Shri Krishna : महर्षि माण्डव्य को जब शूली पर चढ़ाया गया
अक्रूरजी जब हस्तिनापुर में विदुर से मिलकर आते हैं तो वे श्रीकृष्ण से कहते हैं कि महात्मा विदुर आपके परम भक्त हैं और वे आपसे मिलने के लिए उतावले हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं भी धर्मराज से मिलने के लिए उतावला हूं। यह सुनकर अक्रूरजी पूछते हैं धर्मराज? तब श्रीकृष्ण कहते हैं हां धर्मराज जिन्हें माण्डव्य ऋषि के श्राप के चलते इस धरती पर मनुष्य रूप में जन्म लेना पड़ा। आओ जानते हैं। माण्डव्य ऋषि की कथा।
माण्डव्य ऋषि एक महान तपस्वी ऋषि थे जो खांडव वन में अपने आश्रम की एक कुटिया में रहते थे। एक दिन कुछ लूटेरे दौड़ते हुए आए और उन ऋषि से कहने लगे कि कुछ लूटेरे हमारी पीछे लगे हैं जो हमे जान से मारकर हमारा सारी धन लुटना चाहते हैं हम व्यापारी है। आप हमारी रक्षा करें हम आपकी शरण में आए हैं। आप यह धन अपनी कुटिया में छुपा लीजिये और हमें भागने का रास्ता बता दीजिये।
माण्डव्य ऋषि ऋषि उन्हें व्यापारी समझकर उनकी सहायता करते हैं और कहते हैं कि ये धन उस कुटिया में छुपा दो और तुम वहां पीछे से भाग जाओ। ले लुटरे धन छुपाकर भाग जाते हैं तभी वहां पर राजा के सिपाही आ जाते हैं और वे ऋषि को लुटेरों की सहायता के अपराध में पकड़ लेते हैं। माण्डव्य ऋषि उनसे कहते हैं कि वे तो कह रहे थे कि हम व्यापरी हैं और कुछ लूटेरे हमारी पीछे पड़े हैं। यह सुनकर राजा के सैनिक कहते हैं ढोंगी साधु तू भी लुटेरों के साथ मिला हुआ है। अब तो इसका फैसला राजा ही करेंगे।
माण्डव्य ऋषि को पकड़कर राजा के सामने खड़ा कर दिया जाता है। राजा कहता है कि साधु के वेष में घोर अपराध क्षमा योग्य नहीं है अत: इस ढोगी को शूली पर चढ़ा दो। माण्डव्य ऋषि राजा को समझाने के प्रयास करते हैं लेकिन राजा नहीं समझता है।
राजा के सैनिक माण्डव्य ऋषि शूली पर चढ़ा देते हैं लेकिन वे अपने तपोबल से शूली पर चढ़े रहते हैं और शूली उनका कुछ नहीं कर पाती है। यह चमत्कार देखकर सैनिक राजा के पास जाते हैं और बताते हैं कि यह तो तपस्वी माण्डव्य ऋषि हैं। यह सुनकर राजा को अपने अपराध का बोध होता है और वह क्षमा मांगने के लिए मुनि के पास आते हैं और उनसे शूली पर से उतरने का निवेदन करते हैं। तब माण्डव्य ऋषि कहते हैं राजा अब इसका निर्णय तो धर्मराज के समक्ष ही होगा। अब मैं यहां से सीधा उन्हीं के पास जा रहा हूं।
धर्मराज के पास पहुंचकर वे धर्मराज से पूछते हैं कि मैंने जानते हुए अपने जीवन में कोई पाप नहीं किया परंतु अनजाने में मुझसे ऐसा कौनसा पाप हुआ जिसका इतना भीषण फल मुझे भोगना पड़ा? तब धर्मराज कहते हैं कि ये तपोमूर्ति बाल्यपन में आप पतंगों के पूच्छभाग में सिंगे घुसेड़ दिया करते थे उसी का यह फल आपको प्राप्त हुआ।
तब माण्डव्य ऋषि कहते हैं कि धर्मशास्त्र के अनुसार जन्म से लेकर बारह वर्ष की आयु तक बालक जो कुछ करे उसे अधर्म नहीं माना जाता। क्योंकि उस समय तक वह अबोध रहता है। सो तुमने बाल्यपन में की गई मेरी मूर्खता को पाप की संज्ञा देकर मेरे साथ अन्याय किया है। दूसरी बात यह है कि तुम ये भूल गए कि न्याय के आसन पर बैठा व्यक्ति अपराध की मात्र के अनुसार ही दंड देता है। उस मात्रा से अधिक दंड देने से अन्याय करने का पाप लगता है। और, जो स्वयं न्यायमूर्ति होकर दूसरों पर अन्याय करें तो वह भीषण अपराध कहा जाता है। अत: हे! धर्मराज इस पाप का दंड भोगने के लिए तुम मनुष्य योनी में जन्म लेकर एक शूद्र माता का गर्भ धारण करके मृत्यु लोक में जन्म लोगे जहां तुम न्याय और अन्याय की गुत्थियां सुलझाते-सुलझाते थक जाओगे। यही तुम्हारा दंड है।
माण्डव्य ऋषि को अणीमाण्डव्य भी कहते थे। वे अपने आश्रम के दरवाजे पर वृक्ष के नीचे हाथ ऊपर उठाकर तपस्या करते थे।