त्रिभुवन, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
ऐसी चर्चाएं तो पहले से तेज़ थीं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लगातार दो जनसभाओं में मानो उन पर मुहर लगा दी। वह जिस खुली जीप पर सवार होकर आए, उनके साथ सिर्फ़ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और सांसद सीपी जोशी थे, पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश की प्रभावशाली नेता वसुंधरा राजे नहीं थीं।
मंच का संचालन सांसद दीया कुमारी कर रही थीं। मंच पर प्रदेश भाजपा की कई महिला नेताएं भी मौजूद थीं। दीया कुमारी को संघनिष्ठ नेताओं का अप्रत्याशित समर्थन भी पार्टी के पुराने पहरेदारों को चौंका रहा है।
प्रधानमंत्री ने जयपुर की सभा में न तो पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का ज़िक्र किया और न ही उनके नेतृत्व वाली पूर्ववर्ती भाजपा सरकार की उपलब्धियों का।
राजस्थान में चेहरा विहीन भाजपा की इस स्थिति को लेकर चर्चाएं छिड़ गई हैं। भाजपा ने नई संसद के पहले ही सत्र में 'नारी शक्ति वंदन विधेयक' को दोनों सदनों में पारित करवाया है।
ऐसे समय में प्रदेश की एक ताक़तवर महिला नेता अगर अग्रणी भूमिका में नहीं दिख रही हैं तो ज़ाहिर है लोगों का ध्यान उस पर जाएगा ही।
हैरान करने वाली बात यह है कि एक अनुभवी नेता की तरह वे अपने ग़ुस्से और मनोभावों को लगातार पी रही हैं। उन्होंने अब तक ऐसी कोई प्रतिक्रिया सार्वजनिक तौर पर नहीं दी है, जिसकी उम्मीद उनसे बहुत से राजनीतिक खेमे लगाए हुए हैं।
ग़ुस्सा ज़ाहिर नहीं कर रहीं वसुंधरा
राजस्थान की राजनीति में क़रीब दस साल पहले अपने एक प्रतिद्वंद्वी को दी अशोक गहलोत की एक नसीहत को याद करें, "जो नेता इस प्रदेश में ज़हर पीना सीख जाता है, वह कामयाब हो जाता है और जो नहीं पी सकता, वह दरकिनार हो जाता है।"
कुछ लोग मान रहे हैं कि वसुंधरा इस समय गहलोत की पुरानी सलाह पर अमल कर रही हैं।
वसुंधरा 2003 से लगातार हर पाँच साल बाद अपनी प्रभावशाली यात्राएं प्रदेश भर में निकालती रही हैं, यह पहला मौक़ा है, जब उनके नेतृत्व में यात्रा नहीं निकली और चार दिशाओं और चार इलाक़ों में अलग-अलग यात्राएँ सामूहिक नेतृत्व में पार्टी ने निकालीं।
एक मौक़ा तो ऐसा था, जब आज के असम के राज्यपाल और तब वसुंधरा राजे के प्रतिद्वंद्वी गुलाबचंद कटारिया ने मेवाड़ में अलग से यात्रा निकालनी चाही थी तो उसे रोक दिया गया था लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं हुआ।
चेहरा वसुंधरा नहीं बल्कि कमल
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सारे कयासों को दरकिनार करते हुए सोमवार को चित्तौड़गढ़ के सांवरियासेठ में हुई सभा में साफ़ कहा, इस विधानसभा चुनाव में सिर्फ़ एक ही चेहरा है और वह कमल, हमारा उम्मीदवार सिर्फ़ कमल है, इसलिए एकजुटता के साथ कमल को जिताने के लिए भाजपा कार्यकर्ता काम करें।
प्रदेश के इस मौजूदा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में अब प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि भाजपा ने राज्य में किसी को मुख्यमंत्री का चेहरा क्यों नहीं बनाया है? इसके पीछे क्या वजह है?
और भी कई प्रश्न इससे जुड़ गए हैं, क्या किसी एक नाम पर सहमति नहीं बन सकी? ऐसा हुआ तो क्यों हुआ? वसुंधरा राजे की उपेक्षा क्यों हो रही है? क्या ये स्थिति भाजपा के पक्ष में जाएगी? क्या इस स्थिति का भाजपा को नुक़सान हो सकता है?
हमने इन प्रश्नों के जवाब तलाश करने की कोशिश आम मतदाताओं और कुछ सजग प्रेक्षकों से बातचीत करके की।
राजस्थान के चुनावी समर को लेकर हम जब भाजपा और संघ के पुराने नेताओं से बातचीत करते हैं तो एक नया सार यह निकलकर आ रहा है कि अब बाक़ी प्रदेशों की तरह भाजपा का चेहरा तो बदला ही जा रहा है, उसकी चाल भी बदली जा रही है, राजस्थान में तो पार्टी का चरित्र भी बदलने की तैयारी में है।
भाजपा को बदलने की तैयारी
किसी दौर में राज्य के कद्दावर नेता और भाजपा के संस्थापक सदस्य भैरो सिंह शेखावत ने एक बातचीत में 2008 के चुनाव से ठीक पहले मुझसे कहा था, "यह भाजपा सामान्य भाजपा नहीं, मेरी बनाई भाजपा है और इसमें मैंने राजस्थान के 36 राजनीतिक दलों को एक-एक करके मिलाया है।'
शेखावत ने तब अखिल भारतीय रामराज्य परिषद, सोशलिस्ट पार्टी, स्वतंत्र पार्टी, कृषिकार लोक पार्टी, अखिल भारतीय हिन्दू महासभा, किसान मजदूर प्रजा पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, जनता दल, लोकदल जैसे कितने ही दलों को राजस्थान भाजपा में मिलाने की जुगत की थी।
लेकिन शेखावत जैसे ही दिल्ली गए और उपराष्ट्रपति बने तो राजस्थान भाजपा की कमान प्रदेश अध्यक्ष बनाकर वसुंधरा राजे को सौंपी गई थी।
वसुंधरा राजे को 2003 के चुनाव में मिली कामयाबी का ऐसा असर हुआ कि भाजपा में शेखावत और जसवंत सिंह सहित विभिन्न बड़े नेताओं के अधिकतर सिपहसालार राजे के साथ आ जुटे, बड़े नेता हाशिए पर खिसकते गए और वसुंधरा राजस्थान भाजपा में एक नया उल्लास लेकर आईं।
साल 2008 में चुनाव हुए तो संघनिष्ठ नेताओं ने वसुंधरा के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया और नतीजे कांग्रेस के पक्ष में चले गए, राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि वसुंधरा का करिश्मा और बढ़ गया और वे 2013 में 200 सीटों वाली विधानसभा में 163 सीटें लेकर आईं, कांग्रेस महज 21 सीटों पर सिमट गई थी।
इस बार शुरू से कुछ संदेह जताए जा रहे थे कि संभवत: वसुंधरा को चुनाव में चेहरा घोषित नहीं किया जाए, लेकिन भाजपा की चारों राजनीतिक यात्राएं जहाँ-जहाँ गईं, वहाँ-वहाँ वसुंधरा की ग़ैर-मौजूदगी के कारण उल्लास की कमी लोगों ने महसूस की।
नए चेहरों को तरजीह
प्रेक्षकों का मानना है कि राजस्थान में भैरो सिंह शेखावत के बाद भाजपा अब एक और पीढ़ी के परिवर्तन वाले दौर में है। संघ और भाजपा के नेता अब पार्टी को एक नए चरित्र में ढालने तो जा ही रहे हैं, पार्टी संगठन में वे जनरेशन शिफ़्ट भी कर रहे हैं।
एक प्रमुख संघनिष्ठ भाजपा नेता का कहना है, "मोदी देश भर में अमृतकाल की टीम तैयार कर रहे हैं, जो 2047 में पार्टी को अभूतपूर्व कामयाबी के दौर में ले जाए, और आज जो चेहरे तय हो रहे हैं, वे अगले 25 साल के लिए होंगे, इसलिए अभी और बहुत से बदलाव देखने को मिलेंगे।"
संघ के पुराने नेता और भाजपा में कई राजनीतिक पीढ़ियों का उतार-चढ़ाव देख चुके कन्हैयालाल चतुर्वेदी कहते हैं, "देश हो या प्रदेश, अच्छे परिवर्तन हो रहे हैं। नए लोग आने ही चाहिए, नए तभी आएंगे, जब पुराने अपने अनुभवों से और नए अपने काम से संगठन को मज़बूत बनाएंगे, एमएलए हो या एमपी, तीन बार से अधिक मौक़ा नहीं दिया जाना चाहिए, तभी तो युवा आगे आएंगे।"
चतुर्वेदी ने संघ की प्रसिद्ध पत्रिका "पाथेय कण' का लंबे समय तक संपादन किया है। वे बताते हैं, "संघ में भी अब नई पीढ़ी आ चुकी है, नए लोग तेज़ी से आ रहे हैं, हमारे यहाँ अब अधिकतर प्रचारक 50 साल से कम उम्र के हैं।'
कांग्रेस का चेहरा अशोक गहलोत
प्रदेश में चुनावी समर की घोषणा में जब कुछ ही दिन शेष हैं, चर्चाओं का एक अलग ही दौर बना हुआ है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपनी जनसभाओं में जब सरकार के लौटने के दावे करते थे तो कांग्रेस के विधायकों का मानना था कि कांग्रेस सत्ता में लौट तो सकती है, बशर्ते पायलट और गहलोत एक हो जाएं।
अब पायलट और गहलोत एक तो नहीं हुए, लेकिन कम-से-कम दोनों के बीच कटुता खुले में नहीं दिख रही है और पार्टी के लिए दोनों जमकर दौरे कर रहे हैं।
प्रदेश में एक बार कांग्रेस और एक बार भाजपा वाले हिसाब से देखा जाए तो इस बार सत्ता में आने की बारी भाजपा की थी, ऐसे में भाजपा आला कमान ने वसुंधरा जैसी ताक़तवर नेता को इस अभियान का नेतृत्व क्यों नहीं सौंपा और यह जोखिम क्यों लिया?
बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार संजीव श्रीवास्तव बताते हैं, "पिछले 25-30 साल में जो हमेशा की तरह स्थिति लगती थी और लगता था कि बीजेपी की सरकार ज़ोरदार ढंग से आ जाएगी, इस बार ऐसा नहीं लगता कि एकतरफ़ा चुनाव हो रहा है, परिणाम जो भी आए, लेकिन सत्ता में रहते हुए कांग्रेस पहली बार टक्कर में दिख रही है।"
वे बताते हैं, "कांग्रेस बहुत कम मार्जिन से जीतकर आती थी और भाजपा धमाके के साथ, इस बार यह चुनाव संघर्ष वाला लग रहा है। इसका एक पहलू यह है कि विधानसभा चुनावों में हमने देखा कि स्थानीय मुद्दे और स्थानीय चेहरों का भी महत्व हो जाता है, मोदी बनाम गहलोत में भाजपा के स्थानीय चेहरे का अभाव लोगों को खल सकता है।"
प्रदेश में अब सवाल उठ रहा है कि भाजपा से गहलोत के सामने कौन है?
संजीव श्रीवास्तव कहते हैं, "कोई चेहरा घोषित नहीं होने से यह धारणा बन रही है कि वसुंधरा राजे को किनारे कर दिया गया है। इस स्थिति का नुक़सान होगा या फ़ायदा, यह तो बाद में स्पष्ट होगा लेकिन अभी तो यही चर्चा है।"
इस समय भाजपा का आला कमान बहुत ताक़तवर है और एक ताक़तवर नेतृत्व अपनी पसंद और नापसंद के नेताओं में अंतर करता है, भले ऐसा नेतृत्व भाजपा का हो या काँग्रेस का।
कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के कमज़ोर होने से राजस्थान में दूसरी तरह के हालात हैं और भाजपा का नेतृत्व मज़बूत होने से अलग तरह की परिस्थितियां बन गई हैं।
प्रेक्षक यह भी मानते हैं कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व जिस समय कमज़ोर था, तब क्षत्रपों के तेवर अलग थे और उनकी हुंकारों से आलाकमान के महलों की नींव हिलती थी लेकिन अब केंद्रीय नेतृत्व असाधारण रूप से शक्तिशाली है तो वहीं क्षत्रप सत्ता के रथ का घर्घर-नाद सुनकर चुप्पी साधे हैं। सत्ता, शक्ति और राजनेताओं का यह रवैया इसी तरह का रहता है। पार्टी भले कोई हो।
इस स्थिति का बीजेपी पर क्या असर होगा?
संजीव श्रीवास्तव मानते हैं, "आम तौर पर देखा जाए तो राजस्थान में बहुत लोग तो वसुंधरा राजे को ही बीजेपी का नेता मानते हैं, इस लिहाज से उनके समर्थकों की भी उपेक्षा हुई तो नुकसान की आशंका है।''
ताजा संकेतों के अनुसार, भाजपा आलाकमान ने राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, गृह मंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष को राजस्थान भेजकर प्रदेश स्तरीय नेताओं के साथ मैराथन बैठकें करवाई हैं और चुनावों के एलान से पूर्व हर कोण से स्थितियों को काबू किया है।
वसुंधरा राजे और भाजपा नेतृत्व के बीच समन्वय स्थापित हो जाने का सबसे बड़ा संकेत यह है कि पार्टी से अलग हो चुके कई ताक़तवर नेताओं की पार्टी में वापसी होने के संकेत मिले हैं, ये सब नेता वसुंधरा राजे के क़रीबी थे, इनमें से देवीसिंह भाटी गुरुवार को पार्टी में शामिल हो गए।
सूत्रों के अनुसार भाटी की पार्टी में वापसी केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल के विरोध को लेकर अटकी हुई थी, अब दोनों में सुलह के समाचार हैं।
कुछ जानकार मानते हैं कि इसका मतलब साफ़ है कि भाजपा हाईकमान वसुंधरा राजे के समर्थकों के प्रति सजग और संवेदनशील है।
अब वसुंधरा राजे समर्थक रणधीर सिंह भींडर को लेकर भी संकेत हैं कि वे जल्द पार्टी में आ जाएंगे, भींडर के लिए बड़ी रुकवाट गुलाबचंद कटारिया थे, जिन्हें असम का राज्यपाल बनाया जा चुका है। भींडर कहते हैं, संदेश अभी आया नहीं है, आएगा तो चले जाएंगे।
राजनीतिक प्रेक्षक मान रहे थे कि वसुंधरा राजे नाराज हुईं तो भाटी जैसे नेता या तो कांग्रेस में जाएंगे या फिर भाजपा विरोधियों को समर्थन देंगे, लेकिन हुआ इसका उलटा है।
वसुंधरा की उपेक्षा या नई रणनीति
वसुंधरा राजे को इस चुनाव में मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बनाने के मामले में पिछले कई चुनावों में प्रदेश भाजपा के रणनीतिकारों में एक रहे कैलाशनाथ भट्ट मानते हैं, राजस्थान में पार्टी की प्रमुख नेता वसुंधरा राजे ही हैं और जिस सामूहिक नेतृत्व की बात की जा रही है, उनमें एक भी ऐसा नहीं है, जो विधानसभा का चुनाव लड़ता हो और अपनी सीट पर जाए बिना प्रदेश की 100 सीटों पर प्रचार कर सके। 100 तो क्या, 20-30 सीटों पर भी, यह क्षमता सिर्फ वसुंधरा राजे में है।
भट्ट कहते हैं, "वसुंधरा राजे की उपेक्षा पार्टी को भारी पड़ सकती है, यह केंद्रीय नेतृत्व को समझ में आ गया है और देवीसिंह भाटी का पार्टी में आना इस बात का प्रमाण है।"
भट्ट के अनुसार, वसुंधरा को सीएम फेस बनाया जाता तो वे मोदी के साथ मिलकर प्रदेश में वे पूरी फिजां बदल देतीं।
वे यह भी मानते हैं भाजपा में यह वसुंधरा की उपेक्षा के बजाय संघ की उस रणनीति का हिस्सा है, जिसके माध्यम से वह देश और प्रदेशों में सियासत का मौसम बदलने की कोशिश कर रहा है, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, गुजरात आदि सहित विभिन्न राज्यों में इसी तरह किया गया है, मुख्यमंत्री पद का कोई चेहरा सामने नहीं किया गया।
भट्ट के अनुसार, पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी उन्हीं परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, जो आज वसुंधरा राजे के सामने हैं।
मोदी नाम पर गहरा भरोसा
यह सवाल कि भाजपा ने राज्य में किसी को मुख्यमंत्री का चेहरा क्यों नहीं बनाया, राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और प्रदेश की सियासत के पुराने जानकार प्रो। अरुण चतुर्वेदी बताते हैं, "प्रादेशिक क्षत्रपों की जगह भाजपा अब केंद्रीय नेतृत्व और ख़ास तौर पर नरेंद्र मोदी के चेहरे को ही भाजपा का चेहरा बनाने में लगी है, लेकिन कर्नाटक सहित कई राज्यों में यह प्रयोग विफल हुआ है और स्थानीय क्षत्रपों की उपेक्षा पार्टी को भारी पड़ी है।"
प्रो. चतुर्वेदी मानते हैं कि वसुंधरा राजे अगर वाक़ई नाराज होती हैं और पार्टी उन्हें साथ नहीं ले पाती है तो इसका नुकसान होने की आशंका है। अभी पार्टी के प्रमुख दलित नेता और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल भी नाराज़ हैं और पार्टी उन्हें निलंबित कर चुकी है।
चतुर्वेदी के अनुसार, "मेघवाल वसुंधरा राजे के कट्टर समर्थक हैं और 2008 में भाजपा की हार के समय मेघवाल ने यशवंत सिन्हा समिति से कहा था कि मैंने मेवाड़ हरवाया है, मेघवाल अब भी पांच-सात सीटों पर तो उलटफेर कर ही सकते हैं।"
क्या यह वसुंधरा राजे की उपेक्षा है या मामला कुछ और है, इस प्रश्न पर प्रेक्षक मानते हैं कि यह क्षेत्रीय क्षत्रपों को हटाने के ट्रेंड है, ऐसा कई राज्यों में किया जा चुका है। महाराष्ट्र, गुजरात, हिमाचल, हरियाणा वगैरह इसके उदाहरण हैं।
राज्य की राजनीति में अगला दौर तब देखने को मिलेगा जब टिकटों का बँटवारा होगा, उससे यह समझने में मदद मिलेगी वसुंधरा की कितनी चल रही है, या नहीं चल रही है।