिका के बाद क्योंकि दुनिया की दूसरी महाशक्ति बन गया है, इसलिए उसे भी अमेरिका की तरह सारी दुनिया में अपने हाथ-पैर फैलाने की छूट होनी चाहिए। यही सोचकर शी जिनपिंग ने अन्य देशों के साथ रेशम-व्यापार वाले सदियों पुराने यूरेशियाई मार्ग (Eurasian route (के नमूने पर 2013 में 'बेल्ट एंड रोड इनिशेटिव' (BRI) नाम की एक नई योजना गढ़ी।
संक्षेप में BRI कहलाने वाली यह योजना व्यापारिक लेन-देन के लिए अन्य देशों को चीन से जोड़ने की एक कुटिल युक्ति है। चीन उन्हें प्रत्यक्ष रूप से रेल, सड़क और बंदरगाह जैसी आधारभूत सुविधाओं तथा औद्योगिक प्रतिष्ठानों के निर्माण के लिए ऋण और तकनीकी सेवाएं देता है, पर अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें चीन पर हर तरह से निर्भर बना देना उसका लक्ष्य होता है।
अनोखी योजनाः शी जिनपिंग अपनी इस अनोखी योजना को दुनिया के 140 देशों तक फैलाना चाहते थे ताकि चीन अपने यहां तरह-तरह की चीज़ों के हो रहे धुआंधार उत्पादनों से इन देशों को न केवल पाट दे, उनकी रीतियों-नीतियों को भी अपने हित में प्रभावित कर सके। शी, भारत को भी अपने गोरखधंधे में शामिल करना चाहते थे। भारत के सभी पड़ोसी तो उनके जाल में फंसे, पर प्रधानमंत्री मोदी का भारत उनकी चाल ताड़ गया और दूर से ही 'नमस्कार' कह दिया।
शी जिनपिंग की यह BRI पहल द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूरोप के लिए बने अमेरिकी 'मार्शल प्लान' का चीनी संस्करण लगती है। हिटलर द्वारा छेड़े गए द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत में जर्मनी सहित पश्चिमी यूरोप के कई देश इतने जर्जर हो चुके थे कि अमेरिका को उनकी सहायता के लिए आगे आना पड़ा।
इन देशों की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और और उनके विध्वस्त शहरों आदि के बड़े पैमाने पर नवनिर्माण के लिए अमेरिका ने उस समय 'मार्शल प्लान' नाम की एक योजना के अंतर्गत उन्हें बड़े पैमाने पर धन और साधन दिए। शी जिनपिंग की BRI योजना भी कुछ वैसी ही है, पर कहीं अधिक महत्वाकांक्षी और रहस्यमयी भी है।
हाथ खोलकर ऋण बांटेः शुरू-शुरू में चीन ने BRI में शामिल हुए देशों को हाथ खोलकर कई सौ अरब डॉलर के बराबर ऋण बांटे। लेकिन कोरोनावायरस का प्रकोप शुरू होने के बाद उसने अपनी मुट्ठी कसनी शुरू कर दी, क्योंकि उसकी अपनी अर्थव्यवस्था भी डांवाडोल होने लगी थी। जिन देशों को ऋण बांटे थे, कोरोना की मार से वे और अधिक कर्ज में डूबने लगे थे। चीन से मिले ऋणों की किस्तें अदा नहीं कर पा रहे थे।
BRI पर नज़र रखने वाले विशलेषकों ने पाया कि 2013 में शी जिनपिंग की इस योजना के आने से पहले आर्थिक संकट से जूझ रहे जिन देशों को चीन ने 2010 में जो ऋण दिए थे, वे 2022 में बांटे गए ऋणों की तुलना में केवल 5 प्रतिशत के बराबर थे। यह अनुपात 2022 तक बढ़कर 60 प्रतिशत हो गया। इसका अर्थ यही है कि चीन के ऋणी देशों का ऋणभार समय के साथ घटने की जगह तेज़ी से बढ़ता गया है। वे अपने ऋण चुकाने की स्थिति में नहीं हैं यानी चीन का बहुत-सा पैसा डूब गया है या डूब रहा है।
रूस-यूक्रेन युद्ध ने किया आटा और गीलाः कोरोनावायरस से मुक्ति मिलने से पहले ही रूस ने यूक्रेन के विरुद्ध युद्ध छेड़कर चीन से ऋण लेने वाले देशों की ग़रीबी में आटा और ज़्यादा गीला कर दिया। रूस-यूक्रेन युद्ध छिड़ते ही पूरी दुनिया में महंगाई बहुत तेज़ी से बढ़ी। इस महंगाई ने चीन के ऋणभार से दबे देशों की ऋण चुकाने की क्षमता रसातल में पहुंचा दी। इससे चीनी निर्यात और उसकी आर्थिक विकास दर में भी अचानक भारी गिरावट
आई।
चीनी ऋण के भार और रूस-यूक्रेन युद्ध की मार किसी देश को कैसे और कितना अधमरा कर सकती है, भारत का दक्षिणी पड़ोसी श्रीलंका इसका सबसे दयनीय उदाहरण है। श्रीलंका 2017 से ही चीनी कर्ज की क़िस्तें समय पर अदा नहीं कर पा रहा था इसलिए उसे गिरवी पर रखा अपना हम्बनटोटा बंदरगाह चीन को लंबे समय के पट्टे (लीज़) पर देना पड़ा।
सबसे अधिक परियोजनाएं अफ्रीका में: चीनी पैसों से सबसे अधिक परियोजनाएं अफ्रीकी देशों में चल रही हैं। इस बीच अफ्रीका के भी अधिकतर देशों में चीन के प्रति नाराज़गी और रोष बढ़ने लगा है। केन्या ऐसा ही एक प्रमुख देश है, जहां चीनी ऋणों वाले पैसे से सड़कें, रेलवे लाइनें और बंदरगाह बने हैं या अब भी बन रहे हैं। वहां के लोग भी इसी चिंता से परेशान हैं कि चीनी ऋणभार से छुटकरा कैसे मिलेगा?
चीन ने केन्या के मोम्बासा बंदरगाह का बोझ घटाने के लिए लामू नाम का एक नया बंदरगाह बनाने का सुझाव दिया। यह बंदरगाह बना भी। लेकिन वह इतना अधिक बड़ा और उसका परिचालन इतना ख़र्चीला है कि अब सबको संदेह हो रहा है कि वह कभी लाभ भी दे पाएगा या नहीं? यह बंदरगाह बहुत ख़र्चीला होने के साथ-साथ स्थानीय पर्यावरण के लिए भी बहुत हानिकारक सिद्ध हो रहा है।
2 अरब डॉलर भ्रष्टाचार के नाम : केन्या में चीन की अब तक की सबसे बड़ी परियोजना है मोम्बासा शहर और राजधानी नैरोबी को जोड़ने वाली रेलवे लाइन। उसके निर्माण पर क़रीब 5 अरब डॉलर का ख़र्च आया है जिसमें से 2 अरब डॉलर भ्रष्टाचार की बलि चढ़ गए।
योजना तो यह थी कि यह रेलवे लाइन नैरोबी से भी 100 किलोमीटर आगे जाएगी। लेकिन इसके लिए कोई पैसा ही नहीं बचा। इस लाइन पर चलने वाली गाड़ियों से इतनी कमाई नहीं हो पा रही है कि उसके निर्माण के लिए मिले चीनी ऋण की अदायगी हो सके। चीनी ऋण मिलते तो आसानी से हैं, पर उनकी ब्याज दर अच्छी-ख़ासी होती है। जो देश अदायगी नहीं कर पाते, उनके सिर पर गिरवी ज़ब्त होने और चीन के इशारे पर नाचने की तलवार लटकने लगती है।
चीनी BRI के अंतर्गत पूरी दुनिया में लगभग 3,500 परियोजनाएं चल रही हैं। पश्चिमी प्रेक्षकों का कहना है कि चीनी अपने नए रेशम मार्ग के जोश में आकर ऋण बांटने के संभावित दूरगामी परिणामों को कई बार ठीक से आंक नहीं पाते। इसी कारण अकेले 2020 में उन्हें 77 देशों से मिलने वाली किस्तों की अदायगी के लिए समय सीमा बढ़ानी पड़ी। अधिकतर देश मांग कर रहे हैं कि उनके कर्ज माफ कर दिए जाएं।
राजनीतिक हितसाधन, व्यापारिक लाभ-हानि से बड़ा : अदायगी के लिए अधिक समय देने का दूसरा परिणाम किंतु यह हुआ कि चीन की जिन कंपनियों को अदायगी मिलनी थी, उनका दीवाला निकल जाने का जोखिम बढ़ने लगा। पश्चिमी प्रेक्षकों और विश्लेषकों के एक वर्ग के लिए चीनी अभी भी ऐसे नौसिखुवे हैं, जो वैश्विक धंधे-व्यापार की जटिलताओं को भलीभांति समझ नहीं पाए हैं जबकि एक दूसरा वर्ग मानता है कि चीनियों के लिए अपना राजनीतिक हितसाधन कई बार व्यापारिक लाभ-हानि से बड़ा होता है।
एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों को खूब ऋण देकर चीन जिस तरह वहां अपनी साख बढ़ाने में व्यस्त है, पश्चिमी देश उससे चौकन्ने हो गए हैं। अमेरिका तथा उसके साथ के G-7 वाले देशों ने तय किया है कि चीनी प्रभाव की रोकथाम करने के लिए 2027 तक वे भी वैश्विक स्तर पर अवसंरचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर) निर्माण की एक साझेदारी के अधीन 600 अरब डॉलर उपलब्ध करेंगे। 2021 में निरूपित इस अभियान का नाम होगा 'बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड' यानी पुन: बनाएं एक बेहतर दुनिया।
एक और चीनी योजना : चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी G-7 की देखादेखी 2021 में ही एक नई किंतु BRI की तुलना में कहीं कम महत्वाकांक्षी योजना शुरू करने की घोषणा की। 'ग्लोबल डेवलपमेंट इनिशिएटिव' (GDI) नाम की यह नई पहल विकासशील देशों में शिक्षा, शुद्ध जल और ग़रीबी निवारण पर लक्षित होगी। चीन दबाव डाल रहा है कि विश्व बैंक तथा एशियाई विकास बैंक भी उसकी इस पहल में शामिल हों और आसान शर्तों पर धन उपलब्ध करें।
शी जिनपिंग ने BRI में अपने हाथ इस बुरी तरह जला लिए हैं कि अब वे चाहते हैं कि अकेले चीन का ही क्यों, विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक का भी कुछ पैसा डूबना चाहिए। वे अपने मुंह से भला यह कैसे कहें कि प्राचीन रेशम मार्ग की याद दिलाने वाली उनकी BRI योजना बड़बोलापन सिद्ध हुई है। उसके लिए दिए गए अरबों डॉलरों के एक बड़े हिस्से को अब बट्टे खाते में डालना पड़ेगा। चीन की निरीह जनता उनसे कोई प्रश्न भी नहीं कर सकती, क्योंकि चीन में लोकतंत्र नाम की कोई चीज़ न तो कभी थी और न आज है।
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)
Edited by: Ravindra Gupta