शनिवार, 18 अक्टूबर 2025
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Bihar Assembly Election: बिहार के पहले विधानसभा चुनाव की कहानी

History of Bihar Assembly Elections
History of Bihar Assembly Elections: स्वतंत्रता के बाद बिहार के पहले विधानसभा चुनाव 1952 में हुए थे। ऐसे में स्वाभाविक रूप से कांग्रेस की स्थिति बहुत मजबूत थी। कांग्रेस ने इस चुनाव में 239 विधानसभा सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत हासिल किया था। सबसे रोचक कहानी उस समय के दो दिग्गज नेताओं और उनके बीच मुख्यमंत्री पद की दावेदारी को लेकर रही। हालांकि कांग्रेस के ही नेता श्रीकृष्ण बिहार के पहले मुख्‍यमंत्री बने। 
 
330 सीटें, 276 निर्वाचन क्षेत्र : उस समय राज्य में 276 निर्वाचन क्षेत्र थे, जबकि 50 विधानसभा क्षेत्र ऐसे थे, जो कि द्विसदस्यीय थे। उस समय कुछ सीटों पर 2-2 विधायक निर्वाचित हुए थे। कुल मिलाकर सीटों की संख्या 330 थी। उस समय चुनाव प्रचार के तरीके भी आज से बहुत भिन्न थे और उनमें कई रोचक किस्से जुड़े हुए थे। उस समय नेताओं का मुख्य जोर बड़ी-बड़ी जनसभाओं और दूर-दराज के गांवों में पदयात्राओं पर होता था। नेता सीधे जनता से मिलते थे, उनकी समस्याओं को सुनते थे और अपने विचारों को रखते थे।
 
चुनाव प्रचार के अलग-अलग तरीके : निरक्षरता के उच्च स्तर के कारण मौखिक प्रचार बहुत महत्वपूर्ण था। स्थानीय स्वयंसेवक और पार्टी कार्यकर्ता घर-घर जाकर या चौपालों पर लोगों को उम्मीदवारों और उनकी नीतियों के बारे में बताते थे। कई जगह स्थानीय गीत-संगीत, नुक्कड़ नाटक और कहानियों के माध्यम से भी प्रचार किया जाता था। नेता ग्रामीण इलाकों में अक्सर बैलगाड़ी, साइकिल या पैदल ही यात्रा करते थे। 
 
लाउडस्पीकर उस समय इतने आम नहीं थे। जहां उपलब्ध होते थे, वहां उनका बहुत प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाता था, लेकिन कई जगह ढोल-नगाड़ों और पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ प्रचार होता था। हाथ से लिखे हुए या साधारण ब्लॉक प्रिंटिंग वाले पोस्टर ही इस्तेमाल होते थे, जिन पर अक्सर उम्मीदवार का नाम, चुनाव चिन्ह और पार्टी का नाम लिखा होता था।
 
अलग-अलग मतपेटियां : उस समय हर उम्मीदवार और पार्टी के लिए अलग-अलग रंग की मतपेटियां होती थीं, जिन पर संबंधित पार्टी का चुनाव चिन्ह बना होता था। यह उन मतदाताओं के लिए था जो पढ़-लिख नहीं सकते थे। प्रचार के दौरान लोगों को समझाया जाता था कि उन्हें किस रंग की पेटी में अपना वोट डालना है। उदाहरण के लिए, कांग्रेस के लिए एक रंग और चुनाव चिन्ह निर्धारित था, जबकि अन्य पार्टियों के दूसरा। 
 
जात-पांत और स्थानीय मुद्दे : कई नेता स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे और उनका व्यक्तिगत त्याग और संघर्ष प्रचार का बड़ा हथियार था। वे लोगों को याद दिलाते थे कि उन्होंने देश की आजादी के लिए क्या-क्या कुर्बानियां दी हैं। हालांकि बिहार जैसे राज्य में जातिगत समीकरण उस समय भी महत्वपूर्ण रहे। प्रचार में जातीय सभाएं और विभिन्न समुदायों को लक्षित करने वाली अपीलें आम थीं। स्थानीय मुद्दे, जैसे सिंचाई, शिक्षा और गरीबी उन्मूलन भी प्रचार का अभिन्न अंग थे।
 
कांग्रेस को मिला भारी बहुमत : कांग्रेस ने यह चुनाव भारी बहुमत से जीता था। कांग्रेस को उस समय 239 सीटें मिली थीं, जबकि झारखंड पार्टी 32  और सोशलिस्ट पार्टी 23 सीटें जीतने में सफल रही थीं। शुरुआती चुनाव होने के कारण मतदाताओं की जागरूकता और भागीदारी कम थी। बिहार में कुल 42.60% मतदान हुआ था। चुनाव के बाद सबसे बड़ा सवाल यह था कि नवगठित राज्य का नेतृत्व कौन करेगा? मुख्यमंत्री पद के लिए कांग्रेस के ही दो कद्दावर नेता आमने-सामने थे, जिनकी जोड़ी को आज भी बिहार की राजनीति में सम्मान से याद किया जाता है। श्रीकृष्ण सिंह (श्री बाबू) पंडित जवाहरलाल नेहरू के करीबी माने जाते थे। डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह (बाबू साहब) राजपूत जाति से ताल्लुक रखते और संगठन पर मजबूत पकड़ रखते थे।
 
विधायकों के वोट से हुआ मुख्‍यमंत्री पद का फैसला : मुख्यमंत्री पद के लिए जब दोनों नेताओं के बीच सहमति नहीं बन पाई, तो कांग्रेस पार्टी ने मुख्यमंत्री चुनने के लिए नवनिर्वाचित विधायकों के बीच मतदान कराने का फैसला किया। इस आंतरिक चुनाव में श्रीकृष्ण सिंह को अनुग्रह नारायण सिंह की तुलना में अधिक वोट मिले। श्रीकृष्ण बिहार के पहले निर्वाचित मुख्यमंत्री बने। अनुग्रह नारायण सिंह ने उप-मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री का पद संभाला। दोनों दिग्गजों ने अपने-अपने जातिगत आधारों और प्रशासनिक क्षमताओं का उपयोग करते हुए एक साथ मिलकर काम किया। यह श्री बाबू और बाबू साहब की परिपक्वता का ही प्रमाण था कि सजातीय प्रतिस्पर्धी होने के बावजूद जमींदारी उन्मूलन जैसे कड़े और बड़े फैसले लिए और आधुनिक बिहार की नींव रखी।
 
प्रमुख पार्टियां : उस समय कांग्रेस के अलावा भारतीय जनसंघ, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, फॉरवर्ड ब्लॉक (मार्क्सवादी समूह), किसान मजदूर प्रजा पार्टी, अखिल भारतीय रामराज्य परिषद, सोशलिस्ट पार्टी, झारखंड पार्टी, अखिल भारतीय संयुक्त किसान सभा आदि प्रमुख पार्टियां थीं। कुल मिलाकर, 1951 का बिहार विधानसभा चुनाव प्रचार सादगी, सीधे जुड़ाव और रचनात्मकता का एक अनूठा मिश्रण था, जो एक नए राष्ट्र में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने का प्रयास कर रहा था। यह आज के हाई-टेक और मीडिया-केंद्रित चुनाव प्रचार से बहुत अलग था, लेकिन इसने भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया की नींव रखी।