निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 28 जून के 57वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 57 ) के पिछले एपिसोड में अक्रूरजी विदुर, भीष्म से मिलकर श्रीकृष्ण का संदेश सुनाते हैं दोनों ही उनके प्रति अपनी श्रद्धा को प्रकट करते हैं इसके बाद अक्रूरजी माता कुंती से मिलने जाते हैं फिर अंत में धृतराष्ट्र से मिलते हैं तो धृराष्ट्र मथुरा की सहायता करने से इनकार कर देते हैं।
महाराज जाने से पहले मैं आपको वो संदेश सुनाता चाहता हूं जो श्रीकृष्ण ने मुझे दिया है। धृतराष्ट्र कहते हैं मेरे अहोभाग्य। तब अक्रूरजी श्रीकृष्ण का संदेश सुनाते हैं श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे कुरुनंदन आप अपने स्वजनों के प्रति समानता का व्यवहार कीजिये और अपनी प्रजा का पालन करें। इसी में आपका कल्याण है महाराज। लेकिन धृतराष्ट्र जाते जाते अक्रूरजी से कहते हैं कि जो कुछ हो रहा है उन्हीं कि इच्छा से हो रहा है तो फिर वे मनुष्य पर दोष क्यों लगाते हैं? अक्रूरजी श्रीकृष्ण का संदेश सुनाकर चले जाते हैं।
अक्रूरजी आकर श्रीकृष्ण को सभी तरह के समाचार सुनाते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं देखिये अक्रूरजी मनुष्य का अहंकार कितना प्रबल होता है कि यदि स्वयं भगवान भी उसे उपदेश दें तो उस पर कोई असर नहीं होता है। फिर श्रीकृष्ण विदुर और कुंती के बारे में जानते हैं। अक्रूरजी कहते हैं विदुर तो आपके परम भक्त हैं। वे आपसे मिलने के लिए बड़े उतावले हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं हम उनसे भी अधिक उतावले हैं अक्रूरजी अपने धर्मराज के दर्शन के लिए। अक्रूरजी चौंक कर पूछते हैं धर्मराज? कृष्ण कहते हैं हां वे धर्मराज के ही अवतार हैं। जिन्हें महर्षि मांडव के श्राप के कारण इस धरती पर मनुष्य योनी धारण करना पड़ी है। फिर श्रीकृष्ण महर्षि माण्डव्य ऋषि की कथा सुनाते हैं और बताते हैं कि किस तरह श्राप लगा।
कथा सुनाने के बाद फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तो अब आप यह सोचिए कि हस्तिनापुर ने सहायता से इनकार कर दिया है तो अब मथुरा की रक्षा का क्या प्रबंध करेंगे? यह सुनकर अक्रूरजी कहते हैं भगवन! आपके होते हुए मथुरा की रक्षा करने वाला मैं कौन होता हूं? सो इसकी मुझे कोई चिंता नहीं। हम तो केवल आपकी आज्ञा का पालन करेंगे।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं अच्छी बात है तो ये बताइये कि जरासंध की सेना कहां तक आ पहुंची है? तब अक्रूरजी बताते हैं कि उसकी सेना मथुरा के निकट आ चुकी है।
आज रात उसका पड़ाव मथुरा से करीब 30 कोस की दूरी पर यमुना के किनारे होगा। वहां रुककर वे और उसके सहयोगी राजा मथुरा पर आक्रमण की योजना बनाएंगे। मेरे गुप्तचर वहां मौजूद हैं और कल तक उसकी योजना का पूरा समाचार मिल जाएगा।
उधर, जरासंध की सेना के पड़वा को बताया जाता है। शिविर में सेनापति वर्धक जरासंध को बताता है कि हस्तिनापुर की सेना मथुरा नरेश की सहायता के लिए नहीं आ रही है। महाराज धृतराष्ट्र का कहना है कि मगध नरेश जरासंध ने हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा। इसलिए हम मगध सम्राट से बिना कारण शत्रुता मोल नहीं लेना चाहते हैं। यह सुनकर जरासंध और उसके सहयोगी राजा प्रसन्न हो जाते हैं।
एक सहयोगी राजा शल्य कहता है कि मथुरा की सेना एक दिन के लिए भी अब हमारा समना नहीं कर सकती। इसका अर्थ है कि मथुरा आपके हाथ में आ चुकी है। तत्पश्चात दो ही रास्ते हैं कि मथुरा को तहस-नहस करके उसका विनाश कर दिया जाए और दूसरा यह कि मथुरा जैसे सुंदर, समृद्ध और बसा-बसाया नगर यदि आपके राज्य के साथ मिला लिया जाए तो आपके साम्राज्य की शोभा और बढ़ेंगी। और, जहां तक कंस की हत्या के प्रतिशोध का प्रश्न है तो उसके लिए तो उन दो ग्वालों कृष्ण और बलराम को ही शूली पर चढ़ा देना पर्याप्त होगा। क्योंकि वास्तविक हत्यारे तो वे ही हैं उसमें प्रजा का क्या दोष?
यह सुनकर जरासंध कहता है कि उनका दोष है महाराज शल्य। प्रजा का दोष है क्योंकि उन्होंने उस हत्यारे कृष्ण की जय-जयकार के नारे लगाए थे। इस पर शल्य कहते हैं कि प्रजा तो हर जीतने वाले की जय-जयकार करती है। कल जब आप जीतेंगे तो वही प्रजा आपकी भी जय-जयकार करेगी। यही तो प्रजा का स्वभाव है। इसीलिए राजनीति कहती है कि साधारण प्रजा की सामूहिक हत्या से कोई लाभ नहीं होता। प्रजा को दंड देने के और भी तरीके हैं। जैसे उन पर इतना कर लगा दो की वे जीवनभर राजकोष में धन भरते रहें। बस जब तक जिएंगे आपका दास बनकर जिएंगे और जब थक जाएंगे तो स्वयं ही मर जाएंगे।
सभी राजा शल्य की बात से सहमत रहते हैं। तब शिशुपाल कहता है कि अक्रूर, शूरसेन और उग्रसेन का क्या किया जाएगा? तब एक राजा कहता है कि उन्हें जंजीरों से बांधकर घसिटकर राजगिर भेज दिया जाएगा। जरासंध कहता है कि हमें आपकी योजना अतिसुंदर लगी। फिर जरासंध सेनापति वर्धक से कहता है कि तुम हमारा लेख लेकर मथुरा जाओ और लिखो कि तुम लोगों ने महाराजा कंस की हत्या करके जो दुष्कर्म किया है उसका एक ही दंड हो सकता है कि मथुरा में रहने वाले एक-एक प्राणी को शूली पर चढ़ा दिया जाए और सारी मथुरा नगरी को आग लगा दी जाए।
यह लेख अक्रूरजी पढ़कर महाराज के समक्ष सुनाते हैं...ताकि मथुरा नगरी और उसके निवासियों का नाम इतिहास के पन्नों से सदा के लिए मिट जाए और ये कार्य हम केवल एक ही दिन में सम्पन्न कर सकते हैं क्योंकि इस समय हमारे पास 23 अक्षौहिणी सेना है जिसके डर से हस्तिनापुर के कौरवों ने भी आपकी सहायता से इनकार कर दिया है। आपकी इस दीन और करुणाजनक अवस्था को देखकर मथुरावासियों पर दया आ रही है जिनकी रक्षा आज उनका राजा नहीं कर सकता। इसलिए हम उन प्रजाजनों को इस शर्त पर क्षमा कर देंगे कि महाराज कंस की हत्या करने वाले कृष्ण और बलराम को हमारे हवाले कर दें। इन दो को छोड़कर जो भी शेष हमारी अधिनता स्वीकार करेगा हम उसे प्राणदान देने का वचन देते हैं और इस चेतावनी के साथ जो भी हमारे विरुद्ध सिर उठाएगा उसका सिर कुचल दिया जाएगा। हमें आशा है कि आप बुद्धिमानी से काम लेंगे और हमारी आज्ञा का पालन करेंगे। यह आपकी प्राण रक्षा का अंतिम अवसर है। यदि कल तक हमारी आज्ञा का पालन नहीं हुआ तो हमारी सेना मथुरा पर धावा बोल देगी।
यह लेख पढ़कर अक्रूरजी महाराज शूरसेन को लेखपत्र सौंप देते हैं। महाराज शूरसेन यह लेख हाथ में लेकर वसुदेव, बलराम और श्रीकृष्ण सहित सभी को देखते हैं और फिर खड़े होते हैं तो सभी दरबारी भी खड़े हो जाते हैं। फिर वे अपने सिंहासन से उतरकर श्रीकृष्ण के पास जाते हैं और पुन: पलटकर सिंहसन पर बैठ जाते हैं। उनके बैठने के साथ ही सभी बैठ जाते हैं। फिर वह पूछते हैं इस विषय में हम आप सबका मत जानना चाहते हैं। जय श्रीकृष्णा।