मंगलवार, 19 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. बीबीसी हिंदी
  3. बीबीसी समाचार
  4. How old are the roots of reservation protests in Bangladesh
Written By BBC Hindi
Last Modified: शुक्रवार, 19 जुलाई 2024 (07:47 IST)

बांग्लादेश में आरक्षण विरोध की जड़ें कितनी पुरानी हैं

बांग्लादेश में आरक्षण विरोध की जड़ें कितनी पुरानी हैं - How old are the roots of reservation protests in Bangladesh
तान्हा तसनीम, बीबीसी न्यूज बांग्ला
बांग्लादेश में सरकारी नौकरियों में आरक्षण रद्द करने की मांग के मुद्दे पर चल रहे हिंसक प्रदर्शनों और झड़पों में मंगलवार से अब तक कम से कम सात लोगों की मौत हो चुकी है। इनमें छात्र और आम लोग शामिल हैं। इसके अलावा सैकड़ों लोग घायल हो गए हैं। इस हिंसा ने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया है।
 
मंगलवार को देश भर के कई शैक्षणिक संस्थानों के छात्रों ने सड़क पर उतर कर प्रदर्शन और नाकाबंदी शुरू की थी। इसके कारण ढाका के अलावा राजशाही, चटगांव और बगुड़ा समेत कई शहरों में वाहनों की आवाजाही ठप हो गई। नेशनल हाइवे पर भी यही स्थिति पैदा हो गई थी।
 
छात्र लीग और पुलिस के बीच कई जगह हिंसक संघर्ष हुए। हालात पर काबू पाने के लिए पुलिस को कई जगह फायरिंग करनी पड़ी। ख़बरों में बताया गया है कि इस हिंसा में ढाका में दो, रंगपुर में एक और चटगांव में तीन लोगों की मौत हो गई।
 
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने सभी से सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले तक धैर्य बनाए रखने का आग्रह किया। उन्होंने कहा, "मुझे विश्वास है कि छात्रों को सर्वोच्च न्यायालय से न्याय मिलेगा और वे निराश नहीं होंगे।"
 
आंदोलनकारी सरकारी नौकरियों में आरक्षण रद्द कर सिर्फ़ पिछड़ी जातियों के लिए अधिकतम पांच फ़ीसदी आरक्षण जारी रखते हुए आरक्षण व्यवस्था में संशोधन की मांग कर रहे हैं।
 
वर्ष 2018 में आरक्षण रद्द करने की अधिसूचना जारी होने से पहले तक सरकारी नौकरियों में मुक्ति योद्धा (स्वाधीनता सेनानी), ज़िलावार, महिला, अल्पसंख्यक और विकलांग—इन पांच वर्गों में कुल 56 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान था। लेकिन देश की आज़ादी के बाद साल 1972 में लागू पहले आरक्षण में यह प्रतिशत और अधिक था।
 
1972 से ही आरक्षण व्यवस्था लागू : बांग्लादेश में वर्ष 1972 से ही सरकारी नौकरियों में मुक्ति योद्धा, ज़िला और महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान था। तत्कालीन सरकार ने पांच सितंबर, 1972 को सरकारी, स्वायत्त और अर्ध-स्वायत्त संस्थानों और विभिन्न निगमों और विभागों में नियुक्ति और आरक्षण के प्रावधान से संबंधित एक कार्यकारी आदेश जारी किया था।
 
उसके मुताबिक, ऐसे संस्थानों में प्रथम श्रेणी की नौकरियों में नियुक्ति के मामले में 20 फ़ीसदी मेरिट के आधार पर और बाक़ी 80 फ़ीसदी ज़िलों के लिए आरक्षित किया गया था।
 
इस 80 फ़ीसदी में से ही मुक्ति योद्धाओं के लिए 30 फ़ीसदी और युद्ध से प्रभावित महिलाओं के लिए 10 फ़ीसदी आरक्षण का फैसला किया गया। यानी आरक्षण का एक बड़ा हिस्सा मुक्ति योद्धाओं के लिए आवंटित कर दिया गया।
 
पूर्व सचिव आबू आलम मोहम्मद शहीद ख़ान कहते हैं, "असली मुक्ति योद्धाओं में ज्यादातर किसान, मजदूर और बुनकर थे। ये समाज के पिछड़े तबके के लोग थे। यही वजह है कि देश की आज़ादी के बाद इन मुक्ति योद्धाओं की सहायता के लिए आरक्षण पर विचार किया गया ताकि विकास की राह पर आगे बढ़ सकें।"
 
इसके चार साल बाद वर्ष 1976 में पहली बार आरक्षण व्यवस्था में बदलाव किया गया। उस समय मेरिट यानी योग्यता के आधार पर नियुक्तियों का प्रतिशत बढ़ाया गया और सिर्फ़ महिलाओं के लिए आरक्षण की अलग व्यवस्था की गई।
 
यानी कुल नौकरियों में से योग्यता के आधार पर 40 फ़ीसदी, मुक्ति योद्धाओं के लिए 30 फ़ीसदी, महिलाओं के लिए 10 फ़ीसदी, युद्ध में ज़ख़्मी महिलाओं के लिए 10 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया और बाक़ी 10 फ़ीसदी नौकरियां जिलों के आधार पर आवंटित की गईं।
 
तत्कालीन स्थापना मंत्रालय (अब लोक प्रशासन) ने 1985 में आरक्षण के दायरे में अल्पसंख्यकों को शामिल करके और योग्यता के आधार पर भर्ती की मात्रा बढ़ाकर इस प्रणाली में संशोधन किया।
 
इसमें कहा गया, "प्रथम और दूसरी श्रेणी के पदों के लिए योग्यता आधारित कोटा 45 फ़ीसदी और ज़िलेवार कोटा 55 फ़ीसदी होगा। इस ज़िलेवार आरक्षण में से 30 प्रतिशत पदों पर स्वाधीनता सेनानियों, 10 प्रतिशत पर महिलाओं और पांच प्रतिशत पर उपजातियों को नियुक्त करना होगा।"
 
वर्ष 1990 में अराजपत्रित पदों पर नियुक्ति के मामले में आरक्षण प्रणाली में आंशिक बदलाव के बावजूद प्रथम और द्वितीय श्रेणी के पदों के लिए यह पहले जैसा ही रहा।
 
आरक्षण के दायरे में मुक्ति योद्धाओं के परिजन : वर्ष 1997 में सरकारी नौकरियों में मुक्ति योद्धाओं की संतान को भी शामिल किया गया। वर्ष 1985 में जारी एक अधिसूचना में आरक्षण के बँटवारे को जस का तस रखते हुए कहा गया कि अगर उपयुक्त मुक्ति योद्धा उम्मीदवार उपलब्ध नहीं हैं, तो मुक्ति योद्धाओं/शहीद मुक्ति योद्धाओं के पुत्रों और पुत्रियों को मुक्ति योद्धाओं के लिए तय आरक्षण में से 30 फ़ीसदी आवंटित किया जा सकता है।
 
उसके कुछ दिनों के बाद इस आशय की कई अधिसूचनाएं जारी की गईं कि मुक्ति योद्धाओं के बच्चों को तय आरक्षण के मुताबिक़ नौकरियां नहीं मिल रही हैं।
 
अधिसूचना में कहा गया था कि दिशा-निर्देश का पालन नहीं करने की स्थिति "संबंधित नियुक्ति अधिकारी के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाएगी।"
 
हालाँकि वर्ष 2002 में बीएनपी के नेतृत्व वाले चार दलों की गठबंधन सरकार के दौरान एक अधिसूचना जारी कर मुक्ति योद्धाओं के लिए आरक्षण के आवंटन से संबंधित पहले जारी की गई तमाम अधिसूचनाओं को रद्द कर दिया गया था।
 
इसमें कहा गया था कि मुक्ति योद्धाओं के लिए 30 फ़ीसदी आरक्षित पदों को दूसरे वर्ग उम्मीदवारों से भरने की बजाय आरक्षित रखने के पहले के निर्देश में संशोधन करते हुए सरकार ने फ़ैसला लिया है कि अगर 21वीं बीसीएस परीक्षा के आधार पर मुक्ति योद्धाओं के लिए तय आरक्षण में कोई उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिलता है तो उन पदों (कैडर और गैर-कैडर) को मेरिट सूची में शीर्ष पर रहने वाले उम्मीदवारों से भरा जा सकता है।
 
यानी मुक्ति योद्धाओं में उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिलने की स्थिति में उनके लिए आरक्षित 30 फ़ीसदी पदों को मेरिट लिस्ट के उम्मीदवारों से भरने का निर्देश दिया गया।
 
लेकिन वर्ष 2008 में अवामी लीग के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार ने सरकार ने सत्ता संभालने के बाद इस निर्देश को रद्द कर दिया। इसके साथ ही स्थापना मंत्रालय ने मुक्ति योद्धाओं की संतान के लिए आरक्षित पदों पर भर्ती संभव नहीं हो पाने की स्थिति में उन पदों को ख़ाली रखने की अधिसूचना जारी की।
 
आरक्षण व्यवस्था में अगला बदलाव वर्ष 2011 में किया गया। उस समय मुक्ति योद्धाओं के नाती-पोतों को भी इस 30 फीसदी आरक्षण में शामिल करने का फ़ैसला किया गया। उसके बाद वर्ष 2012 में सरकार ने विकलांगों के लिए एक फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान करते हुए अधिसूचना जारी की।
 
कैसे शुरू हुआ आरक्षण विरोधी आंदोलन : सरकारी, अर्ध-सरकारी, स्वायत्त और अर्ध-स्वायत्त संस्थानों में भर्ती में योग्यता से अधिक आरक्षण होने के मुद्दे पर हमेशा असंतोष रहा है। इस मुद्दे पर पहले भी कई बार आंदोलन होते रहे हैं। लेकिन उनका स्वरूप सीमित ही था।
 
वर्ष 2018 में पहली बार बड़े पैमाने पर आरक्षण विरोधी आंदोलन हुआ था। उस साल जनवरी में ढाका विश्वविद्यालय के एक छात्र और दो पत्रकारों ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण व्यवस्था रद्द करने और इसके पुनर्मूल्यांकन की मांग करते हुए हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की थी।
 
उसमें आरक्षण व्यवस्था को संविधान के ख़िलाफ़ बताया गया था। लेकिन मार्च में शीर्ष अदालत ने उस याचिका को ख़ारिज कर दिया। आरक्षण में सुधार के मक़सद से उस समय 'बांग्लादेश छात्र अधिकार संरक्षण परिषद' नामक एक मंच का भी गठन किया गया था।
 
अदालत में याचिका ख़ारिज होने के बाद सरकार ने आदेश जारी किया कि आरक्षण व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं होगा। लेकिन सरकार ने आरक्षण के प्रावधानों को कुछ ढीला कर दिया।
 
सरकार ने मुक्ति योद्धाओं के लिए आरक्षित पदों को ख़ाली रखने बात को हटाकर उन पदों पर मेरिट लिस्ट से नियुक्ति की बात कही। लेकिन छात्र अपनी मांगों पर अड़े रहे। सुरक्षा बलों ने उस समय आंदोलनकारियों के विरोध प्रदर्शन के दौरान कई जगह आंसू गैस के गोले छोड़े और हवाई फायरिंग की थी। कई छात्रों को गिरफ़्तार भी किया गया था।
 
लगातार आंदोलन के कारण प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने 11 अप्रैल को संसद में हर तरह का आरक्षण रद्द करने का एलान कर दिया। लेकिन इसकी अधिसूचना अक्तूबर में जारी की गई। उस अधिसूचना के जरिए सरकार ने पहली और दूसरी श्रेणी की सरकारी नौकरियों की भर्ती में आरक्षण रद्द कर दिया था। उसमें कहा गया था कि उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिलने की स्थिति में उनको मेरिट लिस्ट के उम्मीदवारों से भरा जाएगा।
 
हालाँकि घोषणा और अधिसूचना जारी होने के बीच आंदोलन करने वालों पर हमले और गिरफ़्तारी की घटनाएं बढ़ीं।
 
दूसरी ओर, मुक्ति योद्धाओं की कुछ संतानों ने आरक्षण रद्द करने के फ़ैसले के ख़िलाफ़ वर्ष 2021 में हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की। बीते 5 जून को उनके पक्ष में फ़ैसला आया। सरकार ने इस फ़ैसले पर रोक लगाने के लिए अपील दायर की।
 
इस बीच, छात्रों ने पहली जुलाई से आरक्षण रद्द करने की मांग में आंदोलन शुरू कर दिया। छात्रों ने 'भेदभाव विरोधी छात्र आंदोलन' के बैनर तले इस आंदोलन को जारी रखा है।
 
विश्लेषकों का क्या कहना है
वर्ष 2018 के आरक्षण विरोधी आंदोलन में सबसे ज्यादा चर्चा मुक्ति योद्धाओं के लिए आरक्षण की हिस्सेदारी पर ही हुई थी। इस बार के आंदोलन में भी बार-बार यही मुद्दा उठ रहा है।
 
पूर्व सचिव और अर्थशास्त्री मोहम्मद फ़ावजूल कबीर ख़ान कहते हैं कि आरक्षण का मक़सद लेवल प्लेइंग फील्ड या सबके लिए समान अवसर मुहैया कराने का प्रयास करना है। उनका सवाल है कि विकलांगों के अलावा किसी और को आरक्षण की ज़रूरत भी है या नहीं?
 
मोहम्मद ख़ान कहते हैं, "यह सरकार के कार्यकारी अधिकार का मामला है या अदालत का।।। अधिकारों या संविधान का उल्लंघन अदालत का मामला है। लेकिन इस मामले में पहले तो कार्यकारी आदेश से ही आरक्षण लागू हुआ और अब उसी से रद्द कर दिया गया है।"
 
पूर्व सचिव मोहम्मद शहीद ख़ान कहते हैं, "एक परिवार कितनी बार आरक्षण का लाभ उठा सकता है? सरकारी नौकरी मिल जाने की स्थिति में परिवार पिछड़ा नहीं हो सकता। पिछड़े परिवारों की आय की सीलिंग तय करनी होगी। आरक्षण का इस्तेमाल कैसे किया जाए, इस सवाल पर गंभीर विचार-विमर्श ज़रूरी है।"
 
बीबीसी हिंदी के दिनभर कार्यक्रम में बीबीसी संवाददाता मोहनलाल शर्मा से बात करते हुए मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट ऑफ़ डिफ़ेंस स्टडीज़ एंड एनॉलिसिस में रिसर्च फ़ेलो स्मृति एस पटनायक ने कहा, "अभी बांगलादेश की प्रधामंत्री ने कहा कि छात्रों को रुकना चाहिए, अभी मामला अपील के लिए सुप्रीम कोर्ट में हैं, अगस्त में सुनवाई है। ये सरकार का निर्णय नहीं था।"
ये भी पढ़ें
बाइडन की मुश्किलें बढ़ीं, इन दिग्गजों ने भी किया उम्मीदवारी का विरोध