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Written By BBC Hindi
Last Modified: गुरुवार, 2 नवंबर 2023 (07:46 IST)

चीन ने की इजराइल-हमास जंग रुकवाने की पेशकश, क्या है इरादा

चीन ने की इजराइल-हमास जंग रुकवाने की पेशकश, क्या है इरादा - China offered to stop Israel-Hamas war, what is intention?
तेस्सा वोंग, एशिया डिजिटल रिपोर्टर, बीबीसी न्यूज़
इजराइल और हमास के बीच जारी संघर्ष में एक असामान्य सी बात हुई है। चीन शांति समझौता करवाने के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाना चाह रहा है।
 
जंग का दायरा पूरे मध्य पूर्व तक बढ़ने के ख़तरे के बीच, चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने वॉशिंगटन में अमेरिकी अधिकारियों से चर्चा की। अमेरिका ने तय किया है कि वह समाधान निकालने के लिए चीन के साथ मिलकर काम करेगा।
 
पहले मध्य पूर्व के लिए चीन के विशेष राजदूत ज़ाई जुन अरब नेताओं से मिलने गए और फिर वांग यी ने अपने इजराइली और फिलिस्तीनी समकक्षों से बात की। संयुक्त राष्ट्र की बैठकों में भी चीन खुलकर संघर्ष विराम की वकालत कर रहा है।
 
उम्मीद जताई जा रही है कि ईरान के साथ करीबी रिश्ते होने के कारण चीन तनाव को कम करने में मदद कर सकता है क्योंकि गाजा में हमास और लेबनान में हिजबुल्लाह को ईरान से ही मदद मिलती है।
 
अमेरिकी दबाव
फ़ाइनैंशियल टाइम्स की ख़बर के अनुसार, अमेरिकी अधिकारियों ने वांग पर दबाव बनाया है कि वह ईरानियों को नरम रुख़ अपनाने को कहें।
 
चीन, ईरान का सबसे बड़ा कारोबारी सहयोगी है। इसी साल चीन ने ईरान और सऊदी अरब के बीच तनाव घटाने में अहम भूमिका निभाई थी। ईरान का भी कहना है कि वह गाजा में पैदा हुए हालात के समाधान के लिए चीन के साथ संवाद बढ़ाने के लिए तैयार है।
 
अमेरिका के रक्षा विभाग के तहत आने वाले नेशनल वॉर कॉलेज में एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉन मर्फ़ी चीन की विदेश नीति के जानकार हैं। वह कहते हैं कि इस संघर्ष के सभी पक्षों से चीन के रिश्ते तुलनात्मक रूप से संतुलित रहे हैं।
 
मध्य पूर्व की राजनीति
प्रोफ़ेसर डॉन मर्फ़ी कहते हैं, "ख़ासकर फिलिस्तीनियों से चीन के सकारात्मक रिश्ते रहे हैं। दूसरी ओर, अमेरिका के रिश्ते इजराइल के साथ अच्छे हैं। ऐसे में ये दोनों (चीन और अमेरिका) सभी पक्षों को वार्ता के लिए एकसाथ ला सकते हैं।
लेकिन अन्य विश्लेषक मानते हैं कि मध्य पूर्व की राजनीति में चीन एक 'छोटा खिलाड़ी' है।
 
चीन के मध्य पूर्व के साथ रिश्तों के विशेषज्ञ और एटलांटिक काउंसिल में नॉन-रेज़िडेंट सीनियर फ़ेलो जोनाथन फ़ुल्टन कहते हैं, 'इस पूरे मामले में चीन को एक गंभीर पक्ष नहीं माना जा सकता।'
 
इजराइल पर हमास के हमले के बाद पैदा हुए हालात पर चीन की ओर से आई पहली प्रतिक्रिया से इजराइल नाराज़ हो गया था। इजराइल ने 'गहरी निराशा' जताते हुए कहा था कि चीन ने हमास की आलोचना नहीं की और न ही इजराइल के आत्मरक्षा के अधिकार का ज़िक्र किया।
 
'आत्मरक्षा का अधिकार'
सात अक्टूबर को हमास के बंदूकधारियों ने गाजा से इजराइल पर धावा बोल दिया था जिसमें 1400 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई थी और कम से कम 239 लोगों को बंधक बना लिया था। इसके बाद से इजराइल लगातार गाजा पर जवाबी हमले कर रहा है।
 
हमास के तहत काम करने वाले गाजा के स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि इन हमलों में अब तक 8000 से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। अब इजराइली सैनिक और टैंक भी गाजा में दाख़िल हो गए हैं।
 
चीन की पहली प्रतिक्रिया पर उभरी नाराज़गी के बाद वांग ने इजराइल से कहा कि हर देश को आत्मरक्षा का अधिकार है। लेकिन इसके बाद उन्होंने कहीं और कहा कि 'इजराइल जो कुछ कर रहा है, वह आत्मरक्षा के दायरे से बाहर है।'
 
चीन की दुविधा
चीन के लिए इस मामले में संतुलन बिठाना इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि वह लंबे समय से खुलकर फिलिस्तीनियों के पक्ष में बोल रहा है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक माओ के समय से ही उसका ऐसा रुख़ रहा है। जब दुनिया भर में 'नेशनल लिबरेशन आंदोलन' चल रहा था तो माओ ने फिलिस्तीनियों की मदद के लिए हथियार भेजे थे।
 
माओ ने तो इजराइल की तुलना ताइवान से की थी। उन्होंने कहा था कि ये दोनों 'पश्चिमी उपनिवेशवाद के उदाहरण' हैं, क्योंकि इन दोनों को अमेरिका का समर्थन हासिल है।
 
बाद के दशकों में चीन ने इजराइल के साथ रिश्ते सामान्य किए और आर्थिक द्वार भी खोले। आज दोनों देशों के बीच अरबों डॉलर का कारोबार होता है।
 
लेकिन चीन ने स्पष्ट किया है कि वह फिलिस्तीनियों का समर्थन जारी रखेगा। चीनी अधिकारियों और यहां तक कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी इस ताज़ा संघर्ष को लेकर इस बार पर ज़ोर दिया है कि एक 'स्वतंत्र फिलिस्तीनी देश' बनाने की ज़रूरत है।
 
चीन में राष्ट्रवादी ब्लॉगर्स के कारण ऑनलाइन यहूदी विरोधी भावना बढ़ गई है। चीन के सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इजराइल की तुलना नाज़ीवाद से करते हुए उन पर फिलिस्तीनियों के नरसंहार का आरोप लगाया है।
 
बीजिंग में इजराइली दूतावास के एक कर्मचारी के परिजन पर चाकू से हमले के कारण भी तनाव बढ़ा है। ये सब बातें इजराइली सरकार के साथ संवाद बढ़ाने की कोशिश में लगे चीन के पक्ष में नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर भी चीन क्यों इस मामले में आगे आ रहा है?
 
इसका एक कारण तो यह है कि मध्य पूर्व के साथ उसके आर्थिक हित जुड़े हुए हैं। अगर जंग का दायरा बढ़ा तो उसके इन हितों पर भी असर पड़ेगा। चीन अब विदेश से तेल के आयात पर बहुत ज़्यादा निर्भर है।
 
जानकारों का अनुमान है कि चीन की ज़रूरत का आधा तेल खाड़ी से ही आता है। इसके अलावा, चीन की विदेश और आर्थिक नीति के लिए अहम 'बेल्ट एंड रोड अभियान' (बीआरआई) में मध्य पूर्व के कई देश शामिल हैं। लेकिन एक और कारण यह है कि इस संघर्ष ने चीन के सामने अपनी छवि को चमकाने का मौक़ा पेश किया है।
 
डॉक्टर मर्फ़ी कहते हैं कि चीन को लगता है कि फ़िलिस्तीनियों के साथ खड़े होने पर अरब देशों, मुस्लिम बहुल देशों और कुल मिलाकर ग्लोबल साउथ के बड़े हिस्से से क़रीबी बनाने में मदद मिलेगी।
 
यह जंग उस समय छिड़ी है जब चीन अपने आप को अमेरिका से बेहतर नेतृत्व के रूप में दिखाने की कोशिश में लगा है।
 
इस साल की शुरुआत से ही उसने ऐसी दुनिया की बात करना शुरू किया है जो उसके नेतृत्व में चलेगी। साथ ही वह अमेरिका के 'आधिपत्य भरे नेतृत्व' की कमियों को भी उभार रहा है।
 
मर्फ़ी कहते हैं, "चीन ने अमेरिका को इजराइल की मदद के लिए आधिकारिक तौर पर निशाने पर लेने से बचने की कोशिश की है। लेकिन उसी समय चीनी सरकारी मीडिया में राष्ट्रवादी विचारधारा का प्रचार करते हुए मध्य पूर्व में हो रहे घटनाक्रम के लिए इजराइल को मिल रही अमेरिकी मदद को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है।"
 
चीन के इरादों पर सवाल
चीनी सेना के अख़बार पीएलए डेली ने अमेरिका पर 'आग में घी डालने' का आरोप लगाया है। चीन ने यही रवैया अमेरिका द्वारा यूक्रेन का साथ देने को लेकर अपनाया हुआ था।
 
चीन के सरकारी नियंत्रण वाले अंग्रेज़ी अख़बार 'द ग्लोबल टाइम्स' ने ख़ून से सने हाथों वाले अंकल सैम का एक कार्टून छापा है। (अंकल सैम के रूप में अमेरिका को दर्शाया जाता है।)
 
विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि अमेरिका के ख़िलाफ़ अपनी भूमिका को चीन इसलिए उभार रहा है ताकि दुनिया भर में अमेरिका के प्रभाव को घटा सके। लेकिन हमास की आलोचना न करके चीन अपनी स्थिति को भी ख़राब कर रहा है।
 
अरब देशों के साथ चीन का संबंध
अपने दीर्घकालिक लक्ष्यों को हासिल करने में चीन के सामने कई चुनौतिया हैं। एक तो यह है कि वह कूटनीतिक मामलों में दोहरा रुख़ कैसे अपनाए।
 
एक तरफ़ तो वह मुस्लिम बहुल देशों के साथ खड़ा है और फ़लस्तीनी इलाक़ों पर इजराइल के कब्ज़े का विरोध कर रहा है, वहीं दूसरी ओर उस पर ख़ुद मानवाधिकारों के दमन और वीगर मुसलमानों के नरसंहार के आरोप लगते हैं। साथ ही उसके ऊपर तिब्बत को ज़बरदस्ती अपने में मिलाने का भी आरोप है।
 
पर्यवेक्षकों का कहना है कि हो सकता है कि अरब देशों के लिए ये बातें मायने न रखती हों क्योंकि चीन ने उनके साथ मज़बूत रिश्ता बना लिया है।
 
फिर भी बड़ी समस्या यह है कि चीन के इरादों को हल्के में लिया जा सकता है, या फिर यह माना जा सकता है कि वह इजराइल-हमास संघर्ष को अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल कर रहा है।
 
डॉक्टर फ़ुलटन कहते हैं, "चीन को लगता है कि फ़िलिस्तीन के समर्थन से आपको अरब देशों का समर्थन मिल जाएगा और यह एक आसान तरीका है। लेकिन वास्तव में यह मसला बहुत पेचीदा है और अरब देश भी इस मामले में एक पाले में नहीं खड़े हैं।"
 
चीन के विदेश मंत्री वांग कहते हैं कि 'चीन सिर्फ़ मध्य पूर्व में शांति चाहता है और उसके कोई निजी हित नहीं हैं।' लेकिन सबसे बड़ी चुनौती दुनिया को यह मनवाना है कि चीन सच बोल रहा है।
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