विश्व राजनीति में दक्षिणपंथी रुझान
यूरोप के 28 देशों से बने यूरोपीय संघ की संसद के चुनाव पिछले दिनों हुए। आश्चर्य की बात यह रही है कि जो दक्षिणपंथी लहर सम्पूर्ण एशिया में चल रही थी वह यूरोप में भी पहुंच गई। यूरोप जिसे मध्यमार्गी समझा जाता है उस पर दक्षिणपंथियों के प्रभाव ने विश्व को अचंभित कर दिया है। इस जीत का विश्लेषण करने से पहले थोड़ा विभिन्न विचारधाराओं के बारे में जानते हैं। विश्व में राजनीतिक दलों को उनके चरित्र के आधार पर दो भागों में वर्गीकृत किया गया है। वामपंथी (लेफ्ट विंग) और दक्षिणपंथी (राइट विंग)। ये दोनों विचारधाराएं एक लंबी रेखा के दो परस्पर विरोधी सिरे हैं। वामपंथी विचारधारा वर्गों पर आधारित विचारधारा है जिसमे श्रमिकों और कृषकों के इर्द-गिर्द शासन व्यवस्था की संरचना की गई है। राज परिवारों और पूंजीवादी व्यवस्थाओं के शोषण एवं अत्याचारों के विरुद्ध यह एक प्रतिक्रियात्मक विचारधारा है। धुर वामपंथी विचारधारा में वामपंथ के आड़े आ रहे प्रत्येक व्यक्ति का वध करना मान्य है। बीसवीं सदी में माओ त्से तुंग ने चीन में पूरी ताकत से इस विचारधारा पर एक क्रूर शासन स्थापित किया था और करोड़ों लोगों को मौत के घाट उतारा। रूस में लेनिन और बाद में जोसेफ स्टालिन ने वामपंथ के नाम पर भीषण नरसंहार किया। दूसरी ओर दक्षिणपंथी विचारधारा जो प्रजातियों (रेस), कट्टरवाद और रूढ़िवाद पर आधारित है। इस विचारधारा का सबसे चरम उदाहरण हिटलर का था जिसने नाज़ी व्यवस्था की स्थापना की और अपनी रेस (प्रजाति) को उत्तम समझकर अन्य प्रजाति के करोड़ों लोगों को मौत के घाट उतारा। बीसवीं सदी में इन कट्टर पंथियों का दौर था किंतु धीरे-धीरे मानव की समझ के विकास और शिक्षा के प्रसार की साथ कट्टर सोच में परिवर्तन आया। वामपंथ कुछ नरम पड़ा और समाजवाद का जन्म हुआ, दक्षिणपंथी नरम होकर मध्य-दक्षिणपंथी चेहरे के रूप में आये। वामपंथ और दक्षिणपंथ अब दो विरोधी छोर न रहकर मध्य मार्ग की ओर बढ़ते दिखे। क्रूरता और बर्बरता बीसवीं सदी का इतिहास हो गई। यद्यपि रूस और चीन में अभी भी वाम पंथियों की क्रूरता के किस्से यदा- कदा सुनने को मिलते हैं तथापि मानव समाज मध्य-वामपंथ से मध्य-दक्षिणपंथ के बीच में अपना वजूद ढूंढने लगा है। भारत में कांग्रेस मध्यमार्गी एवं भारतीय जनता पार्टी को मध्य-दक्षिणपंथी माना जाता है। इंग्लैंड के दो प्रमुख दलों में लेबर पार्टी को वामपंथी और कन्सर्वेटिव पार्टी को दक्षिणपंथी माना जाता है। उसी तरह यूरोप के अन्य देशों में भी इन्हीं दोनों विचारधारा वाले दलों में राजनैतिक प्रतिद्वन्द्विता होती है। किंतु यूरोप के इन चुनावों में तीसरी शक्ति का पुनर्जन्म हुआ। कट्टर दक्षिणपंथी जो लगभग लुप्त हो चुके थे फिर राजनीतिक परिदृश्य में उभरते हुए दिखाई दिए। ये वे राष्ट्रवादी हैं जो यूरोप महाद्वीप से पहले अपने राष्ट्र को प्राथमिकता देना चाहते हैं और यूरोप के एकीकरण में गरीब राष्ट्रों का बोझ अपने सिर पर नहीं लेना चाहते। सबसे बड़ा झटका फ्रांस ने दिया जब फ्रांस के कट्टरपंथी राष्ट्रवादियों ने यूरोप एकीकरण के समर्थक राजनेताओं को धता बताते हुए यूरोपीय संसद के चुनाव जीत लिए। उसी तरह इंग्लैंड, ऑस्ट्रिया, हंगरी इत्यादि देशों से भी कट्टर दक्षिणपंथी विजयी हुए। ग्रीस में तो हद हो गयी जब नव-नाज़ी दल ने दस प्रतिशत मत प्राप्त करने में सफलता पाई। इस बार की यूरोप की संसद में सबसे अधिक कट्टरपंथी सांसद पहुंचे हैं, यद्यपि ये बहुमत से बहुत दूर हैं परन्तु यूरोप के नेतृत्व को झटका देने तथा संयुक्त यूरोप की नीतियों पर अपना प्रभाव डालने के लिए उनकी संख्या पर्याप्त है। कट्टरवाद एक प्रतिक्रियात्मक परिणाम है जो असंतोष एवं शोषण की आग में जन्म लेता है। आश्चर्य तो यह है कि इस बार कट्टरवाद को सींचा मध्यम वर्ग ने जो विश्व में इस समय बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, व्यभिचार और सरकारों के तुष्टिकरण की नीतियों से शोषित एवं ठगा हुआ महसूस करने लगा है। समाजवाद किसी के सिर पर पैर रखकर नहीं लाया जा सकता और न ही किसी अन्य वर्ग की बुनियाद हिलाकर। समानता के नाम पर पड़ोसी गरीब मुल्कों से क़ानूनी या गैरकानूनी तरीके से घुस आये लोगों का सरकार द्वारा पोषण मध्यमवर्ग को रास नहीं आया। शरणार्थी हों या घुसपैठिये, अप्रत्यक्ष रूप से करों के माध्यम से देश की जनता पर बोझ बने हुए हैं। हम सब जानते हैं कि मध्यमवर्ग, एक गरिमापूर्ण व मर्यादित जीवन की अभिलाषा में बड़े संघर्षों के बाद अपनी एक छोटी सी दुनिया बसाता है। किन्तु जब समाजवाद या गरीबों को ऊपर उठाने के नाम पर शासन और अभिजात्य वर्ग ने मध्यम वर्ग से उसका निवाला छीनने की कोशिश की तो मध्यमवर्ग ने मतों के माध्यम से अहिंसक क्रांति कर दी फिर क्यों न उसे कट्टरपंथियों का ही साथ देना पड़ा। जब विचारधाराओं का समागम बलपूर्वक करने की कोशिश की जाती है या फिर किसी विचारधारा को इच्छा के विरुद्ध थोपा जाता है, तो फिर वह विचारधारा कितनी ही आदर्श ही क्यों न हो, प्रतिक्रिया स्वरूप जनमानस पुनः कट्टरपंथ की ओर रुख कर लेता है। ऐसा ही कुछ पूरे विश्व में हो रहा है। बल का प्रयोग उतना ही उचित है जितना सामने वाले में सोखने या अन्तर्लीन करने की क्षमता हो अन्यथा विद्रोह तो होना ही है। ऊपर वर्णित परिवर्तन जितनी शीघ्रता से वर्णित हैं वे समयदर्शी पर इतनी शीघ्रता से घटित नहीं हुए हैं। इन सब घटनाचक्रों को स्वरूप धारण करने में लगभग दो सदियाँ लगी हैं। अब आगामी युग क्या लेकर आता है यह हम सब की जिज्ञासा रहेगी।