निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 1 जुलाई के 60वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 60 ) के पिछले एपिसोड में श्रीकृष्ण और बलराम दोनों मिलकर ही जरासंध की 23 अक्षौहिणी सेना का संहार कर कर देते हैं और फिर जरासंध और बलराम का गदा युद्ध होता है।
बलरामजी जरासंध को गदा से घायल करके उसकी छाती पर अपना पैर रख देते हैं। अक्रूरजी और श्रीकृष्ण ये देखकर प्रसन्न हो जाते हैं।
बलरामजी कहते हैं अब तू हिल भी नहीं सकता। अब देखना इस ग्वाले की गदा का प्रहार। वह जरासंध के सिर पर मारने ही लगते हैं कि श्रीकृष्ण उनकी गदा पकड़कर कहते हैं रुक जाओ दाऊ भैया। श्रीकृष्ण बड़ी मुश्किल से दाऊ भैया को रोकते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं नहीं दाऊ भैया इस समय ये बिचारा निहत्था है। ये बेसहारा है दाऊ भैया और किसी निहत्थे शत्रु पर वार करना आप जैसे वीर को शोभा नहीं देता।...इस बिचारे की सारी सेना मारी गई है। इसके साथी दुम दबाकर भाग गए हैं। भूमि पर पड़ा जरासंध भयभीत होकर यह दृश्य देखता रहता है।
बलरामजी उसे लात मारकर कहते हैं जा छोटे के कहने पर छोड़ देता हूं तुझे। फिर कभी अपनी वीरता की डींग मत हांकना। यह सुनकर जरासंध कहता है देख लूंगा तुझे। तब बलरामजी लात मारकर कहते हैं उठ..उठ। जरासंध के चेहरे पर भय और क्रोध दोनों ही झलकते हैं। वह खड़ा होकर चारों और देखता है तो उसे लाशों के ढेर नजर आते हैं और वह खुद को अकेला पाता है।
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि एक हारे हुए शत्रु पर दया करना आप जैसे परमवीर को ही शोभा देता है। फिर श्रीकृष्ण मुस्काराते हुए जरासंध की ओर देखकर कहते हैं महाराज जरासंध! जाइये अपनी राजधानी को लौट जाइये। परंतु आपका सारथी तो रथ छोड़कर भाग गया है। इसलिए आपको अब मगध तक पैदल ही जाना पड़ेगा। यह कहकर श्रीकृष्ण और बलराम व्यंगात्मक तरीके से हंसते हैं।
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि महाराज जरासंध का रथ बड़ा सुंदर है क्यों ना इसे मथुरा ले चलें। नगर के बालक इस पर सवारी करेंगे तो बड़े प्रसन्न होंगे। यह सुनकर जरासंध खुद को अपमानित महसूस करता है। अक्रूरजी कहते हैं जो आज्ञा महाराज। फिर अक्रूरजी जरासंध का रथ लेकर चले जाते हैं। यह देखकर जरासंध लज्जित हो जाता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं महाराज जरासंध आपको तो भूख भी लग रही होगी। परंतु चिंता करने की कोई बात नहीं। हमारे राज्य के लोग बड़े दयालु हैं जिस गांव में जाकर भीख मांगोगे वहीं मिल जाएगी। यह कहकर श्रीकृष्ण हंसने लगते हैं।
फिर जरासंध अकेला ही वहां से चला जाता है। लाशों के ढेर के बीच वह लड़खड़ाता हुए चलता जाता है निराशा, हताशा और अपमान के भाव लिए। फिर जरासंध अकेला ही युद्ध भूमि से चला जाता है। लाशों के ढेर के बीच वह लड़खड़ाता हुए चलता जाता है निराशा, हताशा और अपमान के भाव लिए।
उधर, दूर युद्ध शिविर में रात्रि में जरासंध पहुंचता है तो मद्र नरेश शल्य, बाणासुर और अन्य राजा हताश और निराशा के भाव में मुंह लटाए बैठे रहते हैं। जरासंध एक-एक को देखता है तो किसी की भी हिम्मत नहीं होती है उससे आंख मिलाने की। वह भी घायल अवस्था में चुपचाप एक पत्थर पर बैठ जाता है। तब एक राजा कहता है मित्र इतिहास साक्षी है कि बड़े बड़े राजाओं और वीरों को भी पराजय का मुंह देखना पड़ा है। इसलिए युद्ध में हारना बड़ी बात नहीं है किंतु हिम्मत हारना बहुत बड़ी बात है। एक बार युद्ध में हारने के बाद दोबारा जीत हासिल की जा सकती है, लेकिन हिम्मत हारने के बाद मनुष्य कहीं का नहीं रहता है।
फिर सभी राजा जरासंध का हौसला बढ़ाते हैं और शल्य कहता है कि यह युद्ध कहां था, ये तो माया का एक भ्रम जाल था। ये कृष्ण कोई मायावी विद्या जानता है। इसलिए हमें भी अपने साथ कुछ मायावी शक्तियां रखनी चाहिए जो उसकी माया को निष्फल कर दें। यह सुनकर जरासंध सहमति में गर्दन हिलाता है। शल्य आगे कहता है कि और उसका प्रबंध भी हो सकता है। तब एक राजा रुक्मी कहता है कि हम सब आपके साथ है और एक वर्ष के भीतर अब सभी अपनी सेना एकत्रित करके उन यदुवंशियों से बदला अवश्य लेंगे।
जरासंध यह सुनकर कहता है अपमान, घोर अपमान। अपमानित हुआ हूं मैं रुक्मी अपमानित। अपमान की चोट को सहना बहुत कठिन है। हार को सहना आसान है किंतु अपमान को सहना आसान नहीं है। आज वो युद्ध में यदि प्राण ले लेते तो मुझे कोई चिंता नहीं थी। मुझे वीरगति प्राप्त होती। परंतु अपमान की ठोकर मारकर जो उन्होंने मुझे छोड़ दिया है उसकी ज्वाला में मेरी अंतर आत्मा जल रही है। फिर जरासंध तलवार को अग्नि में लगाकर कहता है कि मैं इस अग्नि की शपथ लेता हूं कि मैं अपने अपमान की ज्वाला को तब तक शांत नहीं होने दूंगा जब तक की उस कृष्ण सहित समस्त यदुवंशियों का नाश न कर दूं।
इधर, मथुरा में विजयी उत्सव प्रारंभ हो जाता है। रथ पर सवार भगवान और श्रीकृष्ण का भव्य स्वागत होता है। अक्रूरजी सारथी रहते हैं। नृत्य, गान और दीप से समुचा मथुरा जगमग हो जाता है। सभी उनकी आरती उतारकर उनका स्वागत करते हैं।
उधर, इस युद्ध में मथुरा के विजयी का समाचार हस्तिनापुर पहुंच जाता है। भीष्म पितामह कहते हैं धृतराष्ट्र से की मथुरा की इस विजय ने यह सिद्ध कर दिया है कि विजय सदा धर्म की होती है और धर्म का आधार है सत्य। विदुर सहमति में गर्दन हिलाते हैं। फिर भीष्म कहते हैं कि मैं इसीलिए सदा कहता आया हूं कि सत्य और धर्म का मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिए। एक भूल जो हमने की है कि इस युद्ध में मथुरावासियों का साथ न देकर उनके शत्रुओं का साथ दिया। उसका परिणाम ये है कि आज हम मथुरा को मुंह नहीं दिखा सकते।
इस पर धृतराष्ट्र कहते हैं कि हमने तो कोई जरासंध का साथ नहीं दिया ये आप किस तरह की बातें कर रहे हैं। तब भीष्म कहते हैं कि आपकी नियत पर। आप अपने भीतर झांकर देखें कि आपने क्यों मथुरा का साथ नहीं दिया। इसलिए कि आप चाहते थे कि पांडवों का साथ देने वाला कोई न हो और आप अपने पुत्र को युवराज घोषित कर दें। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं कि हमने तो अभी तक यह नहीं सोचा कि किसे युवराज घोषित करना है। तब भीष्म कहते हैं कि राजकुमारों की शिक्षा पूरी हो गई है फिर आप अब युधिष्ठिर को युवराज क्यों नहीं घोषित करते हैं? तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि हम अभी से उन बालकों के मन में ईर्ष्या के बीज नहीं बोना चाहते हैं।
उधर, बलराम के साथ बैठे बैठे श्रीकृष्ण जोर से हंसते हैं तो बलराम पूछते हैं किस बात पर हंस रहे हो? इस पर कृष्ण कहते हैं कि महाराज धृतराष्ट्र की चतुराई पर कि किस तरह वह युधिष्ठिर को युवराज घोषित करने की बात को हर बार टाल जाते हैं। शायद इस आशा से की बाद में कोई ऐसा रास्ता निकल आए जिससे उनका पुत्र दुर्योधन राजा बन जाए। तब बलराम पूछता है कि ऐसा भी कोई रास्ता है उनके पास?
यह सुनकर श्रीकृष्ण उठकर थोड़ा गंभीर होकर कहते हैं रास्ता तो एक ही है विनाश का रास्ता। कुरुवंश के विनाश का रास्ता। यह सुनकर बलराम भी खड़े हो जाता हैं और कहते हैं कुरवंश का विनाश? कब और कैसे? तब श्रीकृष्ण कहते हैं अभी उसका समय तनिक दूर है दाऊ भैया अभी से उसकी चिंता मत करो। फिर बलराम कहते हैं तो क्या जरासंध की चिंता करूं? कृष्ण कहते हैं नहीं दाऊ भैया उसकी भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि अभी जरासंध भी एक बरस तक लौट कर नहीं आने वाला। इसलिए भाग्य के चक्र को देखते आजो और मोज करो। यह सुनकर बलराम हंस देते हैं। जय श्रीकृष्ण।