क्यों कोई नहीं बनना चाहता है वैज्ञानिक?
आजादी के बाद हमारी शिक्षा नीति में कई बदलाव होते रहे हैं। हर सरकार अपने तरीके से शिक्षा नीति को निर्धारित करती है। भारत का शिक्षा तंत्र या शिक्षा से देश को क्या लाभ मिल रहा है यह तो किसी सर्वे से ही तय होगा, परंतु देश के माहौल और लोगों को देखकर लगता है कि कहीं न कहीं हमसे चूक हो रही है जो देश का राष्ट्रीय चरित्र उभरकर नहीं आ रहा है। जिसके कई कारण हो सकते हैं।
बहुत कम लोग है जो साहित्यकार, पत्रकार, अध्यापक या वैज्ञानिक बनना चाहते हैं और संभवत: बहुत ज्यादा लोग हैं जो डॉक्टर, इंजीनियर, नेता या अभिनेता बनना चाहते हैं।
1. धार्मिक स्कूल : हमारे देश के करोड़ों लोग मदरसों में पढ़ते हैं, सरस्वती विद्यालय में पढ़ते हैं और कान्वेंट स्कूल में अधिकतर लोग पढ़ते हैं। हमारी शिक्षा हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई में बंटी हुई है, क्या ये सही है? ये लोग अपने-अपने स्कूल में क्या पढ़ा रहे हैं?
2. राइट या लेफ्ट विंग : कितने स्टूडेंट साइंस लेते हैं और कितने वैज्ञानिक बनते हैं? क्या इसका कोई रिकार्ड है? देखने पर तो यही लगता है कि बड़े होकर अधिकतर बच्चे राइट विंग या लेफ्ट विंग के हो जाते हैं। सड़क पर आंदोलन करते हैं और स्वतंत्रता एवं अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर क्या कुछ नहीं करते हैं यह किसी से छुपा नहीं है। उन्हें देश में नई व्यवस्था कायम करना है परंतु विज्ञान की कोई नई खोज नहीं करना है या मानव जाति की भलाई के लिए उनको कुछ देकर नहीं जाना है। ये ही घातक लोग अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे लोगों पर शासन करते हैं। यह सभी जानते हैं कि अल्बर्ट आइंस्टीन को क्यों जर्मन छोड़कर जाना पड़ा था।
3. क्या बनने के लिए प्रेरित करती है शिक्षा नीति? : हमारी शिक्षा या शिक्षा का माहौल हमें अधिकतर सीख देता है कि बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, आईटी इंजीनियर, खिलाड़ी, डांसर, गायक, कलाकार, नेता, अभिनेता बनाना चाहिए। यह सीख कम ही मिलती है कि वैज्ञानिक बनाना चाहिए, साहित्यकार बनना चाहिए, बिजनेसमेन बनना चाहिए या तुम्हें एक अच्छा इंसान बनना चाहिए। चारों और से बच्चों पर प्रेशर है कुछ बनने का, कुछ करने का नहीं। हम बताते हैं कि बड़े होकर तुम्हें गाड़ी, बंगला और कार खरीदना है। तुम्हारी तनख्वाह बड़ी से बड़ी होना चाहिए। हम प्रलोभन देते हैं कि तुम्हें कितना रुपया कमाना है। हम बच्चों को गणितज्ञ या वैज्ञानिक बनने के लिए प्रेरित नहीं करते हैं।
4. जीवन के गुर नहीं सिखाती शिक्षा नीति?: हमारी शिक्षा नीति, टीचर या परेंट्स बच्चों को दूसरे बच्चों से प्रतिस्पर्धा करना सिखाते हैं। किसी भी प्रकार की प्रतिस्पर्धा से ईर्ष्या का जन्म होता है, ईर्ष्या से शत्रुता का और शत्रुता से हिंसा का जन्म होता है। ऐसी न केवल अधूरी है बल्कि घातक भी है। बच्चों को हम सिखाते हैं जीवन में कुछ पाना। यह नहीं सिखाते हैं कि किस तरह आनंदपूर्वक रहना, किस तरह जीवन के संघर्ष का सामना करना और किस तरह दूसरों की सहायता करना। हम हर समय उन्हें लड़ना सिखा रहे हैं जीना नहीं।
5. क्यों कोई वैज्ञानिक नहीं बनना चाहता : कोई भी व्यक्ति साइंटिस्ट नहीं बनना चाहता वह चाहता है- अमीर बनना, ताकतवर बनना और लोगों पर शासन करना। किसी के भीतर भी यह जानने की जिज्ञासा नहीं है कि आखिर ब्रह्मांड क्या है, मनुष्य क्या है। कैसे भौतिक और रसायन विज्ञान काम करता और किस तरह एक स्पेस शटल उड़कर अंतरिक्ष में चला जाता है। ईमानदारी से दुनिया में जितने भी वैज्ञानिक या दार्शनिक हुए हैं वे आपकी शिक्षा प्रणाली का परिणाम नहीं है। उन्होंने स्कूली शिक्षा से अलग हटकर कुछ जानने का प्रयास किया और वे सफल हुए हैं और उनके कारण ही शिक्षा में भी क्रांति हुई है। दुनिया को बेहतर बनाने में एक साइंटिस्ट का ही योगदान रहा है किसी राजनीतिज्ञ या धार्मिक नेता का नहीं।
सोचो यदि बिजली के आविष्कारक थॉमस एडिसन नहीं होते तो कंप्यूटर के आविष्कारक प्रोफेसर चार्ल्स बैबेज भी नहीं होते ऐसे में न तो दुनिया में उजाला होता और ना ही मनुष्य अंतरिक्ष में पहुंच पाता। आज दुनिया में जो भी तकनीकी क्रांतियां हुई हैं इन दो के कारण हुई है। वैज्ञानिकों के कारण ही आज मनुष्य अपने इतिहास के सबसे बेहतर युग में जी रहा है परंतु यदि कोई यह समझता है कि मार्क्स, लेनीन, माओ, प्रॉफेट या अवतारों के कारण दुनिया बेहतर हुई है तो उसे फिर से सोचना होगा कि क्या कहीं वह भी तो इस दुनिया को फिर से नर्क की ओर धकेलने में शामिल तो नहीं है। दुनिया को खोजकर्ता वैज्ञानिकों की जरूरत है किसी धार्मिक या राजनीतिक नेता की नहीं।
भविष्य में यदि हम ज्यादा से ज्यादा वैज्ञानिक सोच के लोगों को पैदा नहीं करेंगे तो यह तय है कि हम धार्मिक या सांस्कृति युद्ध ही लड़ रहे होंगे और यह काम तो हम पिछले 2 हजार वर्षों से कर ही रहे हैं, क्या परिणाम हुआ इसका जरा सोचें। तो निश्चित ही वर्तमान में शिक्षा में क्रांति की जरूरत है। हमें बच्चों के मन में जहर नहीं अमृत भरना है।