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Written By BBC Hindi
Last Modified: बुधवार, 17 मई 2023 (07:57 IST)

हरिशंकर तिवारीः बाहुबली जिसने अपराध की दुनिया से आकर छुई राजनीति की बुलंदियां

हरिशंकर तिवारीः बाहुबली जिसने अपराध की दुनिया से आकर छुई राजनीति की बुलंदियां - Harishankar Tiwari: Bahubali came from crime world and touched the heights of politics
उत्तर प्रदेश के बाहुबली नेता पंडित हरिशंकर तिवारी का मंगलवार शाम को निधन हो गया। 1985 में बतौर निर्दलीय उम्मीदवार वे गोरखपुर की चिल्लूपार विधानसभा सीट से पहली बार विधायक बने थे। ये चुनाव उन्होंने जेल में रहते हुए जीता था। इसके बाद तीन बार कांग्रेस की टिकट पर यहां से जीते और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री भी बने।
 
हरिशंकर तिवारी चिल्लूपार विधानसभा सीट से अलग-अलग राजनीतिक दलों से लगातार 22 वर्षों तक (1985 से 2007) तक विधायक रहे। अपने लंबे सियासी सफ़र में वो कल्याण सिंह, मायावती और मुलायम सिंह यादव की सरकारों में मंत्री रहे।
 
यही कारण है कि जब उनके निधन की ख़बर आई तो इन सभी राजनीतिक दलों की तरफ़ से शोक संदेश व्यक्त किया गया।
 
गोरखपुर स्थित उनके घर 'हाता' पर बीजेपी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रमापति राम त्रिपाठी, राज्यसभा सदस्य डॉक्टर राधा मोहन दास अग्रवाल, गोरखपुर की पूर्व मेयर डॉक्टर सत्या पांडेय सहित विभिन्न दलों के कई नेता अपनी शोक संवेदना व्यक्त करने पहुंचे।
 
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी ट्वीट कर अपना दुख प्रकट किया।
 
राजनीति में कैसे हुई हरिशंकर तिवारी की एंट्री?
चिल्लूपार पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले की एक विधानसभा सीट है। 1985 में ये विधानसभा सीट तब अचानक चर्चा में आ गई जब बाहुबली हरिशंकर तिवारी जेल की दीवारों के पीछे रहते हुए यहां से विधायक चुने गए।
 
उत्तर प्रदेश की सियासी समझ रखने वाले जानकारों का मानना है कि हरिशंकर तिवारी की वो जीत भारत की राजनीति में 'अपराध की एंट्री' थी।
 
ये वो वाक़या है जब से अपराध और राजनीति के गठजोड़ की नहीं बल्कि अपराध के राजनीतिकरण की बहस शुरू हुई।
 
हरिशंकर तिवारी ने जब चिल्लूपार विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीत हासिल की, उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह थे और उनका भी राजनीतिक क्षेत्र गोरखपुर ही था।
 
तिवारी ने तब बताया था कि राजनीति में वो पहले से ही थे, लेकिन चुनाव लड़ने के पीछे मुख्य कारण सरकारी उत्पीड़न था।
 
हरिशंकर तिवारी ने बताया था, "कांग्रेस पार्टी में मैं पहले से ही था। पीसीसी का सदस्य था, एआईसीसी का सदस्य था। इंदिरा जी के साथ काम कर चुका था, लेकिन चुनाव कभी नहीं लड़ा था। तत्कालीन राज्य सरकार ने मेरा बहुत उत्पीड़न किया, झूठे मामलों में जेल भेज दिया और उसके बाद ही जनता के प्रेम और दबाव के चलते मुझे चुनाव लड़ना पड़ा।"
 
हरिशंकर तिवारी ने नाम तो नहीं बताया, लेकिन जिस समय की वो घटना बता रहे थे उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह थे। तो ज़ाहिर है कि उनका इशारा उन्हीं की ओर था।
 
वर्चस्व की लड़ाई
गोरखपुर के उस इलाक़े में तब दो गुटों में वर्चस्व की लड़ाई होती थी, लेकिन दोनों गुटों के प्रमुखों के राजनीति में आने के बाद ये लड़ाई राजनीति के कैनवास पर भी लड़ी जाने लगी।
 
दूसरे गुट में उनके चिरविरोधी कहे जाने वाले वीरेंद्र प्रताप शाही थे जो लक्ष्मीपुर विधानसभा सीट से जीत हासिल करने के बाद हरिशंकर तिवारी की तरह ही राजनीति की बुलंदियों को छूते चले गए थे।
 
हालांकि साल 1997 में वीरेंद्र शाही की लखनऊ में दिनदहाड़े हुई हत्या ने इस वर्चस्व की लड़ाई पर तो विराम लगाया, लेकिन उसके बाद ये लड़ाई पूर्वांचल के दूसरे गुटों तक फैलते हुए पूर्वांचल से आगे भी चली गई।
 
वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र ने बीबीसी को बताया था, "दरअसल, वर्चस्व की ये लड़ाई पहले से ही चल रही थी, लेकिन इसे राजनीति का साथ मिलने का सिलसिला यहीं से शुरू होता है। उसके बाद तो पूर्वांचल में माफ़िया और राजनीति का कथित गठजोड़ मुख़्तार अंसारी, ब्रजेश सिंह, रमाकांत यादव, उमाकांत यादव, धनंजय सिंह के साथ-साथ अतीक़ अहमद, अभय सिंह, विजय मिश्र और राजा भैया तक पहुंच गया।"
 
दरअसल, अपराध और राजनीति के इस गठजोड़ के पीछे इन नेताओं को प्रमुख पार्टियों की ओर से मिलने वाला महत्व भी था।
 
सरकारें बदलती रहीं, तिवारी मंत्री बनते रहे
बात यदि हरिशंकर तिवारी की करें तो जेल की सलाखों के पीछे रहकर विधायक बनने के बाद वो न सिर्फ़ लगातार 22 वर्षों तक विधायक रहे, बल्कि साल 1997 से लेकर 2007 तक लगातार मंत्री भी रहे। इस दौरान प्रदेश में सरकारें बदलती रहीं, लेकिन हर पार्टी की सरकार में तिवारी मंत्री बने रहे।
 
शुरुआत कल्याण सिंह के मंत्रिमंडल से हुई और राजनाथ सिंह, मायावती से लेकर मुलायम सिंह यादव मंत्रिमंडल में भी उनका नाम पक्का होता रहा।
 
ये बात अलग है कि राजनीति की शुरुआत उन्होंने कांग्रेस पार्टी से की थी। उसके बाद तो माफ़िया तत्वों को राजनीतिक दलों में जगह देने की होड़-सी मच गई। चाहे बीजेपी हो या फिर सपा और बसपा, किसी ने भी ऐसे तत्वों को पार्टी में जगह और टिकट देने से कोई गुरेज़ नहीं किया।

मुख़्तार अंसारी और उनके परिवार के लोग बीएसपी में भी रहे और समाजवादी पार्टी में भी। उसी तरह आज़मगढ़ के यादव बंधु यानी रमाकांत यादव और उमाकांत यादव भी कभी बीजेपी, कभी सपा तो कभी बीएसपी से विधायक-सांसद बनते रहे।
 
उमाकांत यादव ने तो 2004 के लोकसभा चुनाव में मछलीशहर सीट से बीजेपी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष और बिहार, पश्चिम बंगाल समेत कई राज्यों के राज्यपाल रह चुके केशरीनाथ त्रिपाठी को हराया था। (केशरीनाथ त्रिपाठी का इसी वर्ष जनवरी में निधन हो गया)
 
बताया जाता है कि अस्सी के दशक में हरिशंकर तिवारी का इतना दबदबा था कि गोरखपुर मंडल के जो भी ठेके इत्यादि होते थे वो बिना हरिशंकर तिवारी की इच्छा के किसी को नहीं मिलते थे। लेकिन हरिशंकर तिवारी कहते थे कि अपराध से उनका कोई लेना-देना नहीं था।
 
उनके ख़िलाफ़ दो दर्जन से ज़्यादा मुक़दमे दर्ज थे, लेकिन सज़ा दिलाने लायक़ मज़बूती किसी मुक़दमे में नहीं दिखी। लिहाज़ा उनके ख़िलाफ़ लगे सारे मुक़दमे ख़ारिज हो गए।
 
हर सरकार में मंत्री रहे
गोरखपुर के स्थानीय पत्रकार रशाद लारी के मुताबिक़, गोरखपुर के बड़हलगंज के टांड़ा गांव में छह अगस्त 1934 को जन्मे हरिशंकर तिवारी का दबदबा इस इलाके में कभी कम नहीं हुआ, चाहे राज्य में कल्याण सिंह की सरकार रही हो या मुलायम सिंह यादव की।
 
उन्हें राज्य की विभिन्न सरकारों ने अलग-अलग विभागों में मंत्री पद दिया। उस दौर में प्रत्येक सरकार के मंत्रिमंडल में हरिशंकर तिवारी का नाम शामिल रहता था।
 
दरअसल पूर्वांचल के ब्राह्मणों के बीच उनकी अच्छी पकड़ थी, लिहाज़ा जातीय समीकरण के मुताबिक़ वे हर पार्टी के लिए महत्वपूर्ण बन गए थे। यह माना जाता था कि जिस राजनीतिक दल में वो होंगे, पूर्वांचल में ब्राह्मण वोट बैंक को लुभाने में उसे इससे सहायता मिलेगी।
 
हरिशंकर तिवारी पहली बार कल्याण सिंह सरकार में 1998 में मंत्री बने तो उन्हें विज्ञान और तकनीकी विभाग सौंपा गया।
 
नवंबर 1999 से अक्टूबर 2000 तक रामप्रकाश गुप्त की सरकार में वे स्टांप रजिस्ट्रेशन मंत्री बनाए गए। बाद में वे मायावती और मुलायम सिंह यादव की सरकार में भी 2003 से 2007 के बीच मंत्री रहे।
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