गुरुवार, 19 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. सनातन धर्म
  3. श्री कृष्णा
  4. श्रीकृष्ण के गरीब सखा सुदामाजी की रोचक कहानी

श्रीकृष्ण के गरीब सखा सुदामाजी की रोचक कहानी

Sudama Krishna Milan | श्रीकृष्ण के गरीब सखा सुदामाजी की रोचक कहानी
भगवान श्रीकृष्ण के कई मित्र थे। जैसे 1. मधुमंगल 2. सुबाहु 3. सुबल 4. भद्र 5. सुभद्र 6. मणिभद्र 7. भोज 8. तोककृष्ण 9. वरूथप 10. श्रीदामा 11. सुदामा 12. मधुकंड 13. अर्जुन 14. विशाल 15. रसाल 16. मकरन्‍द 17. सदानन्द 18. चन्द्रहास 19. बकुल 20. शारद 21. बुद्धिप्रकाश आदि। आओ इन्हीं में से एक सुदामा के बारे में जानते हैं खास बातें।
 
 
1. उज्जैन (अवंतिका) में स्थित ऋषि सांदीपनि के आश्रम में बचपन में भगवान श्रीकृष्ण और बलराम पढ़ते थे। वहां उनके कई मित्रों में से एक सुदामा भी थे। सुदामा श्रीकृष्‍ण के खास मित्र थे। वे एक गरीब ब्राह्मण के पुत्र थे। सुदामा और श्रीकृष्ण आश्रम से भिक्षा मांगने नगर में जाते थे। आश्रम में आकर भिक्षा गुरु मां के चरणों में रखने के बाद ही भोजन करते थे। परंतु सुदामा को बहुत भूख लगती थी तो वे चुपके से कई बार रास्ते में ही आधा भोजन चट कर जाते थे। 
 
2. एक बार गुरु मां ने सुदामा को चने देकर कहा कि इसमें से आधे चने श्रीकृष्‍ण को भी दे देना और तुम दोनों जाकर जंगल से लकड़ी बिन लाओ। फिर दोनों जंगल में लकड़ी बिनने चले गए। वहां बारिश होने लगी और तभी दोनों एक शेर को देखर कर वृक्ष पर चढ़ जाते हैं। ऊपर सुदामा और नीचे श्रीकृष्ण।  फिर सुदामा अपने पल्लू से चने निकालकर चने खाने लगता है। चने खाने की आवाज सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं, अरे ये कट-कट की आवाज कैसी आ रही है। कुछ खा रहे हो क्या? सुदामा कहता है नहीं, ये तो सर्दी के मारे मेरे दांत कट-कटा रहे हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं अच्छा बहुत सर्दी लग रही है क्या? सुदामा कहता है हां। यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि मुझे भी बहुत सर्दी लग रही है। सुना है कि कुछ खाने से शरीर में गर्मी आ जाती है तो लाओ वो चने जो गुरुमाता ने हमें दिए थे। दोनों बांटकर खा लेते हैं। 
 
यह सुनकर सुदामा कहता है चने कहां हैं? वो तो पेड़ पर चढ़ते समय ही मेरे पल्लू से नीचे किचड़ में गिर गए थे। यह सुनकर श्रीकृष्ण समझ जाते हैं और कहते हैं ओह! यह तो बहुत बुरा हुआ। यह सुनकर नीचे की डाल पर बैठे भगवान श्रीकृष्ण अपने चमत्कार से हाथों में चने ले जाते हैं और ऊपर चढ़कर सुदामा को देकर कहते हैं कि पेड़ पर फल तो नहीं लेकिन मेरे पास ये चने हैं। सुदाम कहते हैं यह तुम्हारे पास कहां से आए? तब कृष्ण कहते हैं कि वह मुझे भूख कम लगती है ना। जब पिछली बार गुरुमाता ने जो चने दिए थे वह अब तक मेरी अंटी में बंधे हुए थे। ले लो अब जल्दी से खालो। यह सुनकर सुदामा कहता है नहीं नहीं, मैं इसे नहीं ले सकता। तब श्रीकृष्ण पूछते हैं क्यों नहीं ले सकते? सुदामा रोते हुए कहता है कि क्योंकि मैं इसका अधिकारी नहीं हूं और मैं तुम्हारी मित्रता का भी अधिकारी नहीं हूं। मैंने तुम्हें धोखा दिया है कृष्ण। मुझे क्षमा कर दो। कृष्ण कहते हैं अरे! जिसे मित्र कहते हो उससे क्षमा मांगकर उसे लज्जित न करो मित्र।... इसी प्रकार एक बार श्रीकृष्‍ण सुदामा को वचन देते हैं कि मित्र जब भी तुम संकट में खुद को पाए तो मुझे याद करना मैं अपनी मित्रता जरूर निभाऊंगा।
 
3. बलराम और श्रीकृष्ण को आश्रम में भिन्न-भिन्न कार्य करते थे। एक बार श्रीकृष्ण, बलराम और सुदामा भिक्षा मांगने के लिए जाते हैं। एक द्वार पर खड़े होकर तीनों भिक्षाम्देही कहते हैं तो एक महिला अपनी बेटी के साथ भिक्षा लेकर बाहर आती है और कहती हैं ब्रह्मचारियों आज आने में बहुत देर कर दी? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं माता आज सारे आश्रम में सफाई करनी थी। बहुत काम था इसलिए विलंब हो गया। आपको प्रतीक्षा करना पड़ी उसके लिए क्षमा करें। यह सुनकर वह महिला कहती हैं अरे क्षमा कैसी। मैं तो इसलिए प्रतीक्षा कर रही थी कि रोज तुम रूखी सूखी रोटी लेकर जाते हो आज घर में मालपुआ बने थे तो मैंने सोच तुम जल्दी आ जाओगे तो गरम-गरम खाओगे। देखो मैंने कपड़े से ढंककर मालपुआ गरम गरम रखे हैं तुम्हारे लिए।
 
यह देखकर सुदामा का मन ललचा जाता है। वह कहता है मालपुआ, आज मालपुए बने हैं। वह महिला कहती हैं हां आज घर में पूरणमासी की पूजा थी। फिर वह तीनों को मालपुए देकर कहती है अब इसे जल्दी से खाओ। गरम-गरम खाने में आनंद आता है। सुदामा तो खाने ही वाला रहता है कि तभी श्रीकृष्ण कहते हैं नहीं माता, हम यहां नहीं खा सकते। वह महिला पूछती हैं क्यूं? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि आश्रम का यही नियम हैं कि सारी भिक्षा गुरु चरणों में अर्पित कर दी जाए। फिर वह उसमें से जितना दें वही हमें खाना चाहिए। यह सुनकर सुदामा को अच्‍छा नहीं लगता है। यह सुनकर वह महिला गुरु के लिए भी मालपुए का एक पैकेट दे देती हैं। अब उन तीनों के पासे चार पैकेट हो जाते हैं।
 
फिर तीनों वहां से चले जाते हैं। रास्ते में एक नदी के किनारे रुककर बलराम और श्रीकृष्ण हाथ मुंह धोने जाते हैं इसी दौरान सुदामा मालपुए निकालकर चुपचाप खाने लगता है। तभी श्रीकृष्ण उसे मालपुए खाते हुए देख लेते हैं और मुस्कुरा देते हैं। फिर वह चुपचाप उनके पास पहुंचकर कहते हैं तुम समझते हो कि मैंने कुछ नहीं देखा? तभी सुदामा पत्तल को मोड़कर पालपुए ढांक देता है और कहता है नहीं नहीं, मैं तो कुछ भी नहीं खा रहा हूं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं देखो झूठ बोलना पाप है। यह सुनकर सुदामा कहता है और ब्राह्मण को भूखा रखना भी पाप है। यह सुनकर कृष्ण कहते हैं मैं तुम्हें भूखा रख रहा हूं? तब सुदामा कहते हैं और क्या, उसने कितनी ममता से कहा था कि मेरे सामने खालो और तुमने आश्रम के सारे नियम बता दिए।
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं नियम तो है। गुरुदेव को पता चलेगा तो वे क्या कहेंगे? यह सुनकर सुदामा कहता है गुरुदेव को कैसे पता चलेगा? रोज हम तीन रोटी लेकर जाते हैं तो आज भी तीन रोटी लेकर जाएंगे। हां यदि तुमने गुरुदेव को न बता दिया तो। यह सुनकर कृष्ण कहते हैं कि देखो मैं तुम्हारा मित्र हूं और मित्रता का धर्म कहता है कि मित्र की कमजोरी पर परदा डालना चाहिए। यह सुनकर सुदामा कहता है तो तुम नहीं कहोगे? श्रीकृष्ण कहते हैं कदापि नहीं। यह सुनकर सुदामा कहता है तो फिर सारे मालपुए खा लूं? श्रीकृष्ण कहते हैं हां खा लो। फिर सुदामा खा लेता है तो श्रीकृष्ण मालपुए कि एक पत्तल निकालकर सुदामा को देते हैं और कहते हैं ये तुम्हारे हिस्से की भिक्षा हो गई। गुरुमाता को दे देना। यह देखकर सुदामा प्रसन्न होकर कहता है कुछ भी कहो, तुम मित्र बड़े खरे हो।
 
4. कहते हैं कि सुदामा जी शिक्षा और दीक्षा के बाद अपने ग्राम अस्मावतीपुर (वर्तमान पोरबन्दर) में भिक्षा मांगकर अपना जीवनयापन करते थे। सुदामा एक गरीब ब्राह्मण थे। विवाह के बाद वे अपनी पत्नी सुशीला और बच्चों को बताते रहते थे कि मेरे मित्र द्वारिका के राजा श्रीकृष्ण है जो बहुत ही उदार और परोपकारी हैं। यह सुनकर एक दिन उनकी पत्नी ने डरते हुए उनसे कहा कि यदि आपने मित्र साक्षात लक्ष्मीपति हैं और उदार हैं तो आप क्यों नहीं उनके पास जाते हैं। वे निश्‍चित ही आपको प्रचूर धन देंगे जिससे हमारी कष्टमय गृहस्थी में थोड़ा बहुत तो सुख आ जाएगा। सुदामा संकोचवश पहले तो बहुत मना करते रहे लेकिन पत्नी के आग्रह पर एक दिन वे कई दिनों की यात्रा करके द्वारिका पहुंच गए। 
 
5. द्वारिका में द्वारपाल ने उन्हें रोका। मात्र एक ही फटे हुए वस्त्र को लपेट गरीब ब्राह्मण जानकर द्वारपाल ने उसे प्रणाम कर यहां आने का आशय पूछा। जब सुदामा ने द्वारपाल को बताया कि मैं श्रीकृष्ण को मित्र हूं दो द्वारपाल को आश्चर्य हुआ। फिर भी उसने नियमानुसर सुमादाजी को वहीं ठहरने का कहा और खुद महल में गया और श्रीकृष्ण से कहा, हे प्रभु को फटेहाल दीन और दुर्बल ब्राह्मण आपसे मिलना चाहता है जो आपको अपना मित्र बताकर अपना नाम सुदामा बतलाता है। 
 
6. द्वारपाल के मुख से सुदामा नाम सुनकर प्रभु सुध बुध खोकर नंगे पैर ही द्वार की ओर दौड़ पड़े। उन्होंने सुदामा को देखते ही अपने हृदय से लगा लिया और प्रभु की आंखों से आंसू निकल पड़े। वे सुदामा को आदरपूर्वक अपने महल में ले गए। महल में ले जाकर उन्हें सुंदर से आस पर बिठाया और रुक्मिणी संग उनके पैर धोये। कहते हैं कि प्रभु को उनके चरण धोने के जल की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। उनकी दीनता और दुर्बलता देखकर उनकी आंखों से आंसुओं की धार बहने लगी।
 
स्नान, भोजन आदि के बाद सुदामा को पलंग पर बिठाकर श्रीकृष्ण उनकी चरणसेवा करने लगे और गुरुकुल में बिताए दिनों की बातें करने लगे। बातों ही बातों में यह प्रसंग भी आया कि किस तरह दोनों मित्र वन में समिधा लेने गए थे और रास्ते में मूसलधार वर्षा होने लगी तो दोनों मित्रों एक वृक्ष पर चढ़कर बैठ गए। सुदामा के पास एक पोटली में दोनों के खाने के लिए गुरुमाता के दिए कुछ चने थे। किंतु वृक्ष पर सुदामा अकेले ही चने खाने लगे। चने खाने की आवाज सुनकर श्रीकृष्ण ने पूता कि क्या खा रहे हैं सखा? सुदामा ने यह सोचकर झूठ बोल दिया कि कुछ चने कृष्ण को भी देने पड़ेंगे। उन्होंने कहा, कुछ खा नहीं रहा हूं। यह तो ठंड के मारे मेरे दांत कड़कड़ा रहे हैं।
 
7. इस प्रसंग के दौरान ही श्रीकृष्ण ने पूछा, भाभी ने मेरे लिए कुछ तो भेजा होगा? सुदामा संकोचवश एक पोटली छिपा रहे थे। भगवान मन में हंसते हैं कि उस दिन चने छिपाए थे और आज तन्दुल छिपा रहा है। फिर भगवान ने सोचा कि जो मुझे कुछ नहीं देता मैं भी उससे कुछ नहीं देता लेकिन मेरा भक्त है तो अब इससे छीनना ही पड़ेगा। तब उन्होंने तन्दुल की पोटली छीन ली और सुदामा के प्रारब्ध कर्मों को क्षीण करने के हेतु तन्दुल को बेहद चाव से खाया था। फिर सुदामा ने अपने परिवार आदि के बारे में तो बताया लेकिन अपनी दरिद्रा के बारे में कुछ नहीं बताया। अंत में प्रभु ने सुदामा को सुंदर शय्या पर सुलाया। 
 
8. फिर दूसरे दिन भरपेट भोजन कराने के बाद सुदामा को विदाई दी। किंतु विदाई के दौरान उन्हें कुछ भी नहीं दिया। रास्तेभर सुदामा सोचते रहे कि हो सकता है कि उन्हें इसी कारण से धन नहीं दिया गया होगा कि कहीं उनमें अहंकार न आ जाए। यह विचार करते करते सुदाम अपने मन को समझाते हुए जब घर पहुंचे तो देखा, उनकी कुटिया के स्थान पर एक भव्य महल खड़ा है और उनकी पत्नी स्वर्णाभूषणों से लदी हुई तथा सेविकाओं से घिरी हुई हैं। यह दृश्य देखकर सुदामा की आंखों से आंसू निकल आया और वे सदा के लिए श्री कृष्ण की कृपा से अभिभूत होकर उनकी भक्ति में लग गए। जय श्रीकृष्णा।
ये भी पढ़ें
Vaishakh Purnima 2021: वैशाख पूर्णिमा का महत्व, मुहूर्त और मंत्र