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Last Updated : मंगलवार, 7 अक्टूबर 2025 (14:42 IST)

Bihar Assembly Elections 2025: पांच प्रमुख मुद्दे और चेहरे जो तय करेंगे बिहार का 'बाहुबली'

Bihar election 2025
Bihar Assembly Elections 2025: बिहार की राजनीति हमेशा से ही अप्रत्याशित मोड़ों और जातिगत समीकरणों की रणभूमि रही है। आगामी विधानसभा चुनाव दो चरणों में 6 और 11 नवंबर 2025 को होंगे। यह चुनाव न केवल सत्ता की कुर्सी पर दांव लगाने वाला है, बल्कि कई प्रमुख नेताओं के राजनीतिक करियर का भी अंतिम अध्याय लिख सकता है। मोदी मैजिक, नीतीश कुमार की लंबी पारी का समापन, तेजस्वी यादव की उभरती ताकत, राहुल गांधी की राष्ट्रीय अपील और प्रशांत किशोर का 'डार्क हॉर्स' होना, ये सब मिलकर एक रोमांचक ड्रामा रच रहे हैं। यहां महागठबंधन में कांग्रेस और एनडीए में चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) अपनी हिस्सेदारी तलाश रही हैं, जबकि प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी (जेएसपी) एक नए विकल्प के रूप में उभर रही है।
 
बिहार चुनाव इस मायने में पहले विधानसभा चुनाव भी होंगे, जब चुनाव आयोग ने इस साल 24 जून को बिहार से शुरू होकर देश में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) करने का फैसला किया। बिहार एसआईआर के बाद, राज्य की मतदाता सूची में 68.5 लाख मतदाताओं की छंटनी की गई, साथ ही 21.53 लाख नए जोड़े गए, जिससे कुल पंजीकृत मतदाताओं की संख्या लगभग 7.42 करोड़ हो गई है। 
 
ऐसे में 5 प्रमुख कारक हैं जो बिहार के 243 सीटों वाले इस चुनाव को परिभाषित करेंगे। ये मुद्दे न केवल वोटरों की भावनाओं को प्रभावित करेंगे, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति के समीकरणों को भी बदल सकते हैं।
 
1. नीतीश कुमार के स्वास्थ्य पर उठते सवाल : बिहार की राजनीति में 'नीतीश मॉडल' का नाम अनिवार्य रूप से जुड़ा है, लेकिन 74 वर्षीय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के स्वास्थ्य को लेकर चल रहीं अटकलें इस चुनाव का सबसे संवेदनशील मुद्दा बन चुकी हैं। विपक्ष, खासकर राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने इसे हथियार बना लिया है। तेजस्वी यादव सार्वजनिक मंचों पर नीतीश के वीडियो शेयर कर दावा करते हैं कि राज्य अब सात-आठ नेताओं और नौकरशाहों के एक छोटे गुट के हवाले है। कई क्षेत्रीय दलों के नेताओं के बयान कि 'नीतीश को अब आराम करना चाहिए' इस भावना को प्रतिबिंबित करते हैं। 
 
राजनीतिक दृष्टि से, यह मुद्दा एनडीए के लिए दुधारी तलवार साबित हो रहा है। जेडीयू इन आरोपों को खारिज तो कर रही है, लेकिन सहयोगी 'भाजपा का मौन' कई सवालों को जन्म दे रहा है। भाजपा का कहना है कि चुनाव नीतीश के नेतृत्व में लड़ा जाएगा, लेकिन उसके बाद क्या? संदेह पैदा करता है। यदि नीतीश के स्वास्थ्य का मुद्दा हावी हो गया, तो एनडीए का वोट बैंक, विशेषकर ईबीसी और अत्यंत पिछड़ा वर्ग बिखर सकता है। विपक्ष इसे 'परिवर्तन की पुकार' के रूप में पेश कर रहा है, जो युवा मतदाताओं को आकर्षित कर सकता है। कुल मिलाकर, यह मुद्दा नीतीश के व्यक्तिगत करियर से ज्यादा एनडीए की एकजुटता को परखेगा।
 
2. लोक-लुभावन वादों की फ्रीबीज वाली राजनीति से उम्मीद : बिहार जैसे गरीबी और बेरोजगारी से जूझते राज्य में वादे हमेशा वोटों का सबसे बड़ा हथियार रहे हैं। एनडीए सरकार ने सत्ता-विरोधी लहर को कुचलने के लिए कल्याणकारी योजनाओं की बाढ़ ला दी है। राज्य की लाखों महिलाओं को 10,000 रुपए का व्यावसायिक अनुदान, 1.89 करोड़ परिवारों को 125 यूनिट मुफ्त बिजली, सामाजिक पेंशन को 400 से बढ़ाकर 1100 रुपए मासिक, जीविका-आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के मानदेय में वृद्धि और 18-25 वर्ष के बेरोजगारों के लिए 1000 रुपए मासिक भत्ता ये घोषणाएं ग्रामीण और महिला मतदाताओं को सीधे लक्षित करती हैं।
 
ये वादे एनडीए की रणनीति का हिस्सा हैं जो 'मोदी की गारंटी' को बिहार की जमीन पर उतारते हैं। लेकिन विपक्ष इन्हें 'चुनावी जुमला' बताकर खारिज कर रहा है। विपक्ष का दावा है कि ये योजनाएं कागजी हैं। महागठबंधन अपनी 'न्याय योजना' से पलटवार कर सकता है, लेकिन एनडीए की योजनाओं की तात्कालिक अपील अधिक मजबूत लग रही है। यदि ये योजनाएं वोटों में तब्दील हुईं, तो एनडीए को फायदा होगा, अन्यथा दांव उल्टा भी पड़ सकता है। यह मुद्दा बिहार की 'कल्याणकारी राजनीति' को और गहरा करेगा, जहां वोटर अल्पकालिक लाभ पर लॉन्ग-टर्म सुशासन को तरजीह दे सकते हैं।
 
3. SIR से चुनावी प्रक्रिया पर सवाल : चुनाव आयोग के विशेष गहन संशोधन अभियान (SVEEP) को विपक्ष ने 'वोट चोरी' का हथियार बता दिया है। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की 'वोटर अधिकार यात्रा' में लाखों की भीड़ जुड़ना इस मुद्दे की गंभीरता दर्शाता है। विपक्ष का आरोप है कि मोदी सरकार मतदाता सूची में हेरफेर कर एनडीए के पक्ष में धांधली कर रही है। दूसरी ओर, एनडीए कहना है कि महागठबंधन 'घुसपैठियों' (बांग्लादेशी या अन्य) को वोटर बनाकर साजिश रच रहा है।
 
आंकड़ों के लिहाज से, भले ही चुनाव आयोग के आंकड़े दोनों दावों को कमजोर करते हैं, लेकिन राजनीतिक रूप एसआईआर का मुद्दा ध्रुवीकरण का माध्यम बनेगा। विपक्ष इसे अल्पसंख्यक और गरीब वोटरों को एकजुट करने के लिए इस्तेमाल करेगा, जबकि एनडीए हिंदुत्व के एजेंडे से पलायन रोकने का दावा करेगा। बिहार के संवेदनशील सामाजिक ताने-बाने में यह विवाद जातिगत गठजोड़ों को प्रभावित कर सकता है, खासकर मुस्लिम-यादव समीकरण को। अंततः, यह मुद्दा लोकतंत्र की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करेगा और राष्ट्रीय विमर्श को प्रभावित करेगा।
 
4. फेस वेल्यू : मोदी बनाम राहुल का राष्ट्रीय मुकाबला : नीतीश कुमार एनडीए का आधिकारिक चेहरा हैं, लेकिन उनके स्वास्थ्य को देखते हुए स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही रहेंगे। मोदी की रैलियां और अपील बिहार के हिंदुत्व-समर्थक वोटरों को एकजुट करती हैं, जबकि स्थानीय भाजपा के चेहरे जैसे डिप्टी सीएम सम्राट चौधरी या पार्टी अध्यक्ष दिलीप जायसवाल में राज्यव्यापी प्रभाव कम है। विपक्ष की ओर से राहुल गांधी अभियान की कमान संभाल रहे हैं, जो उनकी 'वोटर अधिकार यात्रा' की भीड़ को वोटों में बदलने की कोशिश करेंगे।
 
यह मुकाबला बिहार को राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र बना देगा। इसमें मोदी की अजेय छवि बनाम राहुल की उभरती युवा अपील प्रमुख भूमिका निभाएगी। मोदी की छवि का फायदा उच्च जातियों और शहरी वोटरों से होगा, जबकि राहुल दलित-मुस्लिम गठजोड़ को मजबूत कर सकते हैं। यदि तेजस्वी यादव स्थानीय मुद्दों पर फोकस रखें तो महागठबंधन को संतुलन मिलेगा अन्यथा मोदी फैक्टर एनडीए को बहुमत दिला सकता है। यह चुनाव 2029 के लोकसभा चुनाव के लिए भी ट्रेलर साबित हो सकता है। 
 
5. पीके फैक्टर : चुनावी शोर बनेगा प्रशांत किशोर का नया दौर : चुनावी रणनीतिकार से राजनेता बने प्रशांत किशोर (पीके) की जन सुराज पार्टी (जेएसपी) बिहार की जाति-केंद्रित राजनीति में एक ताजा हवा का झोंका है। पलायन, बेरोजगारी, शिक्षा और सुशासन पर फोकस करते हुए किशोर युवाओं और मध्यम वर्ग को आकर्षित कर रहे हैं। एनडीए के वादों की बौछार को भी पीके के दावों का जवाब माना जा रहा है।
 
राजनीतिक रूप से, जेएसपी एक 'थर्ड फोर्स' के रूप में उभर सकती है, जो एनडीए और महागठबंधन दोनों के वोट काटेगी। बिहार के 40% युवा मतदाता, जो जाति से ऊब चुके हैं, पीके के 'बदलाव' संदेश से जुड़ सकते हैं। यदि जेएसपी 20-30 सीटें जीत ली तो यह किंगमेकर की भूमिका में आ सकती है। लेकिन, चुनौती यह है कि बिना मजबूत संगठन के यह 'फ्लैश इन द पैन' साबित हो सकती है। पीके फैक्टर बिहार को 'पोस्ट-जाति' राजनीति की ओर धकेल सकता है, जो राष्ट्रीय स्तर पर एक मॉडल बनेगा।
 
कहा जा सकता है कि बिहार चुनाव 2025 सत्ता से ज्यादा नेतृत्व और दिशा का चुनाव होगा। नीतीश का स्वास्थ्य, वादों की होड़, वोटिंग प्रक्रिया का विवाद, मोदी-राहुल का मुकाबला और पीके का उदय ये पांच कारक मिलकर बिहार में एक 'जटिल पजल' रचेंगे। एनडीए की मजबूत मशीनरी और मोदी की अपील इसे फेवरेट बनाती है, लेकिन विपक्ष की एकजुटता और युवा असंतोष उलटफेर भी कर सकता है। अंत में, बिहार के 7.4 करोड़ मतदाता तय करेंगे कि राज्य 'परिवर्तन' की राह पर चलेगा या 'स्थिरता' की। यह चुनाव न केवल बिहार, बल्कि पूरे भारत की राजनीतिक धारा को प्रभावित करेगा। क्या नीतीश की आखिरी पारी शानदार होगी या तेजस्वी का सूरज उगेगा? यह समय ही बताएगा।
Edited by: Vrijendra Singh Jhala