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Written By WD

उपनिषदों का दर्शन और रचनाकाल

उपनिषदों का एक संक्षिप्त परिचयात्मक अनुशीलन

उपनिषदों का दर्शन और रचनाकाल -
- डॉ. रामकृष्ण सिंगी

।। ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदज्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।

आध्यात्मिक चिंतन की अमूल्य निधि :
WD
उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिंतन के मूलाधार है, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन स्त्रोत हैं। वे ब्रह्मविद्या हैं। जिज्ञासाओं के ऋषियों द्वारा खोजे हुए उत्तर हैं। वे चिंतनशील ऋषियों की ज्ञानचर्चाओं का सार हैं। वे कवि-हृदय ऋषियों की काव्यमय आध्यात्मिक रचनाएँ हैं, अज्ञात की खोज के प्रयास हैं, वर्णनातीत परमशक्ति को शब्दों में बाँधने की कोशिशें हैं और उस निराकार, निर्विकार, असीम, अपार को अंतर्दृष्टि से समझने और परिभाषित करने की अदम्य आकांक्षा के लेखबद्ध विवरण हैं।

उपनिषदकाल के पहले : वैदिक युग
वैदिक युग सांसारिक आनंद एवं उपभोग का युग था। मानव मन की निश्चिंतता, पवित्रता, भावुकता, भोलेपन व निष्पापता का युग था। जीवन को संपूर्ण अल्हड़पन से जीना ही उस काल के लोगों का प्रेय व श्रेय था।

प्रकृति के विभिन्न मनोहारी स्वरूपों को देखकर उस समय के लोगों के भावुक मनों में जो उद्‍गार स्वयंस्फूर्त आलोकित तरंगों के रूप में उभरे उन मनोभावों को उन्होंने प्रशस्तियों, स्तुतियों, दिव्यगानों व काव्य रचनाओं के रूप में शब्दबद्ध किया और वे वैदिक ऋचाएँ या मंत्र बन गए। उन लोगों के मन सांसारिक आनंद से भरे थे, संपन्नता से संतुष्ट थे, प्राकृतिक दिव्यताओं से भाव-विभोर हो उठते थे। अत: उनके गीतों में यह कामना है कि यह आनंद सदा बना रहे, बढ़ता रहे और कभी समाप्त न हो।

उन्होंने कामना की कि इस आनंद को हम पूर्ण आयु सौ वर्षों तक भोगें और हमारे बाद की पीढ़‍ियाँ भी इसी प्रकार तृप्त रहें। यही नहीं कामना यह भी की गई कि इस जीवन के समाप्त होने पर हम स्वर्ग में जाएँ और इस सुख व आनंद की निरंतरता वहाँ भी बनी रहे। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न अनुष्ठान भी किए गए और देवताओं को प्रसन्न करने के आयोजन करके उनसे ये वरदान भी माँगे गए।

जब प्रकृति करवट लेती थी तो प्राकृतिक विपदाओं का सामना होता था। तब उन विपत्तियों केकाल्पनिक नियंत्रक देवताओं यथा मरुत, अग्नि, रुद्र आदि को तुष्ट व प्रसन्न करने के अनुष्ठान किए जाते थे और उनसे प्रार्थना की जाती थी कि ऐसी विपत्तियों को आने न दें और उनके आने पर प्रजा की रक्षा करें।

कुल मिलाकर वैदिक काल के लोगों का जीवन प्रफुल्लित, आह्लादमय, सुखाकांक्षी, आशावादी और‍ जिजीविषापूर्ण था। उनमें विषाद, पाप या कष्टमय जीवन के विचार की छाया नहीं थी। नरक व उसमें मिलने वाली यातनाओं की कल्पना तक नहीं की गई थी। कर्म को यज्ञ और यज्ञ को ही कर्म माना गया था और उसी के सभी सुखों की प्राप्ति तथा संकटों का निवारण हो जाने की अवधारणा थी।

यह जीवनशैली दीर्घकाल तक चली। पर ऐसा कब तक चलता। एक न एक दिन तो मनुष्य के अनंत जिज्ञासु मस्तिष्क में और वर्तमान से कभी संतुष्ट न होने वाले मन में यह जिज्ञासा, यह प्रश्न उठना ही था कि प्रकृति की इस विशाल रंगभूमि के पीछे सूत्रधार कौन है, इसका सृष्टा/निर्माता कौन है, इसका उद्‍गम कहाँ है, हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं, यह सृष्टि अंतत: कहाँ जाएगी। हमारा क्या होगा? शनै:-शनै: ये प्रश्न अंकुरित हुए। और फिर शुरू हुई इन सबके उत्तर खोजने की ललक तथा जिज्ञासु मन-मस्तिष्क की अनंत खोज यात्रा।

उपनिषदकालीन विचारों का उदय :
ऐसा नहीं है कि आत्मा, पुनर्जन्म और कर्मफलवाद के विषय में वैदिक ऋषियों ने कभी सोचा ही नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि इस जीवन के बारे में उनका कोई ध्यान न था। ऋषियों ने यदा-कदा इस विषय पर विचार किया भी था। इसके बीज वेदों में यत्र-तत्र मिलते हैं, परंतु यह केवल विचार मात्र था। कोई चिंता या भय नहीं।

आत्मा शरीर से भिन्न तत्व है और इस जीवन की समाप्ति के बाद वह परलोक को जाती है इस सिद्धांत का आभास वैदिक ऋचाओं में मिलता अवश्य है परंतु संसार में आत्मा का आवागमन क्यों होता है, इसकी खोज में वैदिक ऋषि प्रवृत्त नहीं हुए। रामधारीसिंह 'दिनकर' के अनुसार 'अपनी समस्त सीमाओं के साथ सांसारिक जीवन वैदिक ऋषियों का प्रेय था।

प्रेय को छोड़कर श्रेय की ओर बढ़ने की आतुरता उपनिषदों के समय जगी, तब मोक्ष के सामने ग्रहस्थ जीवन निस्सार हो गया एवं जब लोग जीवन से आनंद लेने के बजाय उससे पीठ फेरकर संन्यास लेने लगे। हाँ, यह भी हुआ कि वैदिक ऋषि जहाँ यह पूछ कर शांत हो जाते थे कि 'यह सृष्टि किसने बनाई है?' और 'कौन देवता है जिसकी हम उपासना करें'?

वहाँ उपनिषदों के ऋषियों ने सृष्टि बनाने वाले के संबंध में कुछ सिद्धांतों का निश्चय कर दिया और उस 'सत' का भी पता पा लिया जो पूजा और उपासना का वस्तुत: अधिकार है। वैदिक धर्म का पुराना आख्यान वेद और नवीन आख्यान उपनिषद हैं।'

वेदों में यज्ञ-धर्म का प्रतिपादन किया गया और लोगों को यह सीख दी गई कि इस जीवन में सुखी, संपन्न तथा सर्वत्र सफल व विजयी रहने के लिए आवश्यक है कि देवताओं की तुष्टि व प्रसन्नता के लिए यज्ञ किए जाएँ। 'विश्व की उत्पत्ति का स्थान यज्ञ है। सभी कर्मों में श्रेष्ठ कर्म यज्ञ है। यज्ञ के कर्मफल से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।' ये ही सूत्र चारों ओर गुँजित थे।

दूसरे, जब ब्राह्मण ग्रंथों ने यज्ञ को बहुत अधिक महत्व दे दिया और पुरोहितवाद तथा पुरोहितों की मनमानी अत्यधिक बढ़ गई तब इस व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई और विरोध की भावना का सूत्रपात हुआ। लोग सोचने लगे कि 'यज्ञों का वास्तविक अर्थ क्या है?' 'उनके भीतर कौन सा रहस्य है?' 'वे धर्म के किस रूप के प्रतीक हैं?' 'क्या वे हमें जीवन के चरम लक्ष्य तक पहुँचा देंगे?'

इस प्रकार, कर्मकाण्ड पर बहुत अधिक जोर तथा कर्मकाण्डों को ही जीवन की सभी समस्याओं के हल के रूप में प्रतिपादित किए जाने की प्रवृत्ति ने विचारवान लोगों को उनके बारे में पुनर्विचार करने को प्रेरित किया।

प्रकृति के प्रत्येक रूप में एक नियंत्रक देवता की कल्पना करते-करते वैदिक आर्य बहुदेववादी हो गए थे। उनके देवताओं में उल्लेखनीय हैं- इंद्र, वरुण, अग्नि, सविता, सोम, अश्विनीकुमार, मरुत, पूषन, मित्र, पितर, यम आदि। तब एक बौद्धिक व्यग्रता प्रारंभ हुई उस एक परमशक्ति के दर्शन करने या उसके वास्तविक स्वरूप को समझने की कि जो संपूर्ण सृष्टि का रचयिता और इन देवताओं के ऊपर की सत्ता है। इस व्यग्रता ने उपनिषद के चिंतनों का मार्ग प्रशस्त किया।

उपनिदों का स्वरूप :
उपनिषद चिंतनशील एवं कल्पाशील मनीषियों की दार्शनिक काव्य रचनाएँ हैं। जहाँ गद्य लिख गए हैं वे भी पद्यमय गद्य-रचनाओं में ऐसी शब्द-शक्ति, ध्वन्यात्मकता, लव एवं अर्थगर्भिता है कि वे किसी दैवी शक्ति की रचनाओं का आभास देते हैं। यह सचमुच अत्युक्ति नहीं है कि उन्हें 'मंत्र' या 'ऋचा' कहा गया। वास्तव में मंत्र या ऋचा का संबंध वेद से है परंतु उपनिषदों की हमत्ता दर्शाने के लिए इन संज्ञाओं का उपयोग यहाँ भी कतिपय विद्वानों द्वारा किया जाता है।

उपनिषद अपने आसपास के दृश्य संसार के पीछे झाँकने के प्रयत्न हैं। इसके लिए न कोई उपकरण उपलब्ध हैं और न किसी प्रकार की प्रयोग/अनुसंधान सुविधाएँ संभव है। अपनी मनश्चेतना, मानसिक अनुभूति या अंतर्दृष्टि के आधार पर हुए आध्यात्मिक स्फुरण या दिव्य प्रकाश को ही वर्णन का आधार बनाया गया है।

उपनिषद अध्यात्मविद्या के विविध अध्याय हैं जो विभिन्न अंत:प्रेरित ऋषियों द्वारा लिखे गए हैं। इनमें विश्व की परमसत्ता के स्वरूप, उसके अवस्थान, विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों के साथ उसके संबंध, मानवीय आत्मा में उसकी एक किरण की झलक या सूक्ष्म प्रतिबिंब की उपस्थिति आदि को विभिन्न रूपकों और प्रतीकों के रूप में वर्णित किया गया है।

सृष्टि के उद्‍गम एवं उसकी रचना के संबंध में गहन चिंतन तथा स्वयंफूर्त कल्पना से उपजे रूपांकन को विविध बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। अंत में कहा यह गया कि हमारी श्रेष्ठ परिकल्पना के आधार पर जो कुछ हम समझ सके, वह यह है। इसके आगे इस रहस्य को शायद परमात्मा ही जानता हो और 'शायद वह भी नहीं जानता हो।'

संक्षेप में, वेदों में इस संसार में दृश्यमान एवं प्रकट प्राकृतिक शक्तियों के स्वरूप को समझने, उन्हें अपनी कल्पनानुसार विभिन्न देवताओं का जामा पहनाकर उनकी आराधना करने, उन्हें तुष्ट करने तथा उनसे सांसारिक सफलता व संपन्नता एवं सुरक्षा पाने के प्रयत्न किए गए थे। उन तक अपनी श्रद्धा को पहुँचाने का माध्यम यज्ञों को बनाया गया था।

उपनिषदों में उन अनेक प्रयत्नों का विवरण है जो इन प्राकृतिक शक्तियों के पीछे की परमशक्ति या सृष्टि की सर्वोच्च सत्ता से साक्षात्कार करने की मनोकामना के साथ किए गए। मानवीय कल्पना, चिंतन-क्षमता, अंतर्दृष्टि की क्षमता जहाँ तक उस समय के दार्शनिकों, मनीषियों या ऋषियों को पहुँचा सकीं उन्होंने पहुँचने का भरसक प्रयत्न किया। यही उनका तप था।

रचना शैली :
उपनिषदों की रचना शैली गुरु-शिष्य संवाद, विद्वान ऋषियों से चिंतनशील जिज्ञासुओं के प्रश्नोत्तर, विद्वानों की पारस्परिक चर्चाओं या वरिष्ठों के उपदेशों के रूप में हैं। कहीं-कहीं रूपकों या संक्षिप्त आख्यानों द्वारा भी गंभीर विचारों को समझाने की युक्ति अपनाई गई है। उपनिषदों के कथ्य में अनेक विदुषी महिलाओं की भी प्रभावशील भागीदारी है।

उपनिषदों की संख्या :
'संस्कृति के चार अध्याय' में श्रीरामधारी सिंह 'दिनकर' लिखते हैं कि 'मुक्तिक उपनिषद के अनुसार सभी उपनिषदों की संख्या 108 है परंतु पंडितजन इनमें से सबको समान महत्व नहीं देते। ऐतिहासिक दृष्टि से वे ही उपनिषद महत्वपूर्ण माने जाते हैं जिनकी रचना बुद्धदेव के आविर्भाव के पहले हो चुकी थी।

इन 108 उपनिषदों में प्रमुख कौन-कौन से माने जाएँ इस विषय में सामान्य मत यह है कि शंकराचार्य ने जिन उपनिषदों की टीका लिखी वे ही सबसे प्रमुख हैं। उनके नाम हैं- 1. ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छान्दोग्य, 10. वृहदारण्यक, 11. नृसिंह पर्व तापनी।

इनके सिवा शंकराचार्य ने पाँच-छह अन्य उपनिषदों से भी उदाहरण दिए हैं। श्रीरामानुजाचार्य ने सभी उपनिषदों की टीका तो नहीं लिखी किंतु उन्होंने भी प्राय: इन्हीं उपनिषदों का हवाला दिया है।'

उपनिषदों की संख्या में निरंतर वृद्धि हुई है एवं अब यह संख्या 250 तक पहुँच गई है।

उपनिषदों का रचनाकाल :
डॉ. राधाकृष्णन ने अपने ग्रंथ 'भारतीय दर्शन' (भाग-1) में उपनिषदों के रचनाकाल के विषय में यह मत व्यक्त किया है -
'जिन उपनिषदों पर शंकराचार्य ने भाष्य किया है वे ही सबसे प्राचीन तथा अत्यंत प्रामाणिक हैं। उनके निर्माण की कोई ठीक तिथि हम निश्चित नहीं कर सकते। इनमें से जो एकदम प्रारंभ के हैं वे तो निश्चित रूप से बौद्धकाल के पहले के हैं और उनमें से कुछ बुद्ध के पीछे के हैं। यह संभव है कि उनका निर्माण वैदिक सूक्तों की समाप्ति और बौद्धधर्म के आविर्भाव अर्थात ईसा के पूर्व छठी शताब्दी के मध्यवर्ती काल में हुआ हो।

प्रारंभिक उपनिषदों का रचनाकाल 1000 ईस्वी पूर्व से लेकर 300 ईस्वी 3पूर्व तक माना गया है। कुछ परवर्ती उपनिषद्, जिन पर शंकर ने भाष्य किया, बौद्धकाल के पीछे के हैं और उनका रचनाकाल 400 या 300 ई.पू. का है। सबसे पुराने उपनिषद वे हैं जो गद्य में हैं। वे सम्प्रदायवाद से रहित हैं।

ऐतरेय, कौषीतकीं, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, वृहदारण्यक के अलावा केन उपनिषद के कुछ भाग पुराने हैं जबकि केनोपनिषद एवं वृहदराण्यक के कुछ अंश बाद में जोड़े गए प्रतीत होते हैं। प्रक्षिप्त अंशों के अध्ययन में पर्याप्त सावधानी की अपेक्षा है जिससे अर्थ का अनर्थ न हो जाए। सही-गलत जाँचने-परखने की कसौटी है- उपनिषदों में जो वेदानुकूल है वह ग्राह्य है, जो वेद ‍विरुद्ध है वह त्याज्य है।

कठोपनिषद और भी बाद का है। इसमें हमें सांख्य और योगदर्शन के तत्व मिलते हैं। श्वेताश्वतर का निर्माण ऐसे काल में हुआ जबकि बहुत प्रकार के दार्शनिक ग्रंथों के पारिभाषिक शब्द इसमें मिलते हैं और उनके मुख्य सिद्धांतो का समावेश भी इसमें किया गया है।

ऐसा प्रतीत होता है कि इस उपनिषद का आशय वेदान्त, सांख्य और योग इन तीनों दर्शनों का आस्तिकवादपरक समन्वय करना है। प्रारंभिक गद्यात्मक उपनिषदों में अधिकतर विशुद्ध कल्पना पाई जाती है। जबकि परवर्ती उपनिषदों में अधिकांशत: धार्मिक पूजा और भक्ति का समावेश है।'

शंकराचार्य के अनुसार उपनिषत् शब्द का अर्थ ब्रह्मविद्या है परंतु लक्षणा से ब्रह्मविद्या का विवेचन करने वाले ग्रंथों को भी उपनिषद कहते हैं। उपनिषद स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है। जिस प्रकार भगवद्गीता महाभारत का एक भाग है उसी प्रकार उपनिषद् भी वेदों, वेदों की शाखाओं, ब्राह्मण ग्रंथों या आरण्यकों के विशेष भाग ही हैं।

ईशोपनिषद् यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय नहीं है परंतु यजुर्वेद की काण्वशाखा का अंतिम तदनुसार चालीसवाँ अध्याय है। सब उपनिषदों की मूलभूत रचना ईशोपनिषद है। चूँकि यह उपनिषद वेद के अंत में है अतएव सभी उपनिषदें 'वेदान्त' के नाम से प्रसिद्ध हुई। षड्‍दर्शनों का वेदांत दर्शन (उत्तर मीमांसा) उपनिषद से भिन्न है।

उपनिषदों में परमात्मा एवं जीवात्मा की विवेचना की गई है। इनमें जीवात्मा के मोक्ष मार्ग हेतु सार‍गभिर्कत व विवेकसम्मत मार्गदर्शन दिया गया है। परमात्मा और जीवात्मा में न कालकृत दूरी है और न देश-दूरी। दूरी यदि है तो अज्ञान के कारण। अज्ञान का व्यवधान हटा दें तो परमात्मा से साक्षात्कार होगा, मोक्ष मिलेगा।

ईश, कठ, तैत्तिरीय, वृहदारण्यक तथा श्वेताश्वतर यजुर्वेदीय उपनिषद् हैं। केन और छान्दोग्य समावेदीय है। प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य अथर्ववेदीय हैं। ऐतरेय ऋग्वेदीय उपनिषद् है।

पुस्तक : उपनिषद: उपनिषदों का एक संक्षिप्त परिचयात्मक अनुशीलन
लेखक : डॉ. रामकृष्ण सिंगी
प्रकाशक : सुशील प्रकाशन, 1194, भगतसिंह मार्ग, महू (म.प्र.) 453441
फोन : 07324 - 272838

उपनिषद : संक्षिप्त परिचयात्मक अनुशीलन